शुक्र है कि डोनाल्ड ट्रंप को समय रहते यह बात समझ में आ गई कि राष्ट्रपति बने रहने की ज़िद में वे अपनी ही नहीं, अमेरिका की भी जगहंसाई कर रहे हैं. बुधवार को उनके समर्थकों ने कैपिटोल हिल के भीतर जिस तरह का हंगामा किया, वह अमेरिकी लोगों के लिए अकल्पनीय था. इस पूरे हंगामे ने याद दिलाया कि एक आत्ममुग्ध पूंजीवादी जब सर्वोच्च पद पर पहुंच जाता है तो वह किस हद तक तानाशाही भरा सलूक कर सकता है. अमेरिका के भीतर इसको लेकर बहुत गहरी तकलीफ़ दिखी. भारत में पत्रकारिता और साहित्य की छात्रा रही और बरसों से अमेरिका के ऑस्टिन में रह रही अलका झा ने इन पंक्तियों के लेखक को किसी का एक ट्वीट भेजा, जो कुछ इस तरह था - 'अगर अमेरिका ने देखा कि अमेरिका ही अमेरिका के भीतर क्या कर रहा है तो अमेरिका अमेरिका को अमेरिका की यातना से बचाने के लिए अमेरिका पर आक्रमण कर देगा.'
यह शब्दों का खेल भर नहीं है. यह अमेरिका के भीतर की टूटन का भी बयान है। 'अमेरिका फर्स्ट' कहने वाले ट्रंप के रहते-रहते कई अमेरिका हो गए हैं, जो एक-दूसरे को हैरत से देख रहे हैं. लेकिन क्या यह सिर्फ डोनाल्ड ट्रंप के होने का नतीजा है? या पहली बार किसी ने इस नतीजे को पहचाना है. 2018 में दो अमेरिकी प्रोफ़ेसरों - स्टीवन लेवित्स्की और डेनियल ज़िब्लैट ने एक किताब लिखी - 'हाउ डेमोक्रेसीज़ डाई' - यानी लोककतंत्र कैसे मरते है. उन्होंने माना किअमेरिका जैसा मज़बूत लोकतंत्र भी ख़तरे में है. किताब शुरू कुछ इस तरह होती है-'क्या हमारा लोकतंत्र ख़तरे में है? यह वह सवाल है, जो हमने कभी सोचा नहीं था कि हमें पूछना पड़ेगा. हम 15 साल से सहकर्मी रहे हैं, लिखते रहे हैं, विचार करते रहे हैं, दूसरी जगहों और दूसरे ज़मानों में लोकतंत्र की नाकामियों के बारे में छात्रों को पढ़ाते रहे हैं - यूरोप का अंधेरा 1930 का दशक, लैटिन अमेरिका का 1970 का दमनकारी दशक. हमने दुनिया भर में उभरते अधिनायकवाद के नए रूपों पर शोध करते हुए कई बरस लगाए हैं. हमारे लिए यह एक पेशेवर झक्क का विषय रहा है कि लोकतंत्र क्यों और कैसे मरते हैं? लेकिन अब हम पा रहे हैं कि हम अपने देश की ओर मुड़ रहे हैं. बीते 2 वर्षों में हमने नेताओं को वह सब करते और कहते देखा है जो अमेरिका में अकल्पनीय था - लेकिन जिसे हम दूसरी जगह पर लोकतांत्रिक संकट के अगुआ के तौर पर पहचानते रहे हैं. हम, और बहुत सारे अमेरिकी लोग, डरे हुए हैं - हालांकि खुद को भरोसा दिला रहे हैं कि चीज़े यहां इतनी बुरी नहीं हो सकतीं.
