उत्तराखंड के उत्तरकाशी के धराली में फटा बादल, हे माँ गंगा,क्या अपराध हो गया हमसे?

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मयंक आर्य

उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के धराली में मंगलवार को बादल फटने के कारण खीर गंगा नदी में बाढ़ आने से चार व्यक्तियों की मृत्यु हो गई. इस हादसे में कई मकान और होटल तबाह हो गए. उत्तरकाशी के जिलाधिकारी प्रशांत आर्य ने इस हादसे में अभी चार लोगों के मरने की पुष्टि की है. हताहतों की संख्या अभी और बढ़ने की आशंका है. राहत और बचाव टीमों को घटनास्थल के लिए रवाना कर दिया गया है. इस घटना के जो वीडियो सोशल मीडिया पर आ रहे हैं, वो काफी भयावह है. इस घटना से देशभर में लोग दुखी है. इस घटना के बाद उत्तराखंड से हमारे एक पाठक ने एक भावुक कविता लिखकर भेजी है. आप भी पढ़िए कि उन्होंने क्या भावनाएं व्यक्त की हैं. 

हे माँ गंगा,
क्या अपराध हो गया हमसे?
क्या हमारी भक्ति में कोई कमी रह गई थी?
या फिर प्रकृति का कोई ऐसा संतुलन बिगड़ गया, जिसकी आहट हमने अनसुनी कर दी?

मैं उन घाटियों में भटका हूँ,
उन पगडंडियों पर चला हूँ,
जहाँ अब कीचड़, मलबा और चीखों की प्रतिध्वनियाँ गूंज रही हैं।
वो धूल-धुसरित गाँव, जो कभी मेरी मुस्कानों के गवाह थे.
आज मेरे आंसुओं की सबसे बड़ी वजह बन गए हैं.

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धराली और हर्षिल 
ये सिर्फ नाम नहीं हैं मेरे लिए, ये तो मेरी आत्मा के हिस्से हैं.
यहाँ के गाँववाले, वो साधारण मगर आत्मीय चेहरे,
जिन्होंने बिना किसी औपचारिकता के मुझे अपने घरों में स्थान दिया,
अपने पर्वों में सम्मिलित किया.
अपनी रोटियों में हिस्सा दिया.
आज उन्हीं की आँखों में डर, शोक और असहायता देखना असहनीय है।

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मैंने संजय पंवार को जाना है 
धाराली का मेरा पहला संपर्क,
एक ऐसा व्यक्तित्व जो निर्भीक था, ज़मीनी था,
कभी खेतों में हल चलाता, तो कभी पर्यटकों के लिए होटल सजाता।
उसे आज अपनी फेसबुक पोस्टों में टूटते हुए देखना 
मेरे भीतर कुछ तोड़ देता है।
वो अकेले नहीं टूटे हैं, उनके साथ मेरे विश्वास, मेरी यादें और मेरा अपनापन भी ढह गया है।

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मैंने इस घाटी में सिर्फ पर्यटन नहीं किया 
मैंने यहाँ जीवन जिया है।
मैंने तस्वीरें खींचीं, त्यौहारों को फ़िल्माया,
और सबसे बढ़कर 
यहाँ के लोगों को अपने हृदय में स्थान दिया।
ये लोग मेरे मेहमान नहीं थे 
ये मेरे परिजन बन चुके थे।

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और अब... जब मैं धाराली वापस जाऊँगा,
तो वो लकड़ी के घर नहीं मिलेंगे,
न ही वो चूल्हों से उठती सौंधी महक,
जो घर का रास्ता बताती थी।
अब वहाँ होगा मलबा, सन्नाटा,
और बचे हुए लोगों की डबडबाई हुई आँखें।

गंगा घाटी 
जिसे मैं चित्रों में, यादों में,
और अपने दिल की सबसे सुरक्षित जगहों पर बसाए बैठा था,
आज उस घाटी की छवि धुंधली हो गई है 
क्योंकि वो घर, वो रास्ते, वो दरख़्त 
सब अब राख हो चुके हैं।

माँ गंगा...
क्या यही वह भूमि है जहाँ तुम्हारी धारा ने सभ्यता को जीवन दिया?
क्या यही वो जगह है जहाँ ऋषियों ने तप किया,
जहाँ प्रकृति और मानव एकरस होकर सह-अस्तित्व का उदाहरण बने?
तो फिर ऐसा क्या हुआ माँ,
जो तुम्हारी ही गोद में बसे तुम्हारे ही बच्चे उजड़ गए?

नदी तो शांत हो जाएगी कुछ दिनों में,
जल अपनी धारा में लौट आएगा,
पर जो लौटकर नहीं आएँगे,
वो होंगे मेरे अपने 
वो प्रियजन जिनके शव उस धारा में बह रहे होंगे,
और वो भाई-बहन जिनकी आँखों के आँसू अब कभी थमेंगे नहीं।

इस त्रासदी ने सिर्फ ज़मीन को नहीं,
मेरे भीतर के हिस्सों को भी बहा दिया है।
अब गंगा की लहरों में मुझे शांति नहीं 
एक अनकही हूक सुनाई देती है।

हे माँ गंगा,
यदि यह भी तुम्हारी परीक्षा है,
तो हमें शक्ति देना इसे सहने की,
और यदि यह हमारी भूल है,
तो मार्ग दिखाना हमें 
ताकि फिर कभी तुम्हारी गोद में ऐसा दिन ना आए।

अस्वीकरण: लेखक उत्तराखंड के निवासी और एक ट्रवैल फोटोग्राफर हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके नीजि हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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