This Article is From Oct 07, 2022

आर्थिक तबाही के कगार पर दुनिया, मगर हौव्वा परमाणु युद्ध का

विज्ञापन
Ravish Kumar

आर्थिक असुरक्षा का घेरा दुनिया भर में बढ़ता जा रहा है। यूक्रेन युद्ध ने कारण दुनिया भर के नेता अपना संतुलन खोते जा रहे हैं। सब एक दूसरे से डरे हुए हैं और एक दूसरे को डरा रहे हैं। पहले रुस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने संकेत दिया कि रुस की रक्षा में वे सभी ताकतों का इस्तेमाल कर सकते हैं। इसे इस तरह से समझा गया कि पुतिन ने परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की धमकी दे दी है।अब अमरीका के राष्ट्रपति जो बाइडन को भी लगने लगा है कि परमाणु युद्ध की आशंका करीब है। डेमोक्रेट पार्टी के लिए चंदा जमा करने के एक कार्यक्रम में जो बाइडन ने कहा कि रुस के राष्ट्रपति को हल्के में नहीं ले सकते। रुसी सेना का प्रदर्शन खराब रहा है इसलिए पुतिन परमाणु या जैविक हथियारों का इस्तेमाल कर सकते हैं। 1962 के क्यूबा युद्ध का हवाला दिया जा रहा है जब रुस ने परमाणु मिसाइलें तैनात कर दी थीं। यह सब अमरीका का कहना है कि उस समय परमाणु युद्ध का खतरा सबसे करीब आ गया था मगर टल गया।

फरवरी में जब रूस ने यूक्रेन पर हमला किया तब कितने ही देशोे के राष्ट्र प्रमुख कितनी बार मिलने और एक दूसरे से बात करने के नाम पर फोटो खींचा चुके हैं, उनकी वाहवाही में कितने संपादकीय लिखे गए और हेडलाइनें छपीं मगर उन सब का कोई नतीजा नहीं निकला। यूक्रेन युद्ध जारी है और अब परमाणु युद्ध की बात होने लगी है। खबरें तो यह भी छपी हैं कि परमाणु विकिरण से इलाज की दवा खरीदने में अमरीका ने 290 मिलियन डालर खर्च कर दिए हैं। अमरीका का कहना है कि इसका यूक्रेन से कोई लेना देना नहीं है। सामान्य तैयारी के तहत खरीदारी हो रही है। कुलमिलाकर दुनिया अलग ही लेवल पर चली गई है। ग्लोबल लीडर नए सामंत हैं जो दुनिया को अपना खेत समझ कर जोतने की धमकी दे रहे हैं और जोत भी ले रहे हैं। इस पूरी कवायद में जनता नाम की चीज़ की कोई भूमिका नहीं है। उसका काम केवल ऐसी हेडलाइन को पढ़कर ताली बजाना रह गया है। अखबारों के संपादकीय पन्नों पर ये ग्लोबल नेता बड़े नेता बनकर सीना फुला रहे हैं उधर आम जनता है कि उसकी सांस फूलती जा रही है। 

तबाही तो अमरीका में भी है मगर यूरोप ने जो कीमत चुकाई है वह अप्रत्याशित है। ब्रिटेन से आने वाली ख़बरों पर नज़र रखिए। वहां दुकानों और बिज़नेस के बंद होने की आंधी चल रही है। वॉल स्ट्रीट जर्नल ने लिखा है कि गैस और बिजली का बिल इतना ज़्यादा हो गया है कि दुकान से लेकर दफ्तर तक चलाना असंभव होता जा रहा है।आम लोगों की गृहस्थी चरमरा गई है। क्योंकि उनकी कमाई के अनुपात में बिजली और गैस का बिल बहुत ज़्यादा हो गया है। वहां पर इसे एनर्जी बिल कहा जाता है। सर्दियां आने वाली हैं। तापमान गिरेगा तो घरों को गर्म करने के लिए बिजली कहां से आएगी, हीटर कैसे चलेंगे, इस चिन्ता में ब्रिटेन के लोग डरे हुए हैं। रुस के कारण गैस की सप्लाई बहुत प्रभावित हुई है। ब्रिटेन के नेशनल ग्रिड के हवाले से खबर छप रही है कि लोगों को बिजली कटौती के लिए तैयार रहना होगा। हर दिन तीन घंटे की बिजली कटौती हो सकती है। इस खबर पर चिन्ता जताई जा रही है कि जो लोग अपने घरों में डायलिसि करा रहे हैं, इलाज के लिए मशीनों पर निर्भर रहते हैं, उनका क्या होगा जब बिजली चली जाएगी।

लोगों से अपील की जा रही है कि बिजली का इस्तेमाल सोच समझ कर करें। कम से कम करें। मीडिया में आम लोग कह रहे हैं कि एनर्जी बिल उन्हें कंगाल कर रहा है। इस कारण वे कोशिश करेंगे कि कहां तक न्यूनतम तापमान को सह सकते हैं उसके बाद ही घर को गर्म करने के लिए हीटर का इस्तेमाल करेंगे। ये हालत हो गई है ब्रिटेन की।मजबूर होकर सरकार को आदेश देना पड़ा है कि किसी का भी एनर्जी बिल 2500 पाउंड सालाना से अधिक नहीं होगा। इस कारण सरकार पर भारतीय रुपये में सवा आठ लाख करोड़ का खर्च आएगा। कल्पना कीजिए ब्रिटेन के लोग बिजली का इस्तेमाल कर सकें, इसके लिए सरकार सवा आठ लाख करोड़ की सब्सिडी दे रही है। एनर्जी बिल के कारण लोगों की कमाई घट गई है।लोगों खर्च नहीं कर पा रहे हैं। एक नया डेटा आया है कि 22 प्रतिशत आबादी को घर चलाने के लिए कमाई के साथ साथ लोन लेना पड़ रहा है और लोन महंगा होता जा रहा है। आबादी का बड़ा हिस्सा बचत नहीं कर पा रहा है। वहां महंगाई चालीस साल में सबसे अधिक है। केवल बिजली बिल ही नहीं, हर चीज़ महंगी हो गई है।

Advertisement

ज़ाहिर है लोग खर्च कम कर रहे हैं इस कारण दुकानों से लेकर कंपनियों की हालत खराब है। वॉल स्ट्रीट जर्नल ने लिखा है कि इस साल के पहले छह महीनों में ढाई लाख से अधिक कंपनियां बंद हो गई हैं। माना जा रहा है कि इनमें सबसे अधिक छोटे स्तर की कंपनियां या बिज़नेस हैं जिनमें आठ से दस लोग काम करते हैं। ब्रिटेन में दुकानों और बिज़नेस के बंद होने की आंधी चल रही है। पब, कैफे,बेकरी, बुक स्टोर दनादन बंद हो रहे हैं। तेज़ रफ्तार से बिज़नेस फेल हो रहे हैं। कंपनियां से लेकर आम लोगों ने खरीदारी बंद कर दी है। कहा जा रहा है कि उपभोक्ताओं का आत्मविश्वास 1974 के बाद से सबसे कम है। ब्रिटेन का मिडिल क्लास तबाह है। साफ है कि अमरीका और यूरोप के देशों के प्रतिबंध की राजनीति से युद्ध नहीं रुकता है। प्रतिबंध चलता रहता है, धंधा चलता रहता है और जनता तबाह होती रहती है। 

Advertisement

जो सरकारें कहा करती थीं कि पेट्रोल से लेकर बिजली के बिल बाज़ार से तय होंगे अब वही सरकारें तय कर रही हैं कि एक सीमा से ज़्यादा बिलजी का बिल नहीं हो सकता है।ब्रिटेन की कंपनियां सरकार से मांग कर रही हैं कि बिजली बिल की सीमा तय कर दी जाए जिस तरह से आम उपभोक्ताओं के लिए की गई है।मगर वह भी काफी ज़्यादा है। 300 प्रतिशत तक बिजली बिल बढ़ गया है। जिनका महीने का बिल पांच हज़ार पाउंड था, उनका 35000 हज़ार पाउंड आ रहा है। 2021 से ही ब्रिटेन में बिजली के बिल बढ़ने शुरू हो गए थे। यूक्रेन युद्ध से पहले। सबको पता था कि कोविड के कारण आर्थिक तबाही है लेकिन तब भी किसी ने यूक्रेन युद्ध को रोकने की गंभीर कोशिश नहीं की।

Advertisement

अमरीका का साथ देने के कारण यूरोप तबाह होने लगा है और अमरीका अपने लिए तेल का जुगाड़ करने में लगा है। खबरें आ रही हैं कि वेनेज़ुएला से प्रतिबंध हटाए जा सकते हैं ताकि वहां से तेल खरीद सके। नवंबर में चुनाव है और वहां भी पेट्रोल महंगा हो गया है।यहां भी होगा। ओपेक प्लस देशों ने कच्चे  तेल के उत्पादन के टारगेट को कम कर दिया है। इससे कच्चे तेल के के दाम बढ़ने लग जाएंगे और फिर से पेट्रोल डीज़ल महंगा होने लगेगा। तो दुनिया इस हालत में है। आए दिन रेटिंग एजेंसियां एलान कर रही हैं कि दुनिया में मंदी आने वाली है। 

Advertisement

भारत में भी जीडीपी के विकास दर में लगातार कटौती का एलान हो रहा है।मूडी ने तो भविष्यवाणी की ती कि भारत की जीडीपी 8.8 प्रतिशत होगी। अब वही मूडी 7.7 प्रतिशत बता रहा है।अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष  ने कहा था कि भारत की जीडीपी 8.2  प्रतिशत की दर से बड़ेगी लेकिन अब उसने भी घटाकर 7.4 प्रतिशत कर दिया है। United Nations Conference on Trade and Development, UNCTAD ने कहा हैकि भारत की जीडीपी की दर 5.7 प्रतिशत पर आ जाएगी। विश्व बैंक ने कहा है कि 2022-23 के दौरान भारत की जीडीपी 7.5 प्रतिशत के बजाए 6.5 प्रतिशत ही रहेगी। स्टेट बैंक आफ इंडिया ने भी 22-23 के लिए जीडीपी की दर 7.5 प्रतिशत से घटाकर 6.8 प्रतिशत कर दिया है।तो सोचिए कि केवल भविष्यवाणी और पूर्वानुमान में ही जीडीपी की हालत खराब है। कम से कम एक प्रतिशत और अधिक से अधिक ढाई प्रतिशत की कमी बता दी गई है। कोई नहीं जानता कि असली जीडीपी क्या होगी।

कुल मिलाकर फरवरी महीने की शानदार हेडलाइनें अब ठोंगा कर मूंगफली के छिलके के साथ फेंकी जा चुकी हैं। किसी को पता नहीं कि जब पेट्रोल डीज़ल के दाम फिर से बढ़ने लगेंगे तब इन दरों का क्या होगा, मुंबई में CNG के दाम सात बार बढ़ चुके हैं। अब वहां CNG का रेट भी 86 रुपया हो चुका है  पेट्रोल के बराबर पहुंचे वाला है। सरकार और रिज़र्व बैंक भरोसा जता रहे हैं कि 7 प्रतिशत के आस-पास विकास दर हासिल कर लेंगे। कहीं यह भरोसा कागज़ी ही न रह जाए। वैसे प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार समिति के अध्यक्ष विवेक देबराय का पिछले महीने बयान था कि उन्हें निजी तौर पर हैरानी होगी अगर भारत अगले पांच साल में भी 6.5 प्रतिशत की विकास दर को हासिल कर पाए। यानी ये 7 प्रतिशत वाला भरोसा अभी के हेडलाइन मैनेजमेंट के लिए लगता है। 

ज़मीन पर जनता परेशान है। उसने कहना छोड़ दिया है। सहना शुरू कर दिया है। विश्व बैंक की रिपोर्ट है कि 2020 में साढ़े पांच करोड़ से ज्यादा भारतीय गरीबी में धकेले गए होंगे। दो साल में ऐसा क्या हो गया होगा कि ये ग़रीबी से बाहर आ गए होंगे? ज़ाहिर है इस वक्त कितनी गरीबी है और आम लोग महंगाई का सामना कैसे कर रहे हैं इसकी कोई चर्चा नहीं है। विवेक देबराय प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार समिति के अध्यक्ष हैं, उनका हाल का बयान है कि भारत एक लोअर मिडिल क्लास देश है। विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अमरीका में कहा कि भारत की प्रति व्यक्ति आय दो हज़ार डॉलर सालाना है। तेल की कीमतों के कारण पीठ टूट रही है। यानी भारत को भी दिखने लगा है कि अमरीका और ब्रिटेन से तबाही का असर इस तरफ आने लगा तो क्या होगा। 

गांव देहात और कस्बों में पशुपालकों से बात कीजिए। पता चलेगा कि महंगाई के कारण पिछले दो साल में वे कितने गरीब हुए हैं। जो चारा कभी 400 रुपये क्विंटल मिला करता था अब 1300 रुपये क्विंटल मिल रहा है। जून में तो 1700 रुपये क्विंटल हो गया था। चारा 400 रुपये से बढ़कर 1700 क्विंटल हो गया लेकिन गेहूं 2000 रुपये क्विंटल से बढ़कर 2400 रुपये ही क्विंटल हुआ।मोहित के पास 15 भैंसे हैं। भैंसों के चारे का बजट ही एक लाख रुपए का हो गया है।पहले हर दिन दो हज़ार का चारा लगता था, अब तीन हज़ार का लगता है। यह केवल चारे का हिसाब है। मवेशी पर और भी खर्चे होते हैं। पशुपालन से किसान अतिरिक्त आय हासिल कर लेता था लेकिन उस पर भी आफत है। मीडिया में रिपोर्टिंग नहीं होने से लोगों की तकलीफ दूर नहीं हो जाती है। लोग किसी तरह गुज़ारा कर रहे हैं। 

लंबे समय से कम कमाई और अधिक महंगाई झेलते झेलते आम लोगों की क्या हालत हुई है, हम ठीक-ठीक नहीं जानते हैं।लोग ही बता सकते हैं कि वे आठ साल में अमीर हो गया या जहां थे वहीं पर हैं। या जो था वो भी नहीं है। उनकी आर्थिक असुरक्षा पर बात नहीं हो रही है, इसकी जगह धार्मिक असुरक्षा का भूत खड़ा कर दिया गया है। हर दिन किसी न किसी बहाने से धार्मिक असुरक्षा का कोई मुद्दा या वीडियो सामने आ जाता है और देश को उसमेें उलझा दिया जाता है। ताकि लोगों को लगे कि वह आर्थिक रुप से असुरक्षित नहीं है, बल्कि आर्थिक सुरक्षा से ज़्यादा बड़ी है धार्मिक सुरक्षा। हर शाम गोदी मीडिया बताता है कि धर्म खतरे में हैं। सरकारी संस्थां भी इस भावना को आवाज़ दे रही हैं। कभी अदालत के फैसले के पहले बुलडोज़र चला कर तो कभी बीच बाज़ार में खंभे से बांध कर डंडे बरसा कर। गुजरात में गरबा में मुसलमानों के प्रवेश के नाम या कथित रुप से पत्थर चलाने के नाम पर जो हुआ है उसके पीछे एक राजनीतिक कारण भी हो सकता है। ताकि चुनावों के दौरान लोग आर्थिक मुद्दों की बात न करें, धर्म की सुरक्षा को लेकर कूद पड़े। 

इस क्लिप में दिख रहा है कि चार लोगों को लोगों को बिजली के खंभे से बांध दिया गया है। इन्हें एक व्यक्ति डंडे से मार रहा है। जिन्हें खंभे से बांधा गया है, उन्हें पुलिस ने ही पकड़ा है और उन पर आरोप है कि ये लोग गरबा के कार्यक्रम पर पत्थर बरसाए हैं। डंडा से मारने वाले सादे कपड़ों में हैं। जिन्हें मारा जा रहा है वे सभी मुसलमान हैं। यह घटना गुजरात के खेड़ा ज़िले के मातार तालुका के ऊंधेला गांव की है।क्या आप इसी तरह का भारतीय राज्य चाहते हैं? अगर यही सर्वोत्तम उपाय है तब फिर पुलिस, उसकी जांच, वकील और अदालत की क्या ज़रूरत है? क्या अब मान लिया जाएगा कि पुलिस जिसे पकड़ लेगी वह दोषी होगा। जिस पर हत्या का इल्ज़ाम लगा देगी उसे खंभों से मारा जाएगा और दीवारों में चिनवा दिया जाएगा? क्या इस देश में इसी तरह से इंसाफ होगा? किसी को खंभे से बांध कर मारा जाएगा और वहां भीड़ भारत माता की जय और वंदे मातरम के नारे लगा रही है।हर दिन ऐसे वीडियो से लोगों को इस भीड़ में बदला जा रहा है। क्या संवैधानिक व्यवस्था को तोड़ कर भी वंदे मातरम के नारे लगाए जा सकते हैं? 7 अक्तूबर के इंडियन एक्सप्रेस में अदिती राजा की खबर छपी है कि चार लोगों को बिजली के खंभे से बांध कर जो डंडे से मार रहे हैं वो पुलिस इंस्पेक्टर ए वी परमार हैं। उनके  साथ सब इंस्पेक्टर डी बी कुमावत हैं। इस रिपोर्ट के लिए दोनों से संपर्क किया गया मगर जवाब नहीं दिया।

आप एक काम कीजिए, पत्थर चलाने की घटना के नाम से सर्च कीजिए, आप पाएंगे कि कई राज्यों में पत्थर चलाने का भूत खड़ा कर एक समुदाय को निशाना बनाया जाता है। तब आपको पत्थर मारने की राजनीति का पता चलेगा। हाल ही में गृह मंत्री अमित शाह ने गुजरात दौरे पर कहा था कि 2002 के बाद पैदा हुए किशोरों से अगर पूछा जाए तो वह कर्फ्यू के बारे में नहीं बता सकेगा। ज़ाहिर है वे 2002 के दंगों को लेकर इशारा कर रहे थे और बता रहे थे कि अब दंगे नहीं होते, कर्फ्यू नहीं होते। फिर उस गुजरात में गरबा के समय अचानक टकराव की इतनी घटनाएं कैसे बढ़ गई। कहीं पत्थर चल रहे हैं तो कहीं लोग दूसरे समुदाय के लोगों को गरबा के भीतर से पकड़ कर ऐसे बता रहे हैं जैसे यह कोई साज़िश का हिस्सा हो। क्या बिजली के खंभे से बांध कर चार लोगों को डंडे से पीटने की घटना को आप 2002 से शुरू हुई राजनीति से अलग कर सकते हैं?

कोई ऐसा त्यौहार नहीं गुज़रता जब दूसरे धर्म को ललकारने या प्रताड़ित करने की घटना सामने नहीं आती।रामनवमी के जुलूस को राजनीतिक अभियान में बदल दिया गया है और अब इस बार गरबा के साथ भी यही किया गया। गरबा को लेकर एक से एक धर्म रक्षक सामने आ गए। कहीं पोस्टर लगाया जा रहा है कि गैर हिन्दु पूजा और गरबा के पंडाल में न आए तो कहीं पिटाई के वीडियो वायरल हो रहे हैं। वहीं राम लीलाओं में अश्लील डांस होते रहे, उससे धर्म को ख़तरा नहीं था, जबकि वो देखा भी नहीं जाता है। क्या यह सब इसलिए है कि बेरोज़गारी और महंगाई की मार झेल रहे समाज को बताते रहा जाए कि इस वक्त धर्म खतरे में हैं, सब लोग धर्म की सुरक्षा में लगें, आर्थिक सुरक्षा की चिन्ता छोड़ दें। उसका हिसाब न करें। इंदौर में तो बिना किसी अपराध के ही मुस्लिम युवाओं को गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस ही कह रही है कि कोई अपराध नहीं किया लेकिन एहतियातन हिरासत में लिया गया। 

कर्नाटक से लेकर गुजरात तक ऐसी घटनाएं बढ़ने लगी है। ज़ाहिर है उधर चुनाव हैं। इन घटनाओं से बहसोत्पादन होने लग जाता है। लोग ट्विट करने लग जाते हैं, व्हाट्स एप पर वीडियो वायरल होने लग जाता है। आबादी के एक खास हिस्से को धर्म की रक्षा के इन मुद्दों से सीधा जोड़ दिया जाता है। इसके असर में लोगों को लगने लग जाता है कि धन खतरे में नहीं है। धर्म खरते में है।हिसाब कीजिए कि आर्थिक रुप से कितने पीछे चले गए हैं। एक डॉलर 82 रुपए से अधिक का हो चुका है। उन परिवारों की भी हालत खराब होगी जिनके बच्चे विदेशों में पढ़ने गए हैं। फीस से लेकर रहने खाने का खर्चा काफी बढ़ गया होगा। 

डॉ भीमराव अंबेडकर की 22 प्रतिज्ञाएं इतिहास का एक निर्णायक दस्तावेज़ हैं। मगर वो वर्तमान का भी हिस्सा हैं। हर साल बड़ी संख्या में ये 22 प्रतिज्ञाएं लाखों लोगों के द्वारा दोहराई जाती हैं। डॉ अंबेडकर की विरासत पर दावा करने वाली चाहे बीजेपी हो या आम आदमी पार्टी या कोई भी दल हो, वो डॉ अंबेडकर को इन प्रतिज्ञाओं से अलग नहीं कर सकते हैं। इन प्रतिज्ञाओं के रहते हुए भी यूपी चुनाव के समय बहुजन समाज पार्टी ने ब्राह्मणों को बुलाकर शंख ध्वनि से स्वागत किया था। जबकि एक प्रतिज्ञा इसके विरोध में भी हैं।

दिल्ली के समाज कल्याण मंत्री राजेंद्र पाल गौतम ने भी एक कार्यक्रम में हज़ारों लोगों के साथ इन प्रतिज्ञाओं को दोहराया, शपथ ली।प्रतिज्ञा दिला रहे थे डॉ अंबेडकर प्रपौत्र राजरत्न अंबेडकर दिलवा रहे थे। मंत्री राजेंद्र पाल गौतम इन प्रतिज्ञाओं से पीछे नहीं हटे हैं बल्कि कहा है कि इसमें कुछ भी गलत नहीं है। यह प्रतिज्ञा तो 1956 से दोहराई जाती रही है।बीजेपी इसे लेकर राजनीतिक मुद्दा बना रही है। उसे लगता है कि धार्मिक भावनाएं भड़काएं जा रही हैं। शरद शर्मा की रिपोर्ट


प्रधानमंत्री मोदी से लेकर आर एस एस के प्रमुख मोहन भागवत तक डॉ अंबेडकर को आदर्श मानते हैं। उनकी जयंति पर भव्य कार्यक्रम करते हैं। अब उन्हीं को बताना चाहिए कि वे इन प्रतिज्ञाओं को मानते हैं या नहीं। लेकिन तब उन्हें यह भी बताना पड़ जाएगा कि इन प्रतिज्ञाओं के बिना डॉ अंबेडकर को माना जा सकता है? आप ब्रेक ले लीजिए। 

Topics mentioned in this article