लेकिन वे इन दोनों प्रोफेसरों की कल्पना से कहीं ज़्यादा बुरी निकलीं. कैपिटोल हिल में जो कुछ हुआ, उससे मिलती-जुलती कहानियां कुछ दशक पहले एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका की छोटी-छोटी तानाशाहियों के भीतर सुनी जाती थीं. यह किसी ने सोचा नहीं था कि एक उद्धत राष्ट्रपति चुनावी नतीजों को चुनौती देते हुए अपने समर्थकों से कैपिटोल हिल पर कब्ज़ा करने की अपील कर बैठेगा. लेकिन यह उद्धत राष्ट्रपति आया कैसे? यह किताब बहुत विस्तार में बताती है कि अमेरिकी लोकतंत्र के भीतर किसी सनकी तानाशाह को रोकने के जो तरीक़े थे, वे ट्रंप के मामले में नाकाम क्यों रहे. डोनाल्ड ट्रंप पहले पूंजीपति नहीं हैं, जिनके भीतर अमेरिका का राष्ट्रपति होने की इच्छा पैदा हुई. फोर्ड से लेकर कई पैसे वालों ने राष्ट्रपति होने का सपना देखा, लेकिन उनके मामले में लोकतंत्र के चौकीदार कहीं ज़्यादा सतर्क साबित हुए. कई बार अमेरिकी संविधान और चुनाव की प्रक्रिया में संशोधन भी किए गए. मगर इस बार लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की वह छन्नी ठीक से काम नहीं कर सकी और ट्रंप सत्ता के शिखर पर पहुंच गए.
इसके बाद क्या-क्या हुआ? कैसे अमेरिकी लोकतंत्र के क्षरण की प्रक्रिया शुरू हुई? लेखकों की शिकायत है, 'अमेरिकी नेता अब अपने विरोधियों को दुश्मन की तरह देखते हैं, स्वतंत्र प्रेस को डराते हैं और चुनाव के नतीजों को अस्वीकार करने की धमकी देते हैं. वह हमारे लोकतंत्र की उन संस्थाओं को कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं, जो क्षरण रोकने के लिए हैं - अदालतों, ख़ुफ़िया एजेंसियों और एथिक्स ऑफिस तक को. अमेरिका अकेला नहीं है, जहां यह हो सकता है. विद्वानों में यह चिंता लगातार बढ़ रही है कि दुनिया भर में लोकतंत्र खतरे में हो सकते हैं - उन जगहों पर भी, जहां इनका वजूद बिल्कुल निश्चित माना जाता है. लोकप्रियतावादी सरकारों ने हंगरी, पोलैंड और टर्की में लोकतांत्रिक संस्थाओं पर चोट की है. अतिवादी ताकतों को ऑस्ट्रिया, फ्रांस, जर्मनी, नीदरलैंड्स और यूरोप में दूसरी जगहों पर नाटकीय चुनावी बढ़त मिली है. और अमेरिका में, इतिहास में पहली बार, एक ऐसे आदमी को राष्ट्रपति चुना गया है, जिसके पास सार्वजनिक सेवा का कोई अनुभव नहीं है, संवैधानिक अधिकारों को लेकर कोई प्रतिबद्धता नहीं दिखती, और जिसमें बहुत साफ़ अधिनायकवादी प्रवृतियां हैं.'
लेविस्त्की और जिब्लैट यहीं यह बात ख़त्म नहीं करते। वे बताते हैं कि लोकतंत्र के आवरण में भी तानाशाही प्रवृत्तियां मज़बूत होती रहती हैं. वे लिखते हैं, 'चुने हुए अधिनायकवादी किस तरह लोकतांत्रिक संस्थाओं को तहस-नहस करते हैं, जो उन्हें नियंत्रित कर सकती हैं? कुछ लोग एक ही झटके में यह काम करते हैं. मगर ज़्यादातर लोकतंत्र पर यह हमला धीरे-धीरे शुरू होता है. बहुत सारे नागरिकों के लिए, पहली बार, यह अकल्पनीय होता है. आख़िर चुनाव हो रहे होते हैं. विपक्ष के नेता अब भी सदन में होते हैं. स्वतंत्र अखबार अब भी बंटते हैं. लोकतंत्र का क्षरण बहुत धीरे-धीरे होता है - अक्सर शिशु पदचाप की तरह. हर एक क़दम मासूम प्रतीत होता है - किसी से नहीं लगता कि लोकतंत्र को ख़तरा है. वस्तुतः लोकतंत्र को पलटने के सरकारी कदमों को अक्सर वैधता का एक मुलम्मा मिल जाता है : उन्हें संसद की स्वीकृति मिली होती है या फिर सुप्रीम कोर्ट द्वारा जायज़ क़रार दिया जाता है. इनमें से बहुत सारे क़दम कुछ वैध - यहां तक कि प्रशंसनीय - सार्वजनिक मकसदों की आड़ में उठाए जाते हैं, जैसे चुनावों को 'साफ सुथरा' बनाना, भ्रष्टाचार से लड़ना, लोकतंत्र का स्तर बेहतर करना, या राष्ट्रीय सुरक्षा बढ़ाना।' ये दोनों लेखक बताते हैं कि कई बार यह काम रेफ़री - यानी दूसरी संस्थाओं को अपने साथ मिलाकर किया जाता है. इससे तानाशाही प्रवृत्तियों पर भी लोकतंत्र की मुहर लगती जाती है.
