ये कहानियां गलियों से उठी हैं, जहां रोटियां भी फर्श पर गिरती हैं और रिश्ते भी. इनमें दिल्ली की सड़कों में खड़े जलेबी के ठेले हैं और वहां से सैकड़ों किलोमीटर दूर भूख से जूझती 'एली' भी.
शायद ये कहानियां हैं ही नहीं, ये हमारे आसपास खड़े चेहरे हैं, जिनमें हारे पिता, चुप प्रेमी, संघर्षरत स्त्रियां और गुमनाम मजदूर शामिल हैं.
दिल्ली की सड़कों का जीवंत चित्रण
लोकभारती पेपरबैक्स से प्रकाशित आलोक रंजन की किताब 'रोटी के चार हर्फ़' का आवरण चित्र विभा मिश्रा ने तैयार किया है. किताब पढ़ लेने के बाद यह चित्र पाठकों को अपना-सा लगने लगता है.
आलोक रंजन ने पहली ही कहानी को इस तरह बुना है कि पाठक किताब से निकलकर सीधे दिल्ली की सड़कों पर उतर आता है. जैसे 'उस सड़क पर वह सब कुछ था, जो दिल्ली की एक सड़क होने के लिए चाहिए था. वहां तोड़-फोड़ थी, सीवर की सफाई से निकली काली गाद के साथ खड़े समोसे-जलेबी के ठेले और सबसे बढ़कर भीड़ थी.'
यह किताब इन सड़कों की उन कहानियों को सामने लाती है जो आमतौर पर अनसुनी रह जाती हैं.
ट्रेन में बैठे लोगों की परिस्थिति को जंगल के जानवरों से जोड़ना कुछ नया है. 'जंगल में शेर को देखते ही कव्वे और दूसरे पक्षी शोर मचाना शुरू कर देते हैं, जिससे असुरक्षित अवस्था में पड़े जानवर सचेत हो जाते हैं. वह महत्वपूर्ण आदमी लौटा तो यह झुंड चुप हो गया.' यह दृश्य को सही तरीके से स्थापित करता है.
मेहनतकशों की अनकही दास्तान
यह संग्रह मजदूर वर्ग की उस दुनिया को रोशनी में लाता है जो अब साहित्य से लगभग ग़ायब हो रही है. उनकी मेहनत, थकान और संघर्ष की कहानियां लेखक ने कई कहानियों में रची हैं.
'प्लास्टिक तह करके कैरियर में दबाने के बाद बारी थी साइकिल को घसीटने की. इतनी हिम्मत ही नहीं बची थी कि वह चढ़कर चलाने लगे!'
या
'बचे हुए सिक्के तेज आवाज के साथ बस में फैल गए थे. उन्हें संभालने के चक्कर में उसकी रोटियां और आलू के टुकड़े भी बस की फर्श पर गिर गए.'
‘नीचे' की जगह ‘बस की फर्श' जैसे ब्योरे कहानी को यथार्थ के और भी करीब ले आते हैं.
कहानी ‘वापस लौटते हुए' में परिवार की खामोशी, गरीबी और टूटी उम्मीदें झलकती हैं. 'सब ज्यादातर चुप ही रहते हैं. मां चुप, बाबूजी चुप और चुपचाप ही खाना भी पक जाता है.'
आधुनिक प्रेम के उतार-चढ़ावों पर चली है कलम
आधुनिक संबंधों की जटिलता और संवेदनशीलता को लेखक ने ‘हम ब्रेक पर हैं', ‘इस दुनिया के किनारे' और ‘ब्राइट बातें' जैसी कहानियों में बारीकी से उकेरा है.
'झगड़े के बाद जो लोग एक हो जाते हैं, कितने खुशकिस्मत होते हैं.'
या
'टैक्सी से बाहर दिल्ली में बस रोशनी दिख रही थी. रोशनी के परे जो था, सब अंधेरे में डूबा हुआ.'
रिश्तों की टूटन को नारियल के जर्जर पत्तों से जोड़ना कहानी को अलग असर देता है. कहानी में बीपी और उमा की जटिलता के साथ-साथ भीतर के द्वंद्व भी खुलते हैं.
परिवार, स्मृतियां और 'घर' की तलाश
परिवार के रिश्तों को नॉस्टेल्जिया और दुख के रंग में पेश किया गया है. शीर्षक कहानी में रोटी से शुरू हुआ सफर नानी तक जाता है, जो पाठकों में स्मृतियों का एहसास जगाता है.
'नानी सुनाती भी तो कैसे, उसके शब्द भी हाथों की तरह रूखे हो चले थे.' ये पंक्तियां घर की यादों को जीवंत करती हैं. मुख्य पात्र अपने घर में खुद को 'घुस आया चूहा' कहता है, जो 'बाहरी' होने के दर्द को उजागर करता है.
'वापस लौटते हुए' में ट्यूशन की प्रथा के बहाने मां का बलिदान दिखता है 'कोचिंग थोड़े ही पढ़ता है, पढ़ता तो छात्र है. वह जानता है कि मां अपने दांतों का इलाज क्यों नहीं करवाती.'
'मां-पिताजी को देखे कितने दिन हो गए. छुट्टियों में उनका चेहरा बूढ़ा और कमजोर लगता है.' नौकरीपेशा लोगों की दुखती रग पर हाथ रख देने जैसा है.
समाज पर करारी चोट, व्यवस्था और लैंगिक भेदभाव पर टिप्पणी
‘महत्वपूर्ण आदमी' जैसी कहानी में लेखक व्यवस्था पर करारा व्यंग्य करते हैं. 'कमाल की बात यह है कि लोग जिस व्यवस्था को भ्रष्ट कहते हैं, उसी के नियम मानने को मजबूर हैं.'
स्त्रियों के बोलने को लेकर सवाल और उसका जवाब भी तीखा है, 'तुम बहुत बोलती हो... औरत इतना बोलेगी?' , 'क्यों, औरत क्यों नहीं बोलेगी?'
लेखक डिजिटल युग में भाषा और समाज के बदलते रंग भी दिखाते हैं, 'ऑनलाइन देखने में कोई रुकावट भी नहीं थी. मेरी दीवार पर उसके लाल नीले रंगों की छींट अचानक बढ़ गई.'
व्यक्तिगत संघर्ष और पहचान की तलाश
‘डेंसी', ‘तालाब' और ‘तलईकुत्तल' जैसी कहानियां दर्द को भीतर से पकड़ती हैं. जैसे ‘डेंसी भीगे कपड़ों में बिलखती रही. अप्पा भी ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे. उस दृश्य को देखकर तालाब भी रोता होगा.'
तमिलनाडु की प्रथा पर आधारित कहानी ‘तलईकुत्तल' में भूख, स्वाभिमान और विवशता एक साथ दिखाई देती है. 'एली को शाम के खाने की चिंता है और फूल भी बेचने हैं.'
केरल के मजदूरों, तमिलनाडु की प्रथाओं और स्थानीयता से कहानी का कैनवास और बड़ा हो जाता है.
लेखक पात्रों को पहले ‘वह' कहकर दूर रखते हैं, लेकिन धीरे-धीरे वे इतने पास आ जाते हैं कि पाठक उन्हें पहचानने लगता है.
क्षेत्रीयता, भाषा, अनुभव और संवेदना का मेल
इस संग्रह की सबसे बड़ी ताकत इसका स्थानीय यथार्थ है. कश्मीरी गेट मेट्रो में कपड़े बदलने से लेकर केरल के मजदूरों को बंगाली समझने की आम सोच तक, ये छोटे दृश्य कहानियों को ठोस और ज़मीनी बनाते हैं.
लेखक की भाषा संवादों और भावनाओं के बेहद करीब है.
यह संग्रह उस परंपरा में खड़ा होता है, जहां शेखर जोशी, नवीन जोशी, शिवानी जैसे लेखक आम आदमी के गुम होते जीवन को शब्द देते रहे.
अस्वीकरण: इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं, उससे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.
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