This Article is From Nov 12, 2023

अबकी बारी, बागी कांग्रेस और BJP पर भारी, क्या बिगाड़ेंगे जीत का समीकरण?

Advertisement
Dharmendra Singh

राजस्थान के चुनावी रण में 200 सीटों पर राजनीतिक बिसात बिछ चुकी है लेकिन बागी उम्मीदवारों के गढ़ राजस्थान में फिर चर्चा जोरों पर है कि इस बार बागी उम्मीदवार किस पार्टी का खेल बिगाड़ेंगे। उम्मीद थी कि उम्मीदवारों की नाम वापसी के बाद कांग्रेस और बीजेपी का सिरदर्द खत्म हो जाएगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। हालांकि कांग्रेस और बीजेपी के आला नेताओं ने बागियों की मान- मनौव्वल में कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन उम्मीद पर पानी फिर गया है।  

अब 1875 प्रत्याशी मैदान में हैं। इनमें 1692 पुरुष और 183 महिलाएं हैं। कुल 510 प्रत्याशियों ने नामांकन वापस ले लिए हैं। कांग्रेस और बीजेपी को उम्मीद थी कि बागी आखिरकार अपना नाम वापस ले लेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अब दोनों पार्टियों के सामने बागी बड़ी चुनौती बने हुए हैं। बीजेपी सिर्फ 17 बागियों को बैठाने में सफल हो पाई,जबकि 22 अभी मैदान में जमे हैं। गौर करने की बात है कि इतने ही बागी कांग्रेस के भी हैं। हालांकि कांग्रेस 12 बागियों को मनाने में कामयाब हुई जबकि 22 बागी ने मैदान छोड़ने से मना कर दिया। बीजेपी ने करीब एक दर्जन मौजूदा विधायकों का टिकट काटा जिनमें वसुंधरा राजे के समर्थक ज्यादा माने जाते हैं। वहीं कांग्रेस ने 19 विधायकों को टिकट नहीं दिया जिनमें तीन विधायक बीमारी और उम्र की वजह से चुनाव लड़ने से मना कर चुके थे। दो विधायकों के परिवारवालों को टिकट देकर नाराजगी कम करने की कोशिश की गई। आखिरकार 14 विधायकों को टिकट नहीं मिला। 

राजस्थान में बागियों की केमिस्ट्री ऐसी है कि कई चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस के खेल बिगाड़ चुके हैं और इस बार भी सस्पेंस बना हुआ है कि क्या ये बागी बहुमत के मैजिक नंबर तक पहुंचने में रोड़ा बनने का काम करेंगे?सस्पेंस इसीलिए बना हुआ है क्योंकि राजस्थान में बागियों का पुराना इतिहास रहा है  जिसकी वजह से बहुमत का खेल कई बार बिगड़ चुका है। पिछले चुनाव की ही बात करें तो बीजेपी और कांग्रेस के करीब 50 बागी थे जिनमें कांग्रेस के 30 और बीजेपी 20 थे। इन पचास बागियों में से 13 निर्दलीय की जीत हुई।

Advertisement
इन 13 निर्दलीय विधायकों में कांग्रेस के 11 और बीजेपी के 2 बागी बनकर चुनाव मैदान में उतरे थे। यही वजह थी कि कांग्रेस बहुमत से एक कदम पीछे छूट गई थी। गनीमत यही रही कि अशोक गहलोत को बीएसपी और निर्दलीय विधायकों का सहारा मिल गया। अमूमन ये निर्दलीय जिस पार्टी के पास ज्यादा सीट होती है उनके पक्ष में चले जाते हैं। राजस्थान की 200 विधानसभा सीट में से कांग्रेस को 100 और बीजेपी को 73 सीटें मिली थीं। मतलब निर्दलीय और छोटी पार्टियों को 27 सीटें मिली थीं। 

राजस्थान की राजनीतिक पृष्ठभूमि को समझने के लिए चुनाव के पन्ने पलटने की जरूरत है। गौर करने की बात है कि 1975 विधानसभा चुनाव के बाद बीजेपी और कांग्रेस मिलकर भी 80 फीसदी वोट हासिल नहीं कर पाई है, हालांकि 1975 में बीजेपी नहीं बल्कि जनता पार्टी थी जिसमें जनसंघ भी सम्मिलित थी, जो अब बीजेपी बन चुकी है। यही नहीं 1990 विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी, कांग्रेस और जनता दल के बीच टक्कर के बाद भी तीनों पार्टियां 80 फीसदी वोट तक ही सिमट गई थीं। मसलन निर्दलीय और छोटी पार्टियां करीब 20 फीसदी वोट खा लेती हैं, जिसकी वजह से 1990 के बाद निर्दलीय और छोटी पार्टियां 15 से 30 सीट हासिल करती हैं ।  

Advertisement

दिलचस्प ये भी है कि इन्हीं निर्दलीय और छोटी पार्टियों के समर्थन से राजस्थान में 1990, 1993, 2008 और 2018 में सरकार बनी थी क्योंकि किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था। खासतौर पर 2018 में 13,2013 में 7,2008 में 14, 2003 में 13 जबकि 1993 में 21 निर्दलीय जीते थे।

Advertisement
वोट की बात करें तो 2018 में निर्दलीय को 9.47 फीसदी, 2013 में 8.21 फीसदी, 2008 में 14.96 फीसदी, 2003 में 11.37 फीसदी,1993 में 12.9 फीसदी वोट मिले थे।  

निर्दलीय और छोटी पार्टियों के जीतने का भी गणित अलग है। जब कांग्रेस और बीजेपी के बीच कड़ी टक्कर होती है तो निर्दलीय विधायकों की संख्या बढ़ जाती है और जब एक पार्टी दूसरी पार्टी पर काफी भारी होती है तो निर्दलीय की संख्या घट जाती है। जाहिर है कि निर्दलीय वही होते हैं जिन्हें राष्ट्रीय पार्टी से टिकट नहीं मिलता है या जिनका खुद अपना वजूद होता है। बागी वही होते हैं जिस मौजूदा विधायक का टिकट काट दिया जाता है और बरसों से जो पार्टी के लिए काम करते हैं लेकिन आखिरी क्षण में उनको किनारा कर दिया जाता है। वे पार्टी के लिए मुश्किल पैदा कर देते हैं। 

Advertisement

बीजेपी और कांग्रेस की अपनी मजबूरी है। तकनीकी युग में विधायकों के अच्छे कामकाज, उम्मीदवारों की उम्र, विधानसभा के समीकरण और जीतने की उम्मीद को देखकर टिकट का पैमाना चुना जाता है जिसकी वजह से पार्टी में विद्रोह की स्थिति पैदा हो जाती है। खासकर जबसे केन्द्र में बीजेपी की सरकार आई है तो वो जिताऊ उम्मीदवार पर ज्यादा जोर देती है और हर कार्यकर्ता और नेता को मौका देना चाहती ताकि पार्टी की जड़ देश के हर कोने में मजबूत हो ना कि एक ही नेता को बार बार विधायक और मंत्री बनने का मौका मिले। बीजेपी को देखते देखते कांग्रेस भी अपनी चुनावी रणनीति में सुधार की है। 

ये हाल राजस्थान में ही नहीं बल्कि मध्यप्रदेश में भी है। मध्यप्रदेश में भी पिछली बार किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था। कांग्रेस 230 विधानसभा में 114 सीट हासिल करके बहुमत से 2 सीट दूर थी वहीं बीजेपी को 109 सीटें मिली थीं और निर्दलीय को 4 सीटें। मतलब निर्दलीय ने बहुमत हासिल करने का खेल खराब कर दिया जिसमें कांग्रेस के तीन बागी शामिल हैं। इस बार भी मध्यप्रदेश में बागियों का बोलबाला है। बीजेपी ने 3 मंत्रियों समेत 32  विधायकों का टिकट काट दिया जबकि कांग्रेस ने 6 विधायकों को टिकट नहीं दिया है। बीजेपी के 35 और कांग्रेस के 39 बागी चुनाव मैदान में है जो दोनों पार्टियों के लिए सिरदर्द बन चुके हैं। राजस्थान की तरह मध्यप्रदेश में भी बीजेपी और कांग्रेस के आला नेताओं ने बागियों को मनाने की कोशिश की लेकिन बात नहीं बनी आखिरकार बीजेपी ने 35 नेताओँ और कांग्रेस ने 39 नेताओं को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। 

राजस्थान और मध्यप्रदेश की तरह छत्तीसगढ़ में भी बीजेपी और कांग्रेस के लिए बागी नेता सिरदर्द बने हुए हैं। कांग्रेस ने 15 बागियों को बाहर निकाला तो बीजेपी ने भी कार्रवाई करते हुए 6 बागियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया है। अब सबकी नजर टिकी हुई है कि राजस्थान और मध्यप्रदेश में बागी बीजेपी और कांग्रेस का कितना नुकसान पहुंचाती है। 

धर्मेन्द्र कुमार सिंह, चुनाव और राजनीतिक विश्लेषक हैं 

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.