बेशक, किताब पढ़ते हुए एक खयाल यह आता है कि इन लेखकों ने दुनिया भर में मज़बूत होते अधिनायकवाद का ज़िक्र तो किया, लेकिन उसके पीछे की रुग्ण पूंजीवादी व्यवस्था की ओर ठीक से नजर नहीं डाली. पूंजी अपने भ्रष्टाचार छुपाने के लिए सत्ता को भ्रष्ट करती चलती है. वह जितना टैक्स सरकारों को देती है, उससे कहीं ज़्यादा पैसे राजनीतिक दलों और नेताओं तक पहुंचाती है. धीरे-धीरे यह रुग्ण पूंजीवाद पूरे लोकतंत्र को अपनी पूंजी की तरह ही इस्तेमाल करने का आदी हो जाता है. क़ानून उसकी सहूलियत के लिए बनाए जाते हैं, संशोधन उसके फायदे के लिए किए जाते हैं. ट्रंप ने यही काम किया था और इसलिए उन्हें लग रहा था कि उनके राष्ट्रपतित्व को चुनौती उनकी जायदाद को दी जा रही चुनौती है.
क्या ट्रंप का हाल देखते हुए और यह किताब पढ़ते हुए भारत के हालात का खयाल आता है? दोनों काफी-कुछ मिलते हैं - इस फ़र्क के साथ कि भारत में लोकतांत्रिक प्रवृत्तियों पर जो हमले हो रहे हैं, उनमें एक बड़ी भूमिका सांप्रदायिक आधार पर बने बहुसंख्यकवाद की है. लेकिन इस भूमिका को ठीक से पहचानने के लिए एक दूसरी किताब पढ़नी होगी - 'हाउ टु लूज़ अ कंट्री - सेवेन स्टेप्स फ्रॉम डेमोक्रेसी टु डिक्टेटरशिप.' हालांकि यह किताब भी भारत के बारे में नहीं है. यह टर्की के बारे में है, जहां बहुसंख्यक इस्लाम के राजनीतिक इस्तेमाल के साथ एर्दोगॉन सत्ता में बने हुए हैं. एस तेमेलकुरन की यह किताब बताती है कि कैसे नकली भावनाएं भड़काकर लोकतंत्र के नाम पर ही लोकतंत्र को ख़त्म किया जा रहा है. जो एर्दोगॉन के विरोधी हैं, उन्हें देशद्रोही बताना, उन पर झूठे मुक़दमे करना, उन्हें जेलों में डालना - यह आम है.
एस तेमेलकुरेन ने भी भारत की चर्चा नहीं की है. लेकिन वे बार-बार यह कहती हैं कि आज टर्की में पहले हो जाता है, वही बाद में अमेरिका-यूरोप में होता है और वे चौंक जाते हैं. मगर ट्रंप ने जो कुछ किया, वह टर्की में भी नहीं हुआ। यह चीज़ बताती है कि जब गिरावट आती है तो किस तेज़ी से आती है. क्या हम अपने यहां के ख़तरों को पहचानने को तैयार हैं?
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं...
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