This Article is From Aug 17, 2021

तालिबान आ गया है तो क्या करें?

विज्ञापन
Priyadarshan

अरसे तक तालिबान भारतीय मीडिया के लिए तमाशा और चुटकुला रहा. कई टीवी चैनल रोज़ रात के शो में ओसामा बिन लादेन और मुल्ला उमर का ख़ौफ़ बेचते रहे, बताते रहे कि तालिबान आ गया है.  लेकिन जब तालिबान वाकई आ गया है तो अब तरह-तरह के अंदेशे और सवाल सामने आ रहे हैं. पहला सवाल यही है कि क्या भारत तालिबान की हुकूमत को मान्यता देगा? दूसरा सवाल यह है कि क्या तालिबान की हुकूमत में अफ़ग़ानिस्तान फिर किसी मध्ययुगीन अंधेरे में खो जाएगा? तीसरा सवाल यह है कि क्या महिलाओं के लिए अफ़ग़ानिस्तान में बुरे दिन शुरू हो गए हैं? क्या वे अब बुर्के में रहेंगी या उनको जबरन तालिबान लड़कों से शादी करनी पड़ेगी? चौथा सवाल यह है कि क्या अभी तक पाकिस्तान-चीन से परेशान भारत के लिए सरहद पार एक और परेशानी खड़ी नहीं हो जाएगी? पांचवां सवाल- क्या लश्कर-जैश जैसे संगठन और हौसले के साथ सक्रिय नहीं हो जाएंगे?

यह सच है कि ये सारे सवाल बेमानी नहीं हैं- ये ठोस अंदेशे हैं जिनको एक-एक कर परखने और उनका हल खोजने की ज़रूरत है. लेकिन ज़्यादा बड़ा सच यह है कि यह सिर्फ़ भारत-अफ़ग़ानिस्तान का नहीं, उस पूरी दुनिया का मामला है जिसे अंततः तय करना है कि अफ़ग़ानिस्तान के साथ उसका क्या रिश्ता हो. अगर बाक़ी दुनिया तालिबान को मान्यता देती है तो बहुत देर तक भारत इससे दूर नहीं रह सकता. फिर यह एक अलग मसला है कि अफ़गानिस्तान की नई हुकूमत अपने लोगों के साथ, अपनी लड़कियों के साथ क्या सलूक करती है. हमने श्रीलंका में तमिलों को मारे जाते देखा- हम चुप रहे, पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के साथ जो सलूक होता रहा, उस पर हम चुप रहे. भारत में अल्पसंख्यक जिस दबाव में जी रहे हैं, उस पर दुनिया बहुत कुछ नहीं बोल रही. चीन अपने यहां के मुसलमानों के साथ जिस तरह पेश आ रहा है, इराक अपने कुर्दों के साथ जैसे पेश आता था- उस पर कोई कुछ नहीं कर पाया. रूस ने चेचन विद्रोहियों के साथ जो कुछ किया, उस पर उससे कोई सवाल नहीं पूछ सका. अंततः मुल्कों की राजनीतिक सत्ताएं ही तय करती हैं कि वे अपने लोगों के साथ क्या सलूक करेंगी. और ये उस मुल्क के लोग ही तय कर सकते हैं कि वे अपनी सत्ता का कौन सा बरताव सहने को तैयार हैं और कब उसे पलटने को तत्पर. तालिबान अगर काबुल पर काबिज़ हो पाया तो इसलिए नहीं कि उसके पास बहुत भारी सेना थी या बहुत अत्याधुनिक हथियार थे, बल्कि इसलिए भी कि किसी भी वजह से अफ़ग़ानिस्तान में उसका एक समर्थन आधार बचा रहा जिसने उसका प्रतिरोध नहीं किया. अशरफ गनी ने अफग़ानिस्तान छोड़ने की जो हड़बड़ी दिखाई, उससे भी पता चलता है कि वे अफगानिस्तान की रक्षा करने में असमर्थ थे.

इसमें शक नहीं कि अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका हारा है. 20 साल पहले आतंक के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करते हुए जिस तालिबान को उसने नेस्तनाबूद कर दिया था, वह बेखौफ़ काबुल लौट आया है और अमेरिकी सैनिक बोरिया-बिस्तर बांध कर घर लौट रहे हैं. अफ़गानिस्तान में लाखों करोड़ डॉलर ख़र्च करने के बाद उसका हासिल क्या रहा- यह साफ नहीं है. ओसामा बिन लादेन भी उसे अफ़ग़ानिस्तान में नहीं, उसके मित्र पाकिस्तान के एक अहाते में छुपा मिला. अंततः बीस साल अपने साधन और अपनी सेना अफगानिस्तान में झोंकने के बाद अमेरिका हाथ झाड़ कर चल दिया.

Advertisement

हालांकि उसे दोषी नहीं कह सकते, क्योंकि वह वहां काबुल के भले के लिए नहीं आया था. वह अपने साझा टावरों के गिराए जाने के बदले के लिए आया था और इराक और अफ़गानिस्तान को तहस-नहस कर उसने अपनी प्रतिशोध पिपासा बुझा ली. ट्रेड टावरों के गिरने का सबसे ज़्यादा राजनीतिक फ़ायदा अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश को हुआ था जिनकी तब तक लड़खड़ाती दिख रही कुर्सी अचानक स्थिर हो गई थी और पूरा अमेरिका उनके साथ अपने अपराधियों की तलाश में लग गया था. इस क्रम में उसने अपने पुराने मुजरिम सद्दाम हुसैन को घेरा, उसे मार डाला और इसी क्रम में उसने अफ़ग़ानिस्तान में लोकतंत्र बहाल करने का काम किया. वहां चुनाव भी हुए, राष्ट्रपति चुने भी गए. फिर अमेरिका ने पाया कि अफ़ग़ानिस्तान में बने रहना उसके लिए घाटे का सौदा साबित हो रहा है, तो वह निकल गया.

Advertisement

अफगानिस्तान में अमेरिका के आने-जाने का सबक बस यही है कि दुनिया भर में मुल्क- और ताकतवर मुल्क भी- जो करते हैं वह अपनी ताक़त और दौलत बढ़ाने के लिए करते हैं. उनका साथ हमेशा सौभाग्य की बात नहीं होता. कम से कम भारत को यह सबक लेना चाहिए जो पिछले कुछ अरसे से अमेरिका के कुछ ज़्यादा क़रीब आने की कोशिश करता दिख रहा है. अमेरिका के इशारे पर उसने मुल्कों से अपने संबंध बदले हैं. बल्कि साल 2001 में जब अमेरिका ने आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध का एलान किया तो जिन देशों ने लपक कर उसका साथ देने की पेशकश की, उसमें भारत भी था. वह अटल-आडवाणी का दौर था और तब तक कंधार विमान अपहरण कांड में तालिबान की भूमिका बहुत पुरानी नहीं पड़ी थी और न ही वह शर्मनाक दृश्य जेहन से निकला था जिसमें देश के विदेश मंत्री अपनी सुरक्षा में तीन-तीन आतंकियों को रिहा करने कंधार जाने को मजबूर हुए थे. लेकिन अमेरिका ने भारत की नहीं, उस पाकिस्तान की मदद ली जो आतंक से लड़ने को नहीं, उसे हवा-पानी और मदद देने को जाना जाता था और जिसके लिए अमेरिका उसे पेमेंट करता रहा था. यह अलग बात है कि पाकिस्तान अमेरिका की आंखों में धूल झोंकता रहा या अमेरिका उसकी हरकत को नज़रअंदाज़ करता रहा क्योंकि उसके अपने लक्ष्य कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण थे. उसे यह भी साबित करना था कि आतंक के इस युद्ध को वह इस्लाम के विरुद्ध युद्ध नहीं मान रहा है.

Advertisement

बहरहाल, आज के अफ़ग़ानिस्तान पर लौटें. वहां जो हो रहा है, वह सारी दुनिया देख रही है. इसी दुनिया में वह रूस भी है जिसे कभी तालिबान की वजह से काबुल से निकलना पड़ा था. वह तालिबान के मौजूदा संयम की सराहना कर रहा है. इसी दुनिया में चीन भी है जिसने तालिबान की सरकार को मान्यता मिलने से पहले मदद और साझेदारी की पेशकश कर दी है. इसी दुनिया में पाकिस्तान भी है जिसके प्रधानमंत्री इमरान ख़ान बहुत चालाकी से बयान दे रहे हैं कि ज़ेहनी गुलामी से निजात पाना ज़्यादा ज़रूरी है. वह एक ही वार में तालिबान और अमेरिका दोनों को निशाना बनाना चाहते हैं. इसी दुनिया में संयुक्त राष्ट्र है जिसने तालिबान से अपील की है कि वह संयम बरते.

Advertisement

और इसी दुनिया में तालिबान भी है जो अपने खूंखार अतीत से कुछ मुक्ति पाने की कोशिश कर रहा है. वह भरोसा दिला रहा है कि इस बार क़त्लेआम नहीं होगा, लोगों को आम माफ़ी दी जाएगी और नागरिकों से अपील कर रहा है कि वे अपने दफ़्तरों में काम पर लौटें. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उसने महिलाओं से भी कहा है कि वे दफ़्तर आ सकती हैं.

यह कहना अतिरिक्त आशावाद का प्रदर्शन करना है कि यह बदला हुआ तालिबान है. अभी तक यह भेड़िये का भेड़ की खाल ओढ़ लेना ही लग रहा है. लेकिन यह सच है कि तालिबान ने एक बार अपना हश्र देखा है. उसे मालूम है कि वह दुनिया की महाशक्तियों को दुश्मन नहीं बना सकता. वैसे अफ़ग़ानिस्तान में भी उसके दुश्मनों का सफाया नहीं हो गया है. पंजशीर सहित कई और इलाक़ों में ऐसे गुट और सरदार हैं जो देर-सबेर तालिबान के ख़िलाफ़ भी जंग छेड़ेंगे. अभी अफ़गानिस्तान के प्रथम उपराष्ट्रपति रहे अमरुल्ला सालेह ने ख़ुद को कार्यकारी राष्ट्रपति घोषित कर दिया है. उनका कहना है कि संविधान में यही व्यवस्था है. वैसे भी काबुल पर क़ब्ज़े के बाद तालिबान जितना ताकतवर दिख रहा है, उतना वह शायद नहीं है. यह उसकी छाया है जो उसके असली क़द से काफ़ी बड़ी है.

बेशक, यह छाया भी डरावनी है. यह छाया सिर्फ़ वहां आधुनिकता और बराबरी की चाह रखने वाली महिलाओं पर ही नहीं पड़ रही, अफ़ग़ानिस्तान की सरहदों के चारों तरफ पड़ रही है. ख़ास कर भारत के लिए भी यह परेशानी का सबब है.

लेकिन भारत में नज़ारा दूसरा ही दिख रहा है. तालिबान के विरोधी हर किसी से तालिबान के विरोध का सर्टिफिकेट मांग रहे हैं. और अमेरिका के विरोधी अमेरिका को कोसते हुए तालिबान के समर्थन में खड़े हो जा रहे हैं. यही नहीं, यह पूछने वाले भी निकल आए हैं कि इस देश के उदार मुसलमान तालिबान का विरोध क्यों नहीं कर रहे? इनमें बहुत सारे वे लोग हैं जो ख़ुद को उदार हिंदू मानते हैं लेकिन कट्टर हिंदुत्व का विरोध करते नज़र नहीं आते.

जाहिर है, भारत में जो बढ़ता हुआ ध्रुवीकरण है, वह तालिबान के विरोध और समर्थन में भी दिख रहा है. इसमें सबसे ख़तरनाक प्रवृत्ति लोगों को तालिबान की जबरन आलोचना करने पर मजबूर करने की है. तालिबान ने जो किया या आने वाले दिनों में जो कर सकता है, वह अपने देश में किया या कर सकता है. बेशक, दुनिया के हर हिस्से में मानवाधिकारों का सवाल उठाने की सहज और उचित प्रवृत्ति के हिसाब से हमें अफ़गानिस्तान के भी मानवाधिकार के रिकॉर्ड पर नजर रखनी होगी. निस्संदेह वहां की महिलाएं अभी सबसे ज़्यादा ख़तरे में हैं. बीस बरस में जो उन्होंने हासिल किया है, वह उनसे छूट सकता है. लेकिन महिलाओं के इस हाल पर वाकई फ़िक्रमंद होना एक बात है और उसे मुद्दा बनाकर भारत में अपने विरोधियों से हिसाब चुकता करना- या किसी समुदाय विशेष को निशाना बनाना- दूसरी बात.

सच तो यह है कि तालिबान के प्रति अपनी नफ़रत के उत्साही प्रदर्शन के बावजूद हमें न मानवाधिकारों की ज़्यादा परवाह है, न महिलाओं की स्थिति की और न ही सामाजिक स्तर पर किसी सद्भाव या समानता की. भारत में तो लगता है कि एक बड़ा तबका तालिबान होने को उत्सुक-आमादा है. जहां तक स्त्रियों का सवाल है, उनकी स्थिति दक्षिण और पश्चिम एशिया के लैंगिक गैरबराबरी के मारे समाजों में ही बदतर नहीं है, उस चमकती दुनिया में भी डरावनी है जहां हमें लैंगिक बराबरी के बहुत सारे चिह्न मिलते हैं. दुनिया भर में स्त्रियों की ख़रीद-फ़रोख़्त का कारोबार लाखों करोड़ डॉलर का है. एशिया-अफ़्रीका के गरीब मुल्कों की ये लड़कियां दुनिया भर की चमचमाती सैरगाहों में मुहैया कराई जाती हैं.

तो यह पाखंड हम छोड़ दें कि हमें सामाजिक सद्भाव, लैंगिक बराबरी या किसी आर्थिक संकट की वजह से अफगानिस्तान में तालिबान के आने की फ़िक्र है. अफगानिस्तान में तालिबान का होना हमारे लिए रणनीतिक रूप से नुक़सानदेह है. इसलिए भी कि तमाम तरह के आतंकवाद या टकराव के बावजूद भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान तक की सामाजिक संरचना या ऐतिहासिक विरासत में बहुत कुछ ऐसा हो जो बस उदार ही नहीं है, हमें एक-दूसरे से जोड़ता और बांधता भी है जबकि तालिबान इस समाज को ही बदलना चाहते हैं.

इसलिए भारत को तालिबान के अफ़ग़ानिस्तान के साथ अपने रिश्ते बिल्कुल ठोस राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में ही तय करने होंगे- यह देखते और तौलते हुए कि वहां शांति या समृद्धि के लिए किया जाने वाला भारतीय निवेश कैसे सुरक्षित या नियमित रह सकता है, दक्षिण एशिया की राजनीति में पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के किसी संभावित गठजोड़ से भारत को कैसे सुरक्षित रखा जा सकता है, दुनिया के बाक़ी देश तालिबान से कैसे सरोकार रखते हैं और अंततः तालिबान ख़ुद को बदलने को कितना मजबूर होता है.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

Topics mentioned in this article