This Article is From Dec 25, 2020

बुझ गया चांद सरे आसमां

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Priyadarshan

कम लोगों को एहसास होगा कि शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी का इंतक़ाल हिंदुस्तानी तहज़ीब और अदबी रिवायत के लिए कितना बड़ा नुक़सान है. 2020 के इस मनहूस बरस में मौत के साये जैसे दस्ताने पहन कर घूम रहे हैं, और वे चुन-चुन कर उन लोगों को ले जा रहे हैं जिन्होंने हमारे समय को ही मायने नहीं दिए, हमारे माज़ी को भी हमारे लिए बचाए रखा.

2007 में शाया हुआ उनका उपन्यास 'कई चांद थे सरे आसमां' हिंदुस्तानी अदब की दुनिया में संगे मील से कुछ बड़ा ही साबित हुआ. इस उपन्यास का फैलाव कम से कम तीन सदियों को घेरता है और इसके दायरे में पेंटिंग, साहित्य, संस्कृति और सामाजिक जीवन सब चले आते हैं. उन्होंने इस उपन्यास में तारीख़ को जिस तरह दर्ज किया है, वह अपने ढंग से अनूठा है. आज के वक़्त इस बात का तसव्वुर करना आसान नहीं है कि बीती सदियों में लोगों का सामाजिक जीवन कैसा था, वे कैसे घरों में रहते थे, किस तरह कपड़े पहनते थे, किस तरह रोशनी का इंतजाम करते थे, जब पेंटिंग करना चाहते थे, तो रंग कहां से लाते थे, कूची कैसे बनाते थे, रंगों को अलग-अलग रंगतें कैसे देते थे.

'कई चांद थे सरे आसमां' की कहानी के केंद्र में वैसे तो शायर दाग़ की मां वज़ीर ख़ानम हैं लेकिन इसका सिलसिला बिल्कुल अठारहवीं सदी के शुरू से चल पड़ता है. किशनगढ़ का एक चित्रकार एक राजकुमारी की तस्वीर बनाता है जिसकी सूरत वाक़ई राजा की बेटी से मिलती-जुलती है. नाराज़ राजा अपनी बेटी को मार देता है और पूरे गांव को ख़ाली करने का आदेश देता है. किशनगढ़ के चित्रकारों का ये समूह वहां से भागता हुआ कश्मीर पहुंचता है. कश्मीर से उसके वारिस फिर राजपूताना लौटते हैं और उसके बाद दिल्ली लौटते हैं। यह कहानी कई पीढ़ियों और कम से कम दो सदियों तक फैली है जिसका ख़ुलासा भी यहां ठीक से मुमकिन नहीं. लेकिन यह कहानी कहते हुए फ़ारूक़ी साहब इतनी सारी चीज़ें बता जाते हैं कि हैरानी होती है. किशनगढ में सबसे अच्छी कूचियां कैसे बनती थीं, सबसे अच्छे रंग कैसे तैयार किए जाते थे और जब रेगिस्तान के इस रंग भरे माहौल से निकल कर चित्रकार कश्मीर के धूसर संसार में पहुंचे तो उनकी रचनात्मक चुनौतियां कैसे बदल गईं- यह समझना दरअसल तभी मुमकिन है, जब लेखक कला और कलाकार की रूह और रोशनी को बिल्कुल सीधी-नंगी आंख से देख सके. फ़ारूक़ी इस क्रम में राजस्थान की एक चित्र-शैली 'बनी-ठनी' को भी ले आते हैं. इस हिस्से को पढ़ते हुए बरबस ओरहान पामुक के उपन्यास 'माई नेम इज़ रेड' का ख़याल आता है जहां जिल्दसाज़ बता रहे होते हैं कि किताबों पर किस तरह वे सजाते हैं. यह अनायास नहीं है कि पामुक ने भी फ़ारूक़ी के इस उपन्यास की तारीफ़ की थी. इस उपन्यास में इसके अलावा बहुत सारी विधाएं, बहुत सारी शैलियां, बहुत सारी व्यवस्थाएं चली आती हैं- यहां तक कि उस समय की मशहूर ठगी की भी डराने वाली शक्ल हमें मिल जाती है. उपन्यास में मोहब्बत भी है, बग़ावत भी है, अंग्रेज़ों से टकराव भी है, आपसी अदावत भी है- ऐसा लगता है कि बादशाहों और उनकी फ़ौजों से लेकर तवायफ़ों और उनकी ग़ज़लों तक- और मुसव्विरी-मौसिक़ी से लेकर तलवारबाज़ी तक- जैसे हर दुनिया की एक चाबी शम्सुरर्हमान फ़ारूक़ी अपने साथ लिए चलते हैं. उनके बयान की रवानी भी ग़ज़ब है. रंगों के भीतर वे इतने रंग देख लेते हैं- इतने सारे हरे-नीले, आसमानी रंगों का वितान खड़ा कर देते हैं कि पाठक उनमें डूब जाए. इस उपन्यास में वज़ीर ख़ानम की ख़ूबसूरती का उनका बयान पढ़ने लायक़ है.

कृपया यह न समझें कि 'कई चांद थे सरे आसमां' आसान या दिलचस्प उपन्यास  है। यह हक़ीक़त है कि दुनिया के बड़े उपन्यास आसान या दिलचस्प नहीं होते. उन्हें धीरज से पढ़ना होता है. टॉल्स्टाय का 'वार ऐंड पीस' या दॉस्तोएव्स्की का 'क्राइम ऐंड पनिश्मेंट' आसान उपन्यास नहीं हैं. उन्हें पढ़ना एक गहरे समंदर में ग़ोता लगाने जैसा है. आप जैसे-जैसे इस गहराई में उतरते हैं, आपके सामने तरह-तरह की दुनिया नमूदार होती जाती है, ज़िंदगियों की बहुत सारी तहें खुलती जाती हैं और नीचे उतर कर वह मोती मिलते हैं जिन्हें हम मानी कहते हैं. भारतीय साहित्य की दुनिया में ऐसे मोती छानने वाले उपन्यास बेशक कम हैं. उर्दू की ही क़ुर्रतुलऐन हैदर के 'आग का दरिया' या मराठी के भालचंद्र नेमाड़े के 'हिंदू: सभ्यता का कबाड़' जैसे गिनती के उपन्यासों को इस श्रेणी में रखा जा सकता है. चाहें तो प्रेमचंद के 'गोदान', भगवतीचरण वर्मा के 'सीधे-सच्चे लोग' या ताराशंकर वंद्योपाध्याय के 'गणदेवता' को भी इसके क़रीब रख सकते हैं क्योंकि एक पूरे समाज या कई पीढ़ियों की कहानी वहां मौजूद है.

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मगर सिर्फ 'कई चांद थे सरे आसमां' के लिए शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी को याद करना उनके पूरे योगदान के साथ नाइंसाफ़ी करना है. उनका रचनात्मक संसार कहीं ज़्यादा बड़ा है जिसमें कहानियां भी हैं और कविताएं भी. साथ ही जिसे तनक़ीद या आलोचना कहते हैं, उसमें भी शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी का काम काफ़ी अहम है. शमीम हन्फ़ी और गोपीचंद नारंग जैसे नक़्क़ादों के अलावा उर्दू आलोचना को जिन्होंने आधुनिक मिज़ाज दिया, उनमें फ़ारूक़ी का नाम ऊपर आता है. वे अनुवादक भी रहे. बरसों-बरस 'शब ख़ून' नाम की पत्रिका के संपादक भी। मीर पर भी उनकी किताब मशहूर रही. इन दिनों दास्तानगोई के फ़न को अपनी तरह की शोहरत दिला रहे महमूद फ़ारूक़ी के मुताबिक़ इस खोई हुई विधा की ओर उन्होंने ही ध्यान खींचा. वे न होते तो शायद महमूद की ये नई दुनिया न होती.

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लेकिन अब चांद बुझ गया है और आसमान सन्नाटे में है- वह भी ऐसे समय, जब उफ़क पर बहुत सारे बदनुमा साये छाये हुए हैं और हिंदुस्तान की मुकम्मल सांस्कृतिक पहचान को कई तरह के ख़तरे झेलने पड़ रहे हैं. इन सबके बीच शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी एक मशाल की तरह उम्मीद पैदा करते थे- बेशक, उनके लफ़्ज़ों की रोशनी बची हुई है जो हमारे भरोसे और हमारी पहचान को क़ायम रखेगी.

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उनके इंतक़ाल की ख़बर सुनने के बाद इंटरनेट पर हिंदी में उनकी कविताएं खोजने की कोशिश की। रेख़्ता पर मिला एक मौजूं शेर- 'बनाएंगे नई दुनिया हम अपनी/तिरी दुनिया में अब रहना नहीं है.

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प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं...

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