उत्तर-आधुनिकता का दौर है. अबूझ और अपरिभाषित वास्तविकताओं का दौर. कला, धरम-करम, समाज, संस्कृति, ज्ञान, विज्ञान सब संदिग्ध और सशंकित. अनगिनत अर्थ और ढेर सारी व्याख्याएं. डीकंस्ट्रक्शन और डिस्ट्रक्शन दोनों का सह अस्तित्व कई बार समानार्थी. तय करना मुश्किल कि कुछ रचा जा रहा है या तोड़ा जा रहा. यह वास्तविक अर्थ में लोक-युग है. जहां हर व्यक्ति स्व-अभिव्यक्त है. किसी के प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं. और अगर प्रमाणपत्र भी तो अलग-अलग. हम जैसा चाहे अपने बारे में दावा कर सकते हैं. लोग जैसा चाहे आपके बारे में कह सकते हैं. कुछ निश्चित नहीं. अनिश्चितता का अस्तित्व.
स्व-प्रमाणिकता हमें लेखक, कलाकार, नेता, अभिनेता बनने के सपनों से वंचित नहीं होने देती. लेखक को प्रकाशक की जरूरत नहीं. उसका फेसबुक, इंस्टाग्राम पर लिखना भी उसे अमर कर सकता है. नेता बनने के लिए पार्टी की जरुरत नहीं, और अभिनेता होने के लिए रील ही काफी है.
उत्तर-आधुनिक काल
जैसे अगर मैं अपनी बात करूं तो उत्तर-आधुनिक कलाओं को देखकर मेरे भीतर का कलाकार मचल उठता है. अंदर से आवाज आती है कि मैं भी रच सकता हूं, कुछ गढ सकता हूं. मैं भी कलाकार हो सकता हूं. मेरे भीतर गायक है, वादक है, चित्रकार है, लेखक, कवि और न जाने क्या-क्या है! कल ही एक 'एपिक' तस्वीर देखी. एक बहुत बड़े कलाकार की. कला-जगत में प्रतिष्ठित है. तस्वीर थी- सुन्दर, मन को भाने वाली. बहुत सारी रंगीन रेखाएं एक दूसरे के ऊपर बेतरतीबी से कूदती भागतीं. लगा कि चित्रकार ने ब्रश का त्याग कर रंगों की बोतलों को एक कैनवास पर फेंक मारा हो. चित्रकार के बिना ब्रश के प्रयोग से बने इस चित्र से मैं चकित हुआ. मैंने उनकी कलाकारी का लोहा माना. उसे अपना गुरु माना. मैंने उसे गौर से देखा, बहुत गौर से देखा. सोचने लगा कि आखिर यह तस्वीर किस चीज की है, यह क्या कह रही है! क्या बताना चाह रही है! बड़ी मुश्किल से मैंने उससे एक अर्थ निकाला. मैंने उसे किसी और को भेजा और उसका मतलब पूछा. उसने दूसरा अर्थ बताया. एक तीसरे को दिया, उसने तीसरा अर्थ दिया. यह अर्थ देने का क्रम जारी रहा. इस अर्थ की श्रृंखला में तस्वीर का अर्थ निकला या न निकला, लेकिन यह जरुर तय हो गया कि मैं भी चित्रकारी कर सकता हूं. उत्तर-आधुनिकता आम आदमी को सबकुछ बना सकती है. जो वैधता और व्याकरण की सीमाओं से बाहर है, वही उत्तर-आधुनिक है. जो उत्तर-आधुनिक है उसके भीतर संभावनाएं ही संभावनाएं हैं.
