This Article is From Jun 08, 2022

टीवी डिबेट के मैदान में महंत बनाम मौलाना, आसमान में महंगाई, आम आदमी हुआ बेगाना

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Ravish Kumar

आज का दिन अच्छा नहीं है. पर्यावरण के मामले में भारत दुनियाभर में सबसे लास्ट आया है. कोई ब्लंडर मिस्टेक नहीं है, सबसे लास्ट ही आया है.विश्व बैंक ने भारत की विकास दर फिर घटा दी है. रिज़र्व बैंक ने कहा है कि महंगाई छप्पड़ फाड़ कर छत से भी ऊपर निकल गई है. इस साल दिसंबर तक महंगाई छप्पर  फाड़कर अंतरिक्ष में उड़ती रहेगी. जनता करे तो क्या करे, कितना नीचे देखे, कितना ऊपर देखे. लेकिन एक अच्छी ख़बर भी है. दुनियाभर में भारत की बदनामी कराने के बाद भी गोदी मीडिया में कई जगहों पर घटिया धार्मिक डिबेट जारी हैं. करोड़ों दर्शकों के लिए ऐसे डिबेट की सप्लाई बनी हुई है. लोग भी ख़ूब देख रहे हैं क्योंकि टीवी और राजनीति दोनों का इन धार्मिक मुद्दों के बिना काम नहीं चल सकता. मंगलवार को सूत्रों के हवाले से ख़बर आई कि बीजेपी के प्रवक्ता सरकार की ग़रीब कल्याण योजनाओं के बारे में बात करेंगे. इस ख़बर से ज़ोर की हंसी आई कि चैनल ग़रीब कल्याण योजना पर डिबेट करेंगे या प्रवक्ताओं को धार्मिक डिबेट में ही ग़रीब कल्याण योजना के बारे में बोलना होगा.

आल्ट न्यूज़ के मोहम्मद ज़ुबेर अपने ट्विटर हैंडल zoo_bear में टीवी पर होने वाले धार्मिक टोन वाले कई डिबेट के क्लिप डालते रहते हैं. खासकर ऐसे डिबेट, जिसके सवाल से लेकर ऐंकर की बातें भड़काऊ होती हैं. zoo_bear पर ऐसी बहसों के संकलन का अध्ययन किया जाना चाहिए. ज़ुबेर ने शानदार तरीके से इन्हें एक जगह जुटाकर देखने का मौका दिया है कि यहां ऐसा क्या बोला जा रहा है, जिससे धर्म को  लेकर दो समुदायों के बीच टकराव पैदा होता है.ज़ुबेर ने केवल भड़काऊ बातें करने वाले महंतों की पहचान नहीं की है, बल्कि उन मौलानाओं को भी चिन्हित किया है जो ऐसी बहस में दूसरा पक्ष बनकर आते हैं. यह सवाल उठाया है कि भड़काऊ बातें करने वाले इन मौलानाओं को न्यूज़ चैनल क्यों बार-बार बुलाते हैं? ज़ाहिर है बहस में गरमी पैदा के लिए एक मौलाना ज़रूरी हो जाता है. जिनकी बोल पर महंत आगबबूला होते हैं और महंत की बोल पर मौलाना आगबबूला होते हैं. एक उकसाता है, दूसरा उकस जाता है, फिर दूसरा उकसाता है, पहला उकस जाता है. इन बहसों में आने वाले मौलानाओं और महंतों के बारे में जानना ही चाहिए, कौन लोग हैं जो बिना किसी परवाह के उग्र बातें बोलते रहते हैं.

इस तरह बहस का पर्यावरण बहुत ख़राब हो जाता है. दुनिया में बहस के इसी पर्यावरण के कारण भारत की बदनामी हुई. अब तो पर्यावरण के मामले में ही बदनामी हो गई है. एक रिपोर्ट में भारत का स्थान 180 देशों में 180 वें नंबर पर आ गया है. इस पर आने से पहले डिबेट पर डिबेट करना ज़रूरी है. तभी आप समझ पाएंगे कि एक ऐसे दिन जब छप्पर फाड़ महंगाई की ख़बर आई है, विकास दर घटा दी गई है, क्यों महंगाई और बेरोज़गारी के सवाल पर चर्चा नहीं होती? पहले टीवी चैनलों ने सरकार से पूछना बंद कर दिया तो जनता में यह बात फैल गई, तो अब जनता के बीच वही चैनल धर्म को लेकर सवाल पूछते आ गए हैं ताकि लगे कि ऐंकर इन दिनों धर्म की रक्षा में बिजी हैं, इसलिए सरकार से सवाल करने का टाइम नहीं मिल रहा है. इस तरह धर्म के नाम पर गरमागरम बहस का माहौल पैदा किया जाता है, जिसे देखने करोड़ों लोग आ जाते हैं. अलग-अलग चैनलों के संदर्भ में कई मौकों पर यह बात सामने आई है कि इनके कार्यक्रम, इनकी बातें सांप्रदायिक सदभाव बिगाड़ रही हैं. इस बारे मे 23 अप्रैल को सूचना प्रसारण मंत्रालय ने एक चेतावनी भी जारी की,लेकिन उससे धार्मिक मुद्दों पर होने वाली बहसों में कोई अंतर नहीं आया. 

