एक स्त्री का अकेले रहने का फैसला एक पुरुष के अकेले रहने के फैसले से अलग होता है. यह आसान नहीं होता. खुद की मर्जी से लिया गया हो या परिस्थितिवश. जानते हैं यह मुश्किल फैसला क्यों होता है? इस फैसले को निभाना मुश्किल क्यों होता है? क्योंकि हम सब मिलकर उसे मुश्किल बनाते हैं. हम सब जो उस स्त्री के करीबी हैं, उसके दोस्त हैं, परिवार हैं. हर वक़्त उसे यह एहसास कराते हैं कि तुमने गलत फैसला लिया है, तुम इसे बदल दो, अब भी देर नहीं हुई. अगर वो स्त्री लड़खड़ा जाये, कभी उलझ जाय, उदास हो जाय तो ये सारे करीबी मुस्कुराकर कहते हैं, 'देखा मैंने तो पहले ही कहा था.' और अगर साथ में बच्चा भी है तब तो कहना ही क्या. सारा का सारा समाज मय परिवार राशन पानी लेकर चढ़ जाएगा यह बताने के लिए कितना गलत फैसला कर लिया है उस स्त्री ने.
लेकिन यह वही दोहरे चरित्र वाला समाज है अगर स्त्री के लिए यह फैसला नियति ने किया हो (पति की मृत्यु या ऐसा कुछ) तब यह नहीं कहता कि आगे बढ़ो नए रिश्ते को अपना लो. तब यही लोग कहते हैं अरे, 'बच्चे का मुंह देख कर जी लो.' नियति को स्वीकार कर लो. मतलब सांत्वना देने या ताना देने के सिवा कुछ नहीं आता इन्हें. एक मजबूत स्त्री जिसने खुद के लिए कुछ फैसले लिए हों, जिसकी आँखों में सिर्फ बच्चे की परवरिश ही नहीं अपने लिए भी कुछ सपने हों, इनसे बर्दाश्त ही नहीं होती. घूम फिरकर उसे गलत साबित करने पर तुल जाते हैं. अगर वो खुश है अकेले तो भी कटघरे में है और अगर वो उदास है तो भी कटघरे में ही है. हंसी आती है इन लोगों पर. क्योंकि दुख तो अब होता नहीं.
हाल ही में आई फिल्म ट्रायल पीरियड ने भी ऐसा ही कुछ परोसने की कोशिश की है. मैंने फिल्म रिलीज के दिन ही देख ली थी लेकिन मुझे फिल्म अच्छी नहीं लगी. मैं अपने एंटरटेनमेंट में भी काफी चूजी हूँ. कुछ भी मुझे खुश नहीं कर सकता.
फिल्म एक एकल स्त्री की कहानी है. जिसका एक छोटा बच्चा है. बच्चा अपने पापा के बारे में पूछता रहता है. यह पूछना उसके पियर प्रेशर से भी ड्राइव होता है. सारे बच्चे पापा के बारे में बातें करते हैं और उसके पापा नहीं हैं. वो अपनी मां से ट्रायल पर पापा लाने के लिए कहता है. आइडिया मजाक वाला है लेकिन ठीक है.
त्रासदी वहाँ से शुरू होती है जहां से कौमेडी शुरू होती है. किराए के पापा सुपर पापा हैं. एक बेरोजगार नवयुवक जो किराए के पापा कि नौकरी पर चल पड़ता है. पापा की सारी भूमिकाएँ निभाता है और बच्चे के भीतर पल रही पापा की कमी को पूरा करता है. लगे हाथ माँ को पैरेंटिंग पर लेक्चर भी पिला देता है. खैर, माँ को पैरेंटिंग पर तो लेक्चर यहाँ कोई भी देकर चला जाता है. सो नथिंग न्यू इन इट.
तो ये नए पापा सब कुछ फिक्स कर देते हैं. खाने से लेकर होमवर्क, स्पोर्ट्स से लेकर एंटरटेंमेट तक. कहाँ हैं ऐसे पापा भाई? पापा वो भी तो हैं जो बच्चे के सामने माँ का अपमान करते हैं, घर के काम करते नहीं बढ़ाते हैं, माँ और बच्चे का हौसला नहीं बढ़ाते बल्कि उन्हें बताते हैं उनकी कमियाँ गलतियाँ. और आखिर में वही हिन्दी फिल्मों का घिसा पिटा फॉरमूला कि हीरो हीरोइन बच्चे के साथ हैपी एंडिंग करते हुए मुसकुराते हुए.
यह फिल्म मिसोजिनी अप्रोच की ही फीडिंग करती है. मेरे लिए यह फिल्म तब बेहतर होती जब हीरो हीरोइन के संघर्ष को सैल्यूट करता, बच्चे को समझाता कि उसकी माँ कितनी शानदार स्त्री है और पापा के न होने से उसका जीवन कम नहीं है बल्कि कुछ मामलों में ज्यादा सुंदर ही है. हीरोइन और मजबूती से खड़ी होती. और किराए के पापा को कोई सचमुच का बढ़िया रोजगार मिल जाता.
फिल्म में मानव को देखना ही सुखद लगा. बाकी लोगों को देखकर तो ऐसा लग रहा था जैसे या तो वो ओवरकान्फिडेंट थे कि क्या ही करना है एक्टिंग जो करेंगे ठीक ही लगेगा. और जेनेलिया की भर भर के क्यूटनेस कितना देखे कोई. कभी तो उन्हें थोड़ी एक्टिंग भी कर लेनी चाहिए. फिल्म रील नहीं है यह बात उन्हें समझनी चाहिए. फिल्म का संगीत अच्छा है. बिना किसी संकोच के कह सकती हूँ फिल्म सिर्फ मानव के कंधों पर चल रही है. फिल्म का चलना सुखद है लेकिन क्यों उन सवालों पर बात नहीं होनी चाहिए जो सवाल फिल्म छोड़ रही है.
(प्रतिभा कटियार कवि, लेखक, कहानीकार हैं. उनकी 4 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. इन दिनों वो देहरादून में रहकर शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रही हैं.)
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.