This Article is From Dec 24, 2021

रवीश कुमार का प्राइम टाइम : ‘ वो’ क्या चीज़ थी जो इस साल भारत ने खो दी

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Ravish Kumar

नमस्कार मैं रवीश कुमार...यह साल ख़त्म हो रहा है, ख़त्म होने से पहले हमारे भीतर का बहुत कुछ ख़त्म करके जा रहा है. इसे ख़त्म करने के लिए आप लोग साल भर इतनी मेहनत करेंगे, इसका अंदाज़ा नहीं था, मगर इसका तो है तो आने वाले दिनों में इसे पूरी तरह ख़त्म करने में थोड़ी और मेहनत करेंगे.जिस चीज़ को ख़त्म करने के लिए इस देश ने मेहनत की है उसका एक नाम भी है लेकिन नाम का ज़िक्र अभी नहीं. 2022 में किसानों की आमदनी दोगुनी तो नहीं होगी लेकिन ‘वो' चीज़ जिसका हम अभी नाम नहीं ले रहे हैं, दोगुनी रफ़्तार से ख़त्म होने वाली है. थोड़ी देर के बाद उस ‘वो' का नाम हम बताएंगे.  

दिल लगाइये मगर दिमाग़ नहीं. थाली बजाइये कि भारत में एक नई जनता का जन्म हुआ है. इसका नाम लाभार्थी है. इस लाभार्थी का जन्म प्रधानमंत्री की सभाओं में रिक्त स्थानों की पूर्ति के लिए हुआ है ताकि कुर्सियां ख़ाली न रह जाएं.जिस किसी को एक किलो नून, एक किलो तेल, एक किलो दाल, एक सिलेंडर मिला है वह लाभार्थी है. रैली में उसका भी स्वागत है जिसे कुछ नहीं मिला है जो अ-लाभार्थी है.लाभार्थी ख़ुद से नहीं आता. उसे लाभ देने वाले सरकारी विभाग के सरकारी कर्मचारी घर-घर से बुलवाते हैं ताकि सबसे बड़े सरकार का भाषण सुन सकें. लाभार्थी सरकार का वह विद्यार्थी है जिसे अब प्रधानमंत्री की हर रैली को कक्षा समझ कर उपस्थित होना ही पड़ता है. लेकिन यहां वो लाभार्थी नहीं है जिसे लाखों करोड़ की टैक्स और लोन में छूट मिलती है. एक किलो नून के लाभार्थी रैलियों में बुलाए जा रहे हैं, एक लाख करोड़ के लाभार्थी मालदीव और मिलान में क्रिसमस की छुट्टी मना रहे हैं. इन सभी को वहां से उठवाकर मऊनाथ भंजन की रैली में बिठाना चाहिए ताकि ये एक किलो तेल वाले लाभार्थी के साथ बैठ कर प्रधानमंत्री का भाषण सुन सकें. ग़रीब लाभार्थी को पता चले कि जब वह अमीर होगा तो उसे भी एक लाख करोड़ का लाभ मिलेगा. फिलहाल एक किलो तेल के लाभ को ही अपना नसीब समझें. अच्छी बात है कि लोगों में वो नहीं है वरना वे लाभ के खेल को समझ जाते. वो का नाम अभी नहीं बताएंगे.

इस साल उस जनता का दीदार नहीं हुआ जिसकी खोज 2020 में की गई थी लगता है मेरी किसी बात का बुरा मान गई. जिस तरह से प्रधानमंत्री के कार्यक्रमों के लिए लाभार्थी की खोज की गई, उसी तरह से इसकी खोज भी प्रधानमंत्री ने ही की. बस इस श्रेणी की जनता का नामकरण नहीं हुआ. लाभार्थी से प्रेरित होकर मैंने इनका नाम बाजार्थी रखा है.

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बाजार्थी भी एक प्रकार का वैचारिक लाभार्थी है जो पहले छुपा हुआ था लेकिन एक साल पहले अपनी अपनी बालकनी में आ गया ताकि सब एक दूसरे को ख़बर कर सकें कि उसके जैसा दूसरा किस बालकनी में रहता है. कुछ पहचान अधूरी रह गई होगी इसलिए उस साल इस जनता से कहा कि अब दीया भी जलाकर दिखाओ. सब उस दीये की रौशनी में एक दूसरे को देख सकें कि वह अकेले नहीं है, उनके जैसे और भी हैं जिनके पास वो नहीं है, ये वो वही है जिसका नाम अभी नहीं लेना चाहता. आज भी मैं किसी अपार्टमेंट के नीचे से गुज़रता हूं तो थाली की आवाज़ सुनाई देती है. वो के नहीं होने का इससे बड़ा सैंपल सर्वे दुनिया में नहीं हुआ था. अगर इन लोगों ने वो के खत्म होने का परिचय नहीं दिया होता तो 2021 में आपको महंगाई के सपोर्टर नहीं मिले होते. 

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“हम लोग एडजेस्टमेंट कहां कर रहे हैं हम लोग मिडिल क्लास के लोग हैं लोग हमेशा सब चीजों में जीते हैं ताली बजाई थी थाली बजाई थी उसी का भोग रहे हैं न ताली रह गई ना थाली रह गई और वैसे भी अब दिवाला निकलने वाला है सब चीज ऐसी ही चलती रहेगी सिलेंडर 1000 हो गया तब भी हम घर में खाना बनाएंगे मोदी जी को क्या है योगी जी को क्या है क्या हमेशा रहेगी और हम मिडिल क्लास लोग इसको ऐसे ही झेलते रहेंगे”

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ये वही बाजार्थी हैं जिन्होने थाली बजाई थी. इन्हें सुनकर तो मैं डर ही गया कि कहीं लोगों में उस ‘वो' की वापसी तो नहीं हो रही है. आप सोच रहे होंगे कि ये  ‘वो' कौन है, जिसका नाम नहीं बता रहा. कहीं ये ‘वो' व से तो नहीं है. विरासत और विकास तो पक्का नहीं है. तो फिर क्या है. who is this wo. Do you get my point. मैं आश्वस्त था कि भारत से वो चला गया है लेकिन चार दिन पहले जब मैंने एक वीडियो देखा तो डर गया. बाजार्थी बदल गए थे. वे बाजा लौटा रहे थे. समस्त कसमों में श्रेष्ठ कसम विद्या कसम खाकर कहता हूं मुझे वाकई लगा था कि कहीं ‘वो' लौट तो नहीं आया है.

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ये दिल्ली के रेजिडेंट डॉक्टर हैं जो थाली बजा रहे हैं. डेढ़ साल पहले सरकार ने कहा कि इन डाक्टरों के लिए थाली बजाइये. जनता ने बजाकर साबित कर दिया कि उसके पास ‘वो' नहीं है. अब यही डाक्टर थाली बजाकर थाली की ध्वनि लौटा रहे हैं. घर वापसी सुना था मगर ध्वनि वापसी पहली बार आप भी देख रहे हैं. क्या इन डॉक्टरों में ‘वो' लौट आया है जिसका नाम नहीं लेना चाहता? ये रेज़िडेंट डॉक्टर हैं, कम से कम वेतन में लगातार तीस तीस घंटे काम करने के पढ़े लिखे उदाहरण हैं. ये चाहते हैं कि उनका हाथ बंटाने के लिए नए रेज़िडेंट डाक्टर भी जल्दी जल्दी आ जाएं जो कम से कम में अधिक से अधिक काम कर सकें. इसलिए नीट पीजी की काउंसलिंग को लेकर हड़ताल कर रहे हैं. इनका इस तरह थाली बजाना उन बाजार्थियों का भी अपमान है जिन्होंने थाली बजाकर साबित किया था कि उनके पास  ‘वो' नहीं है.

चिंता मत कीजिए. अगर लाभार्थी का महत्व है तो बाजार्थी का भी महत्व है. 1000 रुपये देकर बाजार्थी खोजे जा रहे हैं. भारत-भू में चर्चा आम हुई है कि जनवरी 2022 में 'व' से विरासत और 'व' से विकास वाले काशी में शंखवादन के लिए 'व' से विश्व रिकार्ड बनाया जाना है इसके लिए 'व' से विज्ञापन निकाला गया है कि 1001 शंख वादकों की आवश्यकता है. इन्हें एक हज़ार और एक प्रमाण पत्र दिया जाएगा. अब कोई शंख बजाने की प्रतियोगिता तो हो नहीं रही है लेकिन करीब 10 लाख खर्च कर विश्व रिकार्ड बना दिया जाएगा और हिन्दी अखबारों में रिकार्डतोड़ हेडलाइन छप भी जाएगी. इस विज्ञापन में 'व' से एक और चीज़ है. लिखा है स्थानीय वादकों को 'व' से वरीयता दी जाएगी. कलाकारों की जेब में कुछ भी जाए, हमारा उससे 'व' से विरोध नहीं है, हमारा फोकस उस ‘वो' पर है जिसका नाम अभी नहीं लेंगे.

'व' से विश्वास है कि इन डमरू वादकों को भी भुगतान हुआ होगा, विकास से भरे इस दौर में इनसे मुफ्त काम करा कर इनसे 'व' से वड़क्कम नहीं किया होगा.अगर विश्व रिकार्ड के लिए पैसे दिए जा सकते हैं तो इन डमरू वादकों को भी कुछ दिया जाना चाहिए.सरकारी कार्यक्रम टीवी सीरियल 'सास भी कभी बहू से' आगे निकल चुके हैं. बस इनका बजट ज्ञात नहीं है. मैं इन्हें बाजार्थी से एक डिग्री उच्च वादार्थी कहना चाहता हूं. तो इस तरह लाभार्थी, बाजार्थी और वादार्थी तीन प्रकार की जनता से आपका परिचय होता है.

मुझे पता है कि आज आप कुछ नोटिस कर रहे हैं, आपका ध्यान मुझ पर है लेकिन मैं चाहता हूं कि आपका ध्यान आज के कार्यक्रम पर ही रहे. बेशक मुझे किसी से प्रेरणा मिली है कि मैं भी एक ही शो में घर के सारे कपड़े पहन कर आ जाऊं. किनसे मिली है मैं नहीं बताना चाहता.क्योंकि हम आज उस ‘वो' पