दुनिया के सबसे बड़े क्रिकेट बोर्ड का दिल कब होगा बड़ा

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Samarjeet Singh

कोई खिलाड़ी किसी बोर्ड (उस देश के क्रिकेट बोर्ड) से बड़ा नहीं होता, लेकिन क्या ये सही नहीं है कि उस खिलाड़ी की वजह से भी उस बोर्ड का कद कुछ हद तक ही सही लेकिन बढ़ता जरूर है? चलिए इससे पहले कि आप इस सवाल का जवाब देने का मन बनाएं, इसी से जुड़ा एक और सवाल मैं आपसे पूछता हूं.जरा बताइयेगा... जिस खिलाड़ी ने अपने जीवन के 10-12 या 15 साल  अपने परिवार से दूर रहकर सिर्फ क्रिकेट को दिया. क्या उसे अपने पसंदीदा खेल से विदा लेते समय वो सम्मान नहीं मिलना चाहिए जिसका वो हकदार हो? क्या उसे हक नहीं कि वो मैदान में आखिरी बार उतरे और अपने चहेते प्रशंसकों का उसे सपोर्ट करने के लिए शुक्रिया कहे, हाथ उठाकर नम आंखों के साथ मैदान से विदाई ले? क्या एक क्रिकेट बोर्ड होने के नाते उस संस्था की जिम्मेदारी नहीं है कि वह अपने वरिष्ठ खिलाड़ियों को ससम्मान ऐसी विदाई दे जो विश्व क्रिकेट में एक नजीर पेश करने जैसा हो और उसे देखकर हर खेल प्रेमी ये कह उठे कि वाह! बोर्ड हो तो ऐसा?

मेरे इन सवालों पर अगर आपका जवाब हां है और आप सोच रहे हैं कि ऐसा तो किया जा सकता है. तो सच मानिए आप ऐसे क्रिकेटर्स की 'तपस्या' और उनके संघर्ष को समझने वालों में से एक हैं. ऑस्ट्रेलिया में जारी बॉर्डर-गावस्कर सीरीज के दौरान सिडनी टेस्ट से पहले जिस तरह की बातें कप्तान रोहित शर्मा को लेकर कहीं गई और इस मैच में जिस तरह से उन्हें बेंच पर  बिठा दिया गया, मैं उसपर यहां कोई टिका टिप्पणी नहीं करने जा रहा हूं.

लेकिन क्या एक कप्तान के साथ इस तरह का ट्रीटमेंट, वो भी तब जब आप सीरीज में 2-1 से पीछड़ रहे हों, टीम के मनोबल पर असर नहीं डालेगा? क्या बोर्ड औऱ सेलेक्टर्स ना चाहते हुए भी दूसरे खिलाड़ियों पर ऐसा दबाव नहीं बढ़ा रहे जिसको सीरीज खत्म होने तक टाला जा सकता था? ये वो सवाल हैं जिनका जवाब अगर जल्दी ढूंढ़ लिया जाए तो भारतीय क्रिकेट को और बुलंदियों पर जाने से कोई नहीं रोक सकता.

चलिए अब एक बार फिर लौटते हैं रोहित शर्मा पर, उसी रोहित शर्मा पर जिन्होंने भारत को 2007 के बाद टी-20 विश्वकप जिताया. उनकी उम्र और उनकी फिटनेस हमेशा से ही बहस का मुद्दा रहा है लेकिन जिस तरह का व्यवहार उनके साथ किया गया है क्या वो सही है? अगर एक प्रशंसक के तौर पर आप मेरी राय पूछें तो रोहित शर्मा और टीम इंडिया के दूसरे खिलाड़ियों को इस इंबैरेसिंग सिचुएशन में डालने से बचा जा सकता था. खैर, उन्हें बतौर कप्तान बेंच पर बिठाने का ये फैसला बोर्ड का था या सेलेक्टर्स का या फिर खुद रोहित शर्मा का ये तो कुछ दिन में पता चल जाएगा. लेकिन इतना तो अब साफ है कि रोहित शर्मा को अब हम शायद ही देश के लिए सफेद जर्सी में खेलते देख पाएं. और अगर ऐसा हुआ तो रोहित शर्मा भी उन खिलाड़ियों की सूची में शामिल हो जाएंगे जिन्हें बीच मैदान से ससम्मान आखिरी मैच खेलकर विदा लेने का मौका नहीं मिला.