कौन कहलाता है विद्वान
महान व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई एक जगह ‘विद्वान' को परिभाषित करते हुए लिखते हैं. “जो समझ में आ जाए वो विद्वान काहे का!” अबूझ होना, अज्ञात होना समय की सबसे बड़ी योग्यता है. आज के दौर के कलाकार बड़े कलाकार हैं, वे अबूझ हैं. उनकी कला के अर्थ निकालने पड़ते हैं. बड़ी जद्दोजहद करनी पड़ती है. लेखक बड़े लेखक हैं, क्योंकि उनकी लेखनी समझ से परे है. नेता बड़े राजनेता हैं, क्योंकि उनकी नीतियां इतनी दूरदर्शी हैं कि आम आदमी की समझ में नहीं आतीं. अधिकारी बड़े अधिकारी हैं, क्योंकि उनकी हरकतें अज्ञात हैं. गायक, गायिकी के व्याकरण को ध्वस्त कर लोकप्रिय हो रहें हैं. नर्तक कसरत को मात देकर हमें आनंदित कर रहें. कवि की कविताएं ऐसी जैसे सस्ती कहानियों की पंक्तियों का क्रम तोड़ दिया गया हो. कुछ कविताएं ऐसी जैसे बातों की पंक्तियों को बस एक के बाद एक ऊपर से नीचे कर दिया गया हो. वैसे यह सब रचनाकर का कोई दोषपूर्ण पक्ष नहीं, बल्कि यही उनकी उपलब्धि है. यही उनका सम्मान है. और इसी से वे ख्याति पाते हैं. मैं समझता हूं कि बड़े लोगों का कार्य केवल रचना है, गढ़ना है. अर्थ प्रदान करना उनका कार्य नहीं, बल्कि यह हमारा धरम है. अगर वे अर्थ भी देने लगेंगे तो फिर रचेगा कौन- बेकार में समय की बर्बादी होगी! अगर हम उनकी रचनाओं में अर्थ नहीं ढूंढ पाते तो यह हमारी समझदारी की दिक्कत है. अगर उनकी रचनाओं में हमें मूर्खतापूर्ण जैसा कुछ प्रतीत होता है, तो यह हमारा मतिभ्रम है. इसका सीधा मतलब है हमें कला, राजनीति, और साहित्य की समझ नहीं! बड़े लोग और उनके कार्य सबकी समझ में नहीं आते.
भ्रम का टूटना
बहुत दिनों तक मैं खुद को ठीक-ठाक समाजशास्त्री होने का भ्रम पाले रहा. लेकिन यह टूट गया. मैं ठहरा आधुनिकता का एक उत्पाद. यह भ्रम मैंने अपनी सरकारी कागजी डीग्री और अन्य प्रमाणपत्रों के कारण पाल रखा था. मैं भूल गया कि अब प्रमाणिकता का प्रमाणपात्र कौन बांटेगा यह भी दुनिया में बहश का मुद्दा है. ऐसे में एक प्रिय छात्र ने मेरी तमाम कागजी उपलब्धियों को धता बताते हुए मुझसे कहा कि मैं आपको एक समाजशास्त्री नहीं मानता. मैं हडबडा गया! मैंने कारण पूछा तो उसने बताया कि आपकी कक्षा को सुनने से लगता है कि आप जो बता रहे हैं, उसे समझने के लिए मुझे अतिरिक्त दिमाग नहीं लगाना पड़ता- ऐसा लगता है यह सब मुझे पहले से ही आ रहा. उसमें कोई सिद्धांतों की कसरती उठापटक या वाद-विवादों की जटिल धमाचौकड़ी नहीं. एक प्रोफेसर को गंभीर और रहस्यमयी होना चाहिए. बस आप सीधी से कहानी कह जाते हैं. मैं उसे कैसे समझा पाता कि सब रचनाएं कहानियां कहने का ही प्रयास है. बाद में सोचा तो समझ में आया- समय आधुनिकता के बाद का है. जो समझ में आ जाए वह समझदार काहे का! समझदारी न समझे जाने में हैं, कलाकारी अकलाकारी में, लेखकी अलेखकी में और राजनीति, अराजनीति में.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): केयूर पाठक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखकों के निजी विचार हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.