This Article is From Dec 23, 2020

लगातार बड़ा हो रहा है किसानों के आंदोलन का दायरा

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Ravish Kumar

हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को मंगलवार को किसानों के विरोध का सामना करना पड़ा. मुख्यमंत्री अंबाला में नगरपालिका के चुनाव प्रचार के लिए गए थे लेकिन उनके काफिले के बीचे नारे लगाते किसानों का काफिला चलने लगा. अंबाला के अग्रसेन चौक पर बड़ी संख्या में किसान जमा हो गए थे और काले झंडे दिखाने लगे. भीड़ इतनी थी कि मुख्यमंत्री के काफिले को यू टर्न लेकर वापिस जाना पड़ा. किसान भी मुख्यमंत्री का रास्ता रोकते रहे. मीडिया भले न दिखाए लेकिन किसानों ने मीडिया छोड़ कर अपने मुद्दों को देखना शुरू कर दिया है. किसान आंदोलन का असर विदेशों में भी है. 26-27 को भारतीय दूतावासों में प्रदर्शन होने जा रहा है. उधर कृषि मंत्री ने विदेशी मीडिया संस्थानों के पत्रकारों से बात की और कहा कि बातचीत के दरवाज़े खुले हैं और किसानों के फैसले का इंतज़ार है.

कृषि विभाग के संयुक्त सचिव की चिट्ठी पर मंगलवार को किसान मोर्चा को विचार करना था. पंजाब के 32 संगठनों में से दो भारतीय किसान यूनियन उग्राहां और किसान मज़दूर सघर्ष कमेटी ने कहा कि केंद्र सरकार की चिट्ठी चक्रव्यूह में उलझाने का नमूना है. हमें संशोधन मंज़ूर नहीं. कानून की वापसी ही मंज़ूर है. इस पत्र में इसका ज़िक्र ही नहीं है कि बातचीत किससे होगी. न ही पत्र में चर्चा लायक कुछ है. बाद में संयुक्त किसान मोर्चा की प्रेस कांफ्रेंस हुई.

किसान स्पष्ट हैं कि कानून को वापस लेना होगा. आंदोलन का दायरा हर दिन बढ़ता जा रहा है. पंजाब में आयकर विभाग की छापेमारी के विरोध में आढ़ती एसोसिएशन ने 22 से 25 तारीख तक के लिए मंडियों का काम बंद कर दिया है. आढ़तियों का कहना है कि किसान आंदोलन का समर्थन करने के कारण यह छापेमारी हो रही है. इसके बाद भी हम किसान आंदोलन का साथ नहीं छोड़ेंगे.

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दूसरी तरफ नाशिक से ऑल इंडिया किसान सभा का किसानों का जत्था दिल्ली के लिए रवाना हो गया है. इस जत्थे की अगुवाई ऑल इंडिया किसान सभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉक्टर अशोक धवले कर रहे हैं. कई सौ गाड़ियों में सवार किसान पूरी तैयारी के साथ दिल्ली की तरफ़ निकले हैं. चलने से पहले किसानों ने गोल्फ़ क्लब मैदान में उन 33 किसानों को श्रद्धांजलि दी जिनका आंदोलन के दौरान निधन हो गया. अडानी अम्बानी के पुतले जलाए. 23 दिसंबर को यह जत्था मध्य प्रदेश पहुंचेगा और फिर दिल्ली. अखिल भारतीय किसान सभा ही वह संगठन है जिसके नेतृत्व में 2018 में किसानों ने नाशिक से मुंबई के लिए अनुशासित मार्च किया था और मुंबई को हतप्रभ कर दिया था. महाराष्ट्र से किसान एक तरफ दिल्ली के निकले हैं तो कुछ किसानों का जत्था मुंबई आ गया है. बांद्रा कुर्ला कांप्लेक्स के पास एक पार्क में जमा हो गए और नाच गाकर कृषि कानूनों का विरोध करने लगे. इस प्रदर्शन में विकलांग भी आए हैं किसानों का अपना समर्थन देने के लिए. ब्रांदा कुर्ला कांप्लेक्स का चुनाव इसलिए किया क्योंकि यहां रिलायंस का दफ्तर है. और भी कारपोरेट के दफ्तर हैं. पुलिस ने कांप्लेक्स की तरफ जाने की अनुमति नहीं दी क्योंकि यह आंदोलन की जगह नहीं है. बाद में किसानों ने वहां मार्च किया. 

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इन दिनों सरकार अपने प्रचार अभियान के लिए कई पोस्टर जारी कर रही है. बीजेपी भी कर रही है. पंजाब में बीजेपी ने अपने प्रचार पोस्टर में ऐसे शख्स की तस्वीर लगा दी जो दो हफ्ते से किसान आंदोलन में कृषि कानून के खिलाफ नारे लगा रहे हैं. पोस्टरों के किसान नकली ही लगते हैं मगर ये जनाब असली निकल आए. इनका नाम हरप्रीत सिंह हैं. इतनी अच्छी तस्वीर है कि किसी भी चीज़ के समर्थन में इस्तमाल हो सकती है. वैसे हरप्रीत किसान के साथ साथ एक्टिंग भी करते हैं. लेकिन इस बार डायरेक्टर कौन है जानकर हैरान हो गए.

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ऐसी मनोरंजक ग़लतियां हो जाती हैं. दिल्ली हाई कोर्ट की महिला वकीलों के फोरम ने तय किया है कि वे भी 23 दिसंबर को किसान दिवस के दिन किसानों के आंदोलन का समर्थन करेंगी. 

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सरकार बातचीत करना चाहती है दूसरी तरफ सरकार के गृह राज्य मंत्री कह रहे हैं कि किसानों ने लेह लद्दाख की सीमा पर रसद रोकने के लिए ट्रेनों को रोका गया. किसानों के आंदोलन को सेना, चीन से जोड़ने की कवायद चल रही है. किसान आंदोलन में ऐसे कई किसान आए हैं जिनके परिवार के लोग सेना में हैं. जिनके दादा परदादा सीमा पर लड़ते हुए शहीद हो चुके हैं. लेकिन जब गृह राज्य मंत्री ही ऐसा कह रहे हैं तो इसका संदेश साफ है कि किसान आंदोलन के साथ आगे क्या होने वाला है. सवाल है क्या वही होगा जो शाहीन बाग़ के समय हुआ था? बिहार के कृषि मंत्री अमरेंद्र प्रताप सिंह को किसान आंदोलन के किसान दलाल लगते हैं.

हमारे सहयोगी सईद मेराज ने भोजपुर जिला के जगदीशपुर विधानसभा के कौरां पंचायत का दौरा किया. जानने के लिए कि मंत्री जी के विधानसभा क्षेत्र के किसानों को धान की MSP मिल रही है या नहीं. किसानों ने तो यही कहा कि मंत्री गलत बोल रहे हैं कि MSP पर धान की खरीद होती है. इस साल भी MSP से 700-800 कम दाम पर धान बेचने पर मजबूर हुए हैं. 

अब आते हैं हमारे आज के सवाल पर कि क्या डेयरी उद्योग का उदाहरण इन तीनों कानूनों के बचाव के लिए दिया जा सकता है? प्रधानमंत्री ने 15 दिसम्बर 2020 को कहा था, “साथियों, हमारे देश में डेयरी उद्योग का योगदान, कृषि अर्थव्यवस्था के कुल मूल्य में 25 प्रतिशत से भी ज्यादा है. ये योगदान करीब-करीब 8 लाख करोड़ रुपए होता है. दूध उत्पादन का कुल मूल्य, अनाज और दाल के कुल मूल्य से भी ज्यादा होता है. इस व्यवस्था में पशुपालकों को आजादी मिली हुई है. आज देश पूछ रहा है कि ऐसी ही आजादी अनाज और दाल पैदा करने वाले छोटे और सीमांत किसानों को क्यों नहीं मिलनी चाहिए?”

पहले तो यही अपने आप में मिथक है कि MSP का लाभ बड़े किसानो को मिलता है. ऋतिका खेड़ा, प्रांकुर गुप्ता और सुधा नारायण ने एक अपने रिसर्च से बताया है कि MSP पाने वाले 99 प्रतिशत धान के किसान छोटे और सीमांत किसान हैं. MSP पाने वाले 97 प्रतिशत गेहूं के किसान छोटे और सीमांत किसान हैं.

यही वो किसान हैं जो खुले बाज़ार में दूध का उत्पादन करते हैं और बेचते हैं. क्या इन किसानों को 8 लाख करोड़ के डेयरी सेक्टर से लाभ हो रहा है या कंपनियों को हो रहा है? फ्लैशबैक में एक कहानी सुनते हैं.

किसान आंदोलन के कारण ही सरदार पटेल को पहली पहचान मिली थी तो इस आंदोलन में भी उनका ज़िक्र हो जाना चाहिए. 1940 की बात है. पोल्सन कंपनी को बांबे की ज़रूरतों की पूरा करने के लिए खेड़ा से दूध खरीदने का एकाधिकार दे दिया गया. कंपनी को फायदा हुआ और किसानों को दाम नहीं मिला. पोल्सन कंपनी ने ज़िले में बिचौलियों का जाल बिछा दिया. त्रिभुवन दास पटेल के नेतृत्व में किसान इस कंपनी का विरोध करने लगे और पहुंचे सरदार वल्लभ भाई पटेल के पास. सरदार ने कहा कि पहले पोल्सन से छुटकारा पाओ. किसानों ने पोल्सन को दूध देना बंद कर दिया. सरदार पटेल के समर्थन से 1942 में किसानों ने अपनी कोपरेटिव बनाई. इसका नाम था डिस्ट्रिक्ट कोओपरेटिव मिल्क प्रोड्यूसर्स यूनियन लिमिटेड जो आज का अमूल है. किसान खुद दूध बेचने लगे और मुनाफा कमाने लगे. हमें यह जानकारी आईआईएम बंगलुरू के प्रो श्री राम के लेख और नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड और अमूल की वेबसाइट से मिली है.

कोपरेटिव आंदोलन किसी एक सरकार की देन नहीं है. दशकों से यह बनता आ रहा है फिर भी देश भर में एक समान नहीं हो सका है. क्या सरकार डेयरी का उदाहरण देकर कोपरेटिव सेक्टर की बात कर रही है तो इस सेक्टर को लेकर अपना रिकार्ड बताना चाहिए. कोपरेटिव किसी राज्य में बहुत अच्छा है, किसी में अच्छा है और किसी में खराब है.

आपको जानना चाहिए कि अमरीका के दुग्ध उत्पादक किसान भी अपना दूध दाम न मिलने के कारण नालियों और खेतों में बहा देते हैं. वहां तो खुला मार्केट है. इसी 21 जुलाई को हमने प्राइम टाइम में दिखाया था कि महाराष्ट्र के अहमदनगर और सांगली में दूध उत्पादकों ने सड़क पर दूध फेंक दिया है.

क्योंकि दाम नहीं मिल रहा था. शहर में 45 रुपये लीटर बिक रहा था और किसानों को मिल रहा था 17 रुपये. ठीक है कि तालाबंदी का समय था लेकिन 2017, 2018 में तालाबंदी नहीं थी तब भी किसानों ने दूध के दाम को लेकर इसी तरह का आंदोलन किया था. किसानों की मांग थी कि सरकार ही दूध की खरीद करे और दूध के दाम बढ़ाए. प्रधानमंत्री उदाहरण दे रहे हैं कि बिना नियंत्रण वाले बाज़ार में दूध का कारोबार बड़ा हुआ है लेकिन किसान बता रहे हैं कि उन्हें तो घाटा हो रहा है. डू यू गेट माय प्वाइंट. किसान ही कह रहे हैं कि सरकारी कोपरेटिव ज़्यादा हो और सरकार ज्यादा दूध खरीदे.

महाराष्ट्र के दूध उत्पादक तो चाहते हैं कि सरकार खरीदे. सरकार खरीदने की व्यवस्था बनाए क्योंकि प्राइवेट कंपनियों की खरीद से उन्हें लागत नहीं निकल रही है. भारत में सबसे अधिक दूध का उत्पादन उत्तर प्रदेश में होता है. लेकिन क्या यूपी के पशुपालकों को दूध का सही दाम मिलता है. यूपी में 100 से अधिक छोटी बड़ी डेयरी कंपनियां हैं तो क्या किसानों को दाम मिल रहा है?

बुलंदशहर को यूपी में दूध की सबसे बड़ी मंडी होने का खिताब हासिल है. सारी बड़ी कंपनियां यहां मौजूद हैं. यहां का दूध और उसका उत्पाद भारत और विदेशों में जाता है. लेकिन क्या यहां के किसान इससे अमीर हुए, क्या उनकी लागत निकली? इन्हीं दो सवालों को लेकर हमारे सहयोगी मनीष शर्मा बिलसुरी और चंदेरू गांव गए. यहां उन्होंने रामवती, जगदीश, नारायण सिंह यादव, इस्लामुद्दीन से मुलाकात की जो खेती के साथ साथ पशुपालन करते हैं. सबने एक स्वर से यही कहा कि चारे का दाम बढ़ गया है. दवा महंगी हो गई है. दूध का दाम नहीं मिलता है. घाटा हो रहा है.

इनमें से किसी के पास 3 भैंसे हैं दो गायें हैं तो किसी के पास 7 भैसें हैं. नारायण सिंह यादव ने बिना कैलकुलेटर के हिसाब समझा दिया. एक भैंस पर हर महीने 7000 का खल लग जाता है. तीन भैंसों पर 21000 रुपये का खल आता है. चुन्नी चोकर 1000 रुपए हर महीने लग जाता है. इसी का आप 3000 हज़ार जो़ड़ लें. 45 किलो सरसों का तेल खिलाना होता है. एक किलो तेल का दाम 90 से 100 रुपया तक है. नारायण सिंह की इतनी ही लागत 24,000 हो जाती है. इसमें दवा और बाकी रख-रखाव का खर्च नहीं जोड़ा गया है. रोज़ 20 लीटर दूध बेच पाते हैं.  हर महीने 21000 रुपये का. 3000 रुपये का घाटा होता है. लागत नहीं निकलती है.

ध्यान रहे कि भैंस मुफ्त में नहीं आती है और न दूसरे के खेत से चल कर आती है. भैंस की कीमत भी लाख लाख रुपये हो गई है. सेना से रिटायर होने के बाद हवलदार लाल मोहम्मद ने पशुपालन शुरू किया. तीन बेटों के साथ दिन रात इसी में लगे रहते हैं लेकिन दाम नहीं मिलता है. वो कहते हैं, '“उत्तर प्रदेश में दूध किसानों से दूध लेने वाली सरकारी संस्थाएं क्यों बंद होतीं. जरूरत है दूध किसानों को बचाने के लिए प्राइवेट और बिचौलियों को खत्म कर सरकारी संस्थाओं को मजबूत बनाना होगा ताकि आने वाले वक्त में खत्म होते दूध किसानों को बचाया जा सके.” 

लाल मोहम्मद की बात पर यकीन न हो तो अमित त्यागी की सुन लेते हैं. अमित भी मंडोला के रहने वाले हैं, बिल्कुल दिल्ली से सटा गांव है. 10 भैंसें पाल रखी हैं अमित ने. एक भैंस की कीमत 1 लाख होती है. रोज़ 50-60 लीटर दूध बेचते हैं. एक भैंस साल में 1500-1600 लीटर दूध देती है. इस हिसाब से 67 से 72 हज़ार रुपया ही दूध से मिलता है. अमित ने कहा कि चूंकि वे खेती करते हैं तो भैंस के लिए चारा नहीं खरीदना पड़ता है. कुछ लागत बच जाती है. खेती के कारण ही भैंस पाल पाते हैं लेकिन इसके बाद भी लागत नहीं निकलती है. अमित हों या इस्लामुद्दीन हों या नारायण यादव हों सबके पास अपने बिज़नेस का हिसाब मुहज़बानी तैयार है.

डेयरी उद्योग की सफलता और असफलता पर अलग से बात हो सकती है लेकिन क्या इसका उदाहरण देकर कृषि कानूनों का पक्ष लिया जा सकता है. अच्छा यह होता कि प्रधानमंत्री यह बताते कि 8 लाख करोड़ रुपये के कारोबार में किसानों की आमदनी कितनी बढ़ी है, उनका मुनाफा कितना बढ़ा है. दूध का कारोबार बेशक काफी बड़ा है लेकिन तब भी हमारी खेती संकट में क्यों है, किसान घाटे में क्यों है? सेंटर फार मॉनिटरिंग इंडियन इकानमी के महेश व्यास ने कहा है कि अक्तूबर और नवंबर में चालीस लाख नौकरियां चली गई हैं. मार्च की तुलना में 1 करोड़ नौकरियां अभी भी कम है. चुनावी भाषणों से ऐसा लगता नहीं कि भारत में रोज़गार का संकट है.

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