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अगर रोहित शर्मा अब बैगर कोई टेस्ट मैच खेले इस फॉर्मेट से संन्यास लेने का ऐलान करते हैं तो वो अकेले ऐसे खिलाड़ी नहीं होंगे, इस लिस्ट में भारत के महान स्पीनर आर अश्विन भी शामिल हैं. उन्होंने भी मौजूदा बॉर्डर-गावस्कर सीरीज के दौरान ही सभी फॉर्मेट्स से संन्यास लेने का ऐलान किया था. उन्होंने जिस तरह से क्रिकेट को अलविदा कहा उसने खिलाड़ियों को आखिरी मैच ना मिलने को लेकर छिड़ी बहस को और हवा दे दी है.

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बगैर आखिरी मैच खेले संन्यास लेने वाले खिलाड़ियों की फेहरिस्त में महेंद्र सिहं धोनी, विरेंद्र सहवाग, युवराज सिंह, जहीर खान और मौजूदा समय में भारतीय टीम के मुख्य कोच गौतम गंभीर जैसे खिलाड़ियों का नाम भी शामिल है. ये सभी वो खिलाड़ी हैं जिन्होंने भारत को 1983 के बाद 2011 में विश्वकप जीताने में अहम भूमिका निभाई और ना सिर्फ विश्वकप कई आईसीसी टूर्नामेंट भी जीताकर दिए.

खिलाड़ी के उतार-चढ़ाव में उसके साथ होना जरूरी

आज भले ही रोहित शर्मा की बैटिंग पर सवाल उठा रहे हों लेकिन हमे ये नहीं भूलना चाहिए कि ये वही रोहित शर्मा है जिन्हें हमनें उनकी धुआंधार और आक्रमक बैटिंग की वजह से ही 'द हिट मैन' का टैग दिया है. किसी खेल में या यूं कहें कि खिलाड़ी के करियर में उतार-चढ़ाव आना एक सामान्य सी बात है. जो खिलाड़ी महान होते हैं वो अपने बुरे दौर से और निखरकर निकलते हैं. रोहित शर्मा ने भी कई बार ऐसा करके दिखाया है. बीते छह महीनों से उनका बल्ला शांत है, उन्हें भी पता है कि टीम को उनकी जरूरत है लेकिन फॉर्म उनका साथ नहीं दे रहा है.पर क्या उनके साथ इस तरह का सलूक करना, ही एक मात्र विकल्प बचता है? ये बड़ा सवाल है.

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हर कोई सचिन नहीं हो सकता

2013 में जब सचिन तेंदुलकर ने क्रिकेट को अलविदा कहा तो उनके लिए भव्य फेयरवेल मैच का आयोजन किया गया. सचिन महान खिलाड़ी थे, उन्हें क्रिकेट का भगवान भी कहा जाता है. उनके रिकॉर्ड्स ने हमेशा से देश का मान बढ़ाया. उनके भव्य फेयरवेल से ना मुझे दिक्कत है और ना ही कभी हो सकती है. उन्हें जो जब जैसे मिला उसे वो बखूबी डिजर्व करते थे. लेकिन क्या हर किसी का सचिन की तरह बन पाना संभव है? सचिन का एक दौर था, उस दौर के बाद भी कई ऐसे खिलाड़ी आए जिन्होंने भारतीय क्रिकेट को अपने-अपने तरीके से और ऊचाइंयों तक पहुंचाया. पर उन्हें कभी कोई फेयरवेल नहीं मिला. क्या इन खिलाड़ियों को बेहतर सेंड ऑफ (विदाई) देने की जिम्मेदारी बोर्ड की नहीं थी. 

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समरजीत सिंह NDTV में कार्यरत हैं और खेल और राजनीति से जुड़े मुद्दों पर लिखते रहे हैं.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं

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