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ज़ुबेर ने अपने ट्विटर हैंडल पर दो चार्ट साझा किए हैं. दिखाने के लिए कि अलग-अलग चैनलों के ऐसे डिबेट को लाखों दर्शकों ने देखा है, जिनके विषय धार्मिक विषयों पर आधारित थे. यू ट्यूब पर इन सभी को लाखों में व्यूज़ मिले हैं. जबकि केबल और डिश टीवी पर भी करोड़ों दर्शकों ने देखा ही होगा. थीम के हिसाब से भी अलग-अलग चैनलों के कार्यक्रमों में काफी समानता दिखती है और इनमें आने वाले वक्त भी कई बार एक जैसे ही होते हैं. ज़ुबेर ने ऐसे ही एक व्यक्ति को रेखांकित किया है कि लाखों व्यूज़ वाले कई चैनलों के शो में एक मौलाना कॉमन है. यह तो दावा नहीं किया जा सकता कि केवल इन्हीं के कारण लाखों व्यूज़ मिले हैं लेकिन कई चैनलों के डिबेट में मुसलमानों के प्रतिनिधि के तौर पर हिस्सा लेने वाले मौलाना कौन है. इनका नाम है इलियास शराफुद्दीन. आल्ट न्यूज़ के ज़ुबेर का सवाल है कि जब इलियास शराफुद्दीन आपत्तिजनक बातें करते हैं तो उन्हें हर कोई क्यों बुलाता है, क्या इसलिए कि रेटिंग आती है? ज़ुबेर ने जानने की कोशिश की है कि इलियास शराफुद्दीन कौन हैं, इनकी पृष्ठभूमि क्या है? व्यक्तिगत जानकारी नहीं मिली है लेकिन ज़ुबेर ने एक ट्वीट में दावा किया है कि 2017 में रिपब्लिक टीवी ने इलियास को इस्लामी विद्वान के रूप में पेश किया, हो सकता  है कि पहले भी किसी ने बुलाया हो, यह महत्वपूर्ण नहीं है लेकिन ज़रूर उसके बाद से कई चैनल इन्हें बुलाने लगे. इलियास के बयान उलूल-जलूल से भी होते हैं और कई बार रिपब्लिक ने इनके बयानों को ट्वीट भी किया है. जैसे एक बयान है कि ये चाहते हैं कि भारत सऊदी अरब हो जाए.ऐसा चाहने वाले केवल इलियास हैं या यह भारतीय मुसलमानों की राय है, साफ नहीं होता मगर अक्सर ऐसी डिबेट में कही गई बातों को मुसलमानों की बात के रूप में पेश कर दिया जाता है ताकि लोगों में गुस्सा और नफरत पैदा हो. उस एजेंडे को मान्यता मिले कि इनकी निष्ठा भारत में नहीं है. यह कितना खतरनाक खेल है, मुसलमानों के खिलाफ मुसलमानों का ही इस्तेमाल हो रहा है. निश्चित रूप से भारत जैसे देश के लिए कुछ होने के लिए सऊदी अरब तो कभी भी आदर्श मॉडल नहीं हो सकता मगर इलियास की ऐसी बातों से लोग भड़क ही गए होंगे. कई शो में इलियास एंकरों को दलाल तक बोल देते हैं, अभद्र भाषा का इस्तेमाल करते हैं, फिर भी इलियास को इनके पैनलों में बुलाया जाता है. 

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इन सभी बहसों में एक चेतावनी होती है. वक्ता की बातों के लिए चैनल ज़िम्मेदार नहीं है. उसी तरह एक चेतावनी और होनी चाहिए कि वक्ता इलियास मुसलमान तो हैं मगर उनकी राय भारत के मुसलमानों की राय नहीं है. आप इन डिबेट के पैटर्न को देखिए. कई ज़िम्मेदार मुस्लिम संगठन और विद्वान टीवी की डिबेट से पीछे हट गए हैं. वे जानते हैं कि इनका मकसद धर्म को जानना नहीं, दो धर्मों को भिड़ाना है ताकि लोग मुसलमानों ने नाराज़ हों और उनका हिन्दुत्व की तरफ जुटान हों.

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इसलिए अच्छे लोग हट गए,अब यह साफ नहीं है कि खराब बोलने वाले ही खोजकर लाए जाते हैं या अच्छे लोगों के हट जाने के बाद ऐसे लोगों को किसी तरह आने के लिए मजबूर किया जाता है? संपादकीय ज़िम्मेदारी भी कोई चीज़ होती है. जो वक्ता ख़राब बोलता है, भड़काता है,उसे बार-बार क्यों बुलाया जाता है? हम इलियास शराफुद्दीन से बात करने की कोशिश करेंगे,उन्हें बकायदा मैसेज किया लेकिन उनका जवाब नहीं आया. 

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न्यूज़ चैनलो के डिबेट के टॉपिक ध्यान से देखा कीजिए. पता चलेगा कि सरकार से सवाल पूछने वाले टापिक पर कितनी बहस है, महंगाई, बेरोज़गारी पर कितनी बहस है, धर्म के टापिक को लेकर कितनी बहस है? पीईंग ह्यूमन और क्रूरदर्शन के रमित कुणाल ने कई डिबेट शो के टॉपिक का अध्ययन किया है. कार्यक्रमों के नाम हैं, दंगल, हल्ला बोल, आर पार महाभारत, ताल ठोंक के, देश नहीं झुकने देंगे, पूछता है भारत,सवाल पब्लिक का.ये 5 मई से 24 मई के दौरान हुए .

- इन कार्यक्रमों के करीब 150 डिबेट के टॉपिक का अध्ययन किया. 
- अध्ययन में यह निकल कर आया है कि 150 डिबेट में से 138 डिबेट का संबंध किसी न किसी तरीके से धर्म से रहा है. 
- जिस वक्त महंगाई चरम पर हो, गर्मी हो, असम में बाढ़ हो, उस वक्त केवल धर्म से जुड़े मुद्दे पर डिबेट हो रहे हैं. 

आप यह जान गए हैं कि पत्रकारिता समाप्त हो चुकी है. जब से दर्शकों ने पकड़ा है कि चाटुकारिता हो रही है, धर्म के नाम पर दर्शकों के बीच आ गया है. आप समझ नहीं पाते कि क्या करें, यह कुछ ऐसा मामला है, परीक्षा के समय किताब नहीं पढ़ रहा है, आपका बच्चा तीन घंटे से पूजा करने में लगा है. ज़ाहिर है आप पूजा करने से नहीं रोक पाएंगे और इस तरह से बच्चा नहीं पढ़ने का अच्छा बहाना ढूंढ लेता है. जैसे-जैसे जनता के सवाल मुखर होते हैं, टीवी के बक्से पर वक्ता का एक बक्सा बढ़ा दिया जाता है. पूरी महफिल सज़ा दी जाती है और हंगामा खड़ा किया जाता है ताकि केवल हंगामा रह जाए, सवाल गायब हो गए. 

रोहित के इस एनिमेशन से साफ हो जाना चाहिए कि डिबेट बात करने का पर्यावरण बिगाड़ रहा है. यह जानबूझ कर किया जाता है ताकि हंगामे पर आपकी नज़र जाए और टीवी को दर्शक मिल जाए. हंगामा हो इसलिए ज़रूरी है कि एक महंत हो और एक मौलाना हो.अब बात करते हैं पर्यावरण की. पर्यावरण के बारे में प्रधानमंत्री मोदी के भाषणों में अच्छाई की कोई कमी नहीं है,हर वो चीज़ है, जो एक अच्छे भाषण और एक अच्छे पर्यावरण के लिए ज़रूरी होती है लेकिन इसके बाद भी उनके कार्यकाल के आठवें साल में भारत 180 देशों में 180 वें नंबर पर आ गया है. मतलब, धरती की पूजा करें भारत, धरती को माता मानें भारत और फेल भी करें भारत. मुझे तो शक है. दो प्रकार के शक हैं. लगता है, कॉपी चेक करने वाले ने अक्षय कुमार से पर्यावरण का इतिहास नहीं पढ़ा है, दूसरा वह गोदी मीडिया पर धार्मिक डिबेट नहीं देखता होगा,तभी उसका ध्यान जवाब की ग़लतियों से नहीं भटका होगा. 

तुलसी भाई, विश्व स्वास्थ्य संगठन के चीफ का भारतीय नाम प्रधानमंत्री ने रखा है. तुलसी भाई 20 अप्रैल को गुजरात में थे, उस दिन दोनों की निकटता देखते ही बनी थी मगर 17-18 दिन के बाद 6 मई को तुलसी भाई की संस्था की एक रिपोर्ट ने हंगामा मचा दिया.इस रिपोर्ट में दिखाया गया कि कोविड के दौरान भारत में मरने वालों की संख्या 47  लाख से ज़्यादा हो सकती है, लेकिन सरकार ने पांच लाख से भी कम नंबर बताए हैं, कई दूसरी रिसर्च संस्थाओ ने भी इस तरह के दावे किए हैं लेकिन भारत सरकार ने ऐसी सभी रिपोर्ट को ठुकरा दिया. भारत के समाचार पत्रों ने भी सरकारी दावों को चुनौती दी और अपनी रिपोर्ट में मरने वालों की संख्या अधिक बताई थी. भारत सरकार ने उसे भी ठुकरा दिया. जब इसी WHO ने कोविड को लेकर भारत की तारीफ की, तब सारे मंत्री ट्विट करने लगे थे.जब WHO ने आशा वर्कर को ग्लोबल हेल्थ लीडर का पुरस्कार दिया तब तनिक देर न लगी, इस तारीफ पर अपनी तारीफ करने में.प्रधानमंत्री ने ट्विट किया और इस अवार्ड को मान्यता दी, जबकि पुलित्ज़र पुरस्कार मिलने पर पत्रकारों को उन्होंने बधाई नहीं दी. एक ही संस्था की एक रिपोर्ट पर शुकराना, एक रिपोर्ट को ठुकराना. वाह रे वाह, देखो कैसा ज़माना. जबकि आशा वर्कर को पता है कि सच्चाई क्या है, न ढंग की सैलरी मिलती है और न समय पर मिलती है.

भारत सरकार इन संस्थाओं को काफी महत्व भी देती है, बस उनकी वैसी रिपोर्ट को ठुकरा देती है, जो उसे पसंद नहीं आती है. 2021 की डेमोक्रेसी इंडेक्स की रिपोर्ट में भारत की रैकिंग ख़राब निकली, सरकार ने रिजेक्ट कर दिया. ग्लोबल हंगर रिपोर्ट में 116 देशों में भारत का स्थान 101 वां निकल गया. भारत ने ठुकरा दिया. ठुकराना भी एक काम हो गया है, एक मंत्री ही होना चाहिए, ठुकराना मंत्री. किसे पता था कि भारत को एक और रिपोर्ट ठुकराने का काम करना होगा. 

वर्ल्ड इकोनमिक फोरम की इस नई रिपोर्ट को ठुकराने से पहले यह भी देख लीजिए कि इस मंच को सरकार और मीडिया कितना महत्व देता है. केंद्र से लेकर राज्य सरकारों के मंत्री यहां हाज़िरी लगाने का मौका नहीं गंवाते. यहां पहुंचकर भारत की जनता के लिए ट्विट करते हैं जैसे इनका एडमिशन आक्सफोर्ट यूनिवर्सिटी में हो गया हो. इसी फोरम की environment performance index की रिपोर्ट में भारत का स्थान 180 आया है. जिसमें देखा जाता है कि दुनिया के देशों में पर्यावरण को लेकर किस तरह के नियम-कानून बने हैं, उन्हें कितनी ईमानदारी से लागू किया जाता है, भ्रष्टाचार कितना है, प्रदूषण का हाल कैसा है. इन सब मामलों में भारत को आखिरी नंबर मिले हैं. 2014 में इसी रिपोर्ट में भारत का स्थान 178 देशों में 155 वां था. 2016 में काफी सुधरा और 141 नंबर पर भारत आ गया. लेकिन 2018 में 36 अंक गिरकर 177 नंबर पर आ गया.2020 में 168 रैंक था और 2022 में 180 वें स्थान पर आ गया. क्या ये संस्था केवल इसी मामले में खराब काम करती है, इस संस्था के साथ येल यूनिवर्सिटी की एक सस्था ने भी सहयोग किया है, और भी संस्थाएं हैं, क्या उन सभी ने मिलकर खराब काम किया है, इन्हें काम करना नहीं आता है?

क्या पर्यावरण के मामले में भारत का रिकॉर्ड इतना ख़राब है, 180 देशों में भारत लास्ट आए? सरकार रिपोर्ट ठुकरा सकती है लेकिन इस सवाल का जवाब आप ना में नहीं दे सकते कि यहां पर्यावरण की हालत बहुत ख़राब हैं. ठीक है कि भारत की जनता ने महंगाई की तरह गर्मी के प्रकोप को भी बर्दाश्त किया है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि इसके कारण उसका जीना मुश्किल नहीं हुआ है.

इस साल मार्च में गर्मी ने 122 सालों का रिकार्ड तोड़ दिया. इतना गर्म मार्च कभी नहीं था. मार्च का औसत तापमान 33 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो गया, औसत से 1.86 डिग्री सेल्सियम ज़्यादा रहा.गेहूं के दाने सूख गए, जनता ने बर्दाश्त किया, उसके बाद रिकार्ड ही रखना छोड़ दिया कि आज तापमान 45 डिग्री सेल्सियस है या 47 डिग्री सेल्सियस. 2012-21 के बाच दस सालों के दौरान तापमान में सबसे अधिक वृद्धि हुई. पिछले पंद्रह साल में 11 साल सबसे गरम साल रहे हैं. गंगा में प्रदूषण का स्तर जांचने के चार केंद्रीय संस्थाएं हैं, इनमें से तीन की रिपोर्ट बताती है कि प्रदूषण के तत्व सीमा से ज़्यादा बढ़े हुए हैं. सेंटर फार साइंस एंड एंवायरनमेंट की रिपोर्ट में यह सब है.जनता ने तभी बर्दाश्त किया जब प्रधानमंत्री ने कहा कि जलवायु परिवर्तन में भारत का कोई रोल नहीं है.क्या वाकई भारत का कोई रोल नहीं है? कम ज़्यादा रोल पर डिबेट हो सकता है लेकिन ज़ीरो रोल कैसे हो सकता है? क्या किसी ने पूछा कि जलवायु परिवर्तन में भारत का ज़ीरो रोल कैसे है? इसका मतलब है कि जो जनता टीवी पर घटिआ डिबेट बर्दाश्त कर सकती है वह कुछ भी स्वीकार कर सकती है. वह यह भी स्वीकार कर सकती है कि कोरोना के साल 2020-21 में देश भर में 30 लाख से अधिक पेड़ों को काट दिया गया तो क्या हो गया.जब तक बर्दाश्त का नाम विकास है, जनता बर्दाश्त करती है और बर्दाश्त का विकास करती जाती है. 

सवाल-प्रधानमंत्री कहते हैं जलवायु परिवर्तन में भारत का रोल ज़ीरो है, दूसरा EPI की रिपोर्ट में भारत लास्ट आया है. क्या भारत कुछ बेहतर स्थान नहीं पा सकता था?

15 देशों में भारत की बदनामी हुई, लोगों ने बर्दाश्त किया ही, अब इसे भी बर्दाश्त कर लेंगे कि पर्यावरण के मामले में भारत 180 देशों में 180 वें नंबर पर है. बर्दाश्त करने के मामले में जनता पर भरोसा करना चाहिए. दो साल से महंगाई की हर चरम सीमा को नई सीमा मान कर बर्दाश्त करने वाली जनता, छप्पड़ फाड़ महंगाई को भी बर्दाश्त कर लेगी. क्या पिछले साल लोगों ने 110 रुपया लीटर पेट्रोल ख़रीद कर बर्दाश्त करने की नई सीमा का प्रदर्शन नहीं किया था? आखिर रिज़र्व बैंक किसे सुना रहा है,कि महंगाई बर्दाश्त की ऊपरी सीमा पार कर चुकी है.

जब भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर ने कहा कि महंगाई बर्दाश्त की ऊपरी हद पार कर चुकी है तब मैं उन हदों के बारे में सचित्र सोचने लगा जिनके भीतर जनता क़ैद है. कानून ने महंगाई को लेकर मुख्य रूप से दो हदें रिज़र्व बैंक को दी हैं. नीचली हद 2 प्रतिशत की है मतलब जनता इतना बर्दाश्त कर सकती है. इसका मतलब नहीं कि इसके आगे बर्दाश्त नहीं करनी है.इसके आगे आप बर्दाश्त कर सकें इसलिए ऊपरी हद 6 प्रतिशत तक रखी गई है. एक तीसरी हद है जिसे माना जाता है कि थोड़ा आप भी बर्दाश्त करें, थोड़ा सरकार भी करें, 4 प्रतिशत की हद कहते हैं. 4 से 6 प्रतिशत के बीच भी कई अदृश्य हदें हैं, जिसे समय-समय पर सरकार बताती रहती है. जब महंगाई 5 प्रतिशत होगी तो कह देगी कि अभी मुश्किल है मगर नियंत्रण में है, 6 प्रतिशत से कम है. लेकिन जब छह प्रतिशत की हद पार कर गए तो महंगाई बर्दाश्त के बाहर मान ली जाती है.

रिज़र्व बैंक ने कह दिया कि महंगाई बर्दाश्त की सभी हदों को पार कर चुकी है, इस एलान को सुनने के बाद हिन्दी प्रदेशों के महंगाई के सपोर्टर ठिठक गए हैं. खाने-पीने की चीज़ें भयानक रुप से महंगी हो गई हैं. रिज़र्व बैंक ने कहा है कि अगले सितंबर तक महंगाई से राहत की उम्मीद नहीं है. महंगाई छपप्पड़ फाड़ ही रहने वाली है. रिजर्व बैंक ने आज फिर से ब्याज दर में बढ़ोत्तरी कर दी है,आपकी EMI और बढ़ेगी, बैंकों से कर्ज़ लेना महंगा हो जाएगा. चिन्ता मत कीजिए, गोदी मीडिया पर हिन्दू मुस्लिम डिबेट का रिबेट आफर भी मिलता रहेगा. 

हम एक मुश्किल वक्त में हैं.अगली दो तिमाही में जीडीपी 4 प्रतिशत के आस-पास रहेगी. इसी दौरान महंगाई भी चरम पर रहेगी तो आप जनता की हालत ख़राब होने वाली है. हालात और हेडलाइन मैनेजमेंट के बीच का फर्क समझना होगा.रिज़र्व बैंक ने भारत की जीडीपी का अनुमान घटा दिया है. अप्रैल महीने में ही 2022-23 के लिए 7.8 प्रतिशत से घटाकर 7.2 कर दिया है.हमें लगा अब हो  गया लेकिन विश्व बैंक तो डिसाइड नहीं कर पा रहा है कि कितनी बार घटाते रहें.

- विश्व बैंक का कहना है कि छप्पर फाड़ महंगाई के कारण इस साल विकास दर 7.5% ही रहेगी.
- जबकि जनवरी में कहा था कि 2022-23 में विकास दर 8.7%, रहेगी
- अप्रैल के महीने में घटाकर 8 प्रतिशत कर दिया
- 7 जून को और घटा दिया, 7.5 प्रतिशत कर दिया

ऐसा लग रहा है कि विकास का पाजामा छोटा होता जा रहा है. कब कौन आकर एक बिलांग छोटा कर जाएगा,पता नहीं. आपको धर्म की रक्षा में उलझाया जा रहा है जबकि समय अर्थ  की रक्षा का है. वैसे धर्म तो पत्रकारिता का भी है, मगर वह अपने धर्म की रक्षा नहीं कर पा रहा है. अपने अधर्मों पर पर्दा डालने के लिए आपके धर्म का रक्षक बना फिर रहा है.जैसे जैसे अर्थव्यवस्था की हालत खराब होगी, हेडलाइन में अर्थव्यस्था की दूसरी खबरें चमकने लगेंगी. जैसे स्टार्ट अप से लेकर पंजीकृत होने वाली कंपनियों की संख्या का ढिंढोरा पीटा जाएगा, इस तरह से आपको संकट नहीं दिखाया जाएगा, उम्मीद दिखाई जाएगी, प्राइम टाइम को यू ट्यूब में दोबारा देख लिया कीजिए, लाइव सुनने में बहुत सी बातें छूट जाती हैं.  पूरी दुनिया में महंगाई की सुनामी चल रही है. भारत में धर्म की कहानी चल रही है. दिसंबर तक छप्पड़ फाड़ महंगाई रहने वाली है, पता नहीं तब तक दरवाज़े खिड़कियां भी बचेंगी या वो भी उड़ जाएंगी.  महंगाई के सपोर्टरों के संपर्क में रहा कीजिए, महंगाई को भूलने का नैतिक साहस वही देंगे, हम तो बताकर ब्रेक ले लेंगे.