केंद्र सरकार ने दिल्ली हाइकोर्ट में हलफ़नामा देकर कहा है कि वह समलैंगिक शादियों को वैधानिक मान्यता देने के विरुद्ध है. उसकी दलील है कि शादी हमारे यहां एक पवित्र बंधन है. सरकार के हलफ़नामे के मुताबिक एक स्त्री और एक पुरुष के इस रिश्ते को लोकाचार से मान्यता दी जाती है. इसे निजता के मौलिक अधिकार का हिस्सा नहीं माना जा सकता. केंद्र ने यह हलफ़नामा उन अर्ज़ियों पर जवाब देते हुए दिया है जिनमें विवाह को लिंग-निरपेक्ष बनाने की मांग करते हुए समलैंगिक शादियों को स्पेशल मैरेज ऐक्ट या हिंदू मैरेज ऐक्ट या फॉरेन मैरेज ऐक्ट में शामिल करने का आग्रह किया गया है.
यह सच है कि समलैंगिक संबंधों पर भारत में बात करना अब भी बहुत असुविधाजनक है. ऐसे रिश्तों को क़ानूनन अपराध के दायरे से बाहर कर दिया गया है, लेकिन अब भी समाज के एक बड़े हिस्से में इसे विकृति के तौर पर ही देखा जाता है. लोग तमाम वैज्ञानिक साक्ष्यों के बावजूद यह समझने को तैयार नहीं हैं कि कुछ लोगों के यौन-चुनाव पारंपरिक संबंधों से भिन्न हो सकते हैं और ऐसे संबंध कम भले हों, लेकिन उनमें न विकृति है और न कोई अपराध. बल्कि ऐसे संबंधों का जिस क्रूरता के साथ दमन किया जाता रहा है, उसकी वजह से विकृतियां भी पैदा होती हैं और अपराध पनपने का ख़तरा भी रहता है.
मुझे बरसों पहले एक संपादक से हुई अपनी बातचीत याद आती है. उन्होंने कहा कि समलैंगिकता प्राकृतिक या स्वाभाविक नहीं है. मैंने कहा कि ब्रह्मचार्य भी प्राकृतिक या स्वाभाविक नहीं है- फिर आप एक को हिकारत और दूसरे को सम्मान से क्यों देखते हैं. उन्होंने कहा कि ब्रह्माचार्य के लक्ष्य बड़े होते हैं. मैंने कहा, आप समलैंगिकता को भी बड़े लक्ष्य दे दीजिए. बात ख़त्म हो जाएगी. लेकिन उनके लिए बात ख़त्म नहीं हुई थी. उन्होंने कहा कि आपको ऐसे संबंधों के बारे में सोच कर अजीब नहीं लगता, उबकाई नहीं आती? मैंने कहा, मुझे बहुत सारी चीज़ों से उबकाई आती है. जब मैं सुनता हूं कि अमेरिकी या चीनी सांप खाते हैं, तब भी उबकाई जैसी आती है. लेकिन इससे उनका सांप खाना अस्वाभाविक या आपराधिक नहीं हो जाता. यह न्यूनतम लोकतांत्रिक मर्यादा है कि हम अपने से भिन्न आस्वाद और आदतों वाले लोगों और समुदायों का भी सम्मान करें- बशर्ते वे किसी मानवीय गरिमा का उल्लंघन नहीं करते या किसी अन्याय और अपराध के भागी नहीं बनते.
समलैंगिक विवाहों को लेकर सरकार का पवित्रतावादी रुख़ देखकर मुझे अपने उन संपादक की याद आई. यह खयाल भी आया कि हमारे समाज में मत-भिन्नता को ख़ारिज करने का जो नया दुराग्रह पैदा हुआ है, वह एक समाज के रूप में हमें कुछ और एकांगी बना रहा है. हम उन बहुत कम लोगों के प्रति भी सदय रहने को तैयार नहीं हैं जो अपनी किसी प्रवृत्ति की वजह से हमारी तरह जीवन जीना नहीं चाहते. हमने उन पर अधिकतम एहसान यह किया है कि उनको हम अब अपराधी नहीं मानते. लेकिन अगर वे सामान्य नागरिक हैं तो उन्हें अपनी मर्ज़ी से यह तय करने का अधिकार है कि वे कैसे जिएं और किसके साथ रहें. अगर दो लोग- चाहे वे स्त्री हों या पुरुष- जीवन भर साथ रहते हैं, एक-दूसरे से अपना मन, अपना शरीर या अपनी संपत्ति साझा करते हैं तो यह शादी के अलावा क्या है? ठीक है कि वे इस संबंध से संतानोत्पति नहीं कर सकते, लेकिन क्या संतानोत्पति शादी की इकलौती या अपरिहार्य कसौटी है?
इस मोड़ पर आकर शादी के पवित्रतावाद के कुछ डरावने नतीजों का ख़याल आता है. जिन विवाहों से संतान नहीं होती, उनमें क्या होता है? हाल-हाल तक पुरुष अमूमन संतानोत्पति के लिए दूसरा विवाह कर लिया करते थे. बांझपन अब भी स्त्रियों के लिए किसी गाली से कम नहीं माना जाता. जबकि हिंदुस्तान में इतने सारे अनाथ और गरीब बच्चे हैं कि ऐसे लोग उनको गोद ले लें तो उनका परिवार भी पूरा हो और किसी मासूम बच्चे का जीवन भी संभल जाए.
बहरहाल, विवाह पर लौटें. एक पवित्र बंधन के रूप में विवाह की असलियत क्या है? अब यह प्रमाणित करने की ज़रूरत नहीं रह गई है कि यह पवित्र बंधन दरअसल अपने श्रेष्ठतम रूप में भी पूरी तरह पुरुष के पक्ष में झुका रहा है. इस विवाह में एक वाटिका में अपहृत करके प्रहरियों के बीच बैठी सीता को अग्निपरीक्षा देनी पड़ती है और उसके बाद भी लांछन सहने पर घर छोड़ना पड़ता है जबकि 14 साल वन-वन भटकने वाले राम से कोई नहीं पूछता कि तुम्हारे शील के हिस्से भी कोई अग्निपरीक्षा लिखी है या नहीं? स्त्रियां तब आदर्श पत्नी होती हैं जब वे मूक या स्वैच्छिक सेविका होती हैं.
इसमें शक नहीं कि विवाह समाज की एक बहुत महत्वपूर्ण संस्था है- बल्कि परिवार और समाज की धुरी भी विवाह ही हैं. यही वजह है कि हम सारी चीज़ों के बावजूद विवाह को बचाए रखना चाहते हैं. संबंधों की सड़ांध के बावजूद हम इसे ढोते हैं, बल्कि कई बार यह महसूस भी नहीं करते कि इस संबंध को ढोया जा रहा है. विवाह हमारे जीवन का वैसा ही अभ्यास हो जाता है जैसा सांस लेना. कुछ कम आदर्श विवाहों में धोखे होते हैं, टूटन होती है, अवसाद होता है और बहुत सारी कुरूपता होती है.
हालांकि फिर दुहराने की ज़रूरत है कि इस कड़वी सच्चाई के बावजूद एक समाज के रूप में परिवार और विवाह का कोई विकल्प हम खोज नहीं पाए हैं. एक संस्था के रूप में विवाह चाहे जिस स्थिति में हो, हम इसे ख़त्म करने की स्थिति में नहीं हैं. लेकिन हम इसे कुछ लोकतांत्रिक तो बना सकते हैं. इसे संबंधों के जड़ नियमों के बाहर लाकर कुछ मानसिक आज़ादी के दायरे में तो ला सकते हैं.
सरकार यह करने को तैयार नहीं है. लेकिन यह समलैंगिकता के अस्वीकार का मामला नहीं है, यह नागरिकता के अधिकारों को सीमित करने का मामला है. एक तरह से वह अपने बहुत अल्पसंख्यक से भी अल्पसंख्यक नागरिकों के लिए यह गुंजाइश निकालने को तैयार नहीं है कि वे अपनी मर्ज़ी से अपना जीवन जिएं. क्योंकि यह वह जीवन है जिससे उसकी संस्कारशीलता के पाखंड को चोट पहुंचती है. इस तथाकथित संस्कारशीलता के निशाने पर आज समलैंगिक हैं, इसके पहले स्त्रियां रही हैं, छोटी कहलाने वाली जातियां रही हैं और बदलाव की चाहत रही है. ऐसा शुद्धतावाद कितना क्रूर, पाखंडी और अनैतिक होता है, इसको लेकर दुनिया भर में साहित्य की भरमार है. अगर हम इसका विरोध नहीं करते तो अपनी स्वाभाविक नागरिकता की राह में भी बहुत सारी रुकावटें स्वीकार करने को मजबूर होंगे. शादी को निजता के अधिकार से एक तरह से बाहर मान कर सरकार ने इसी प्रक्रिया को कुछ और आगे बढ़ाया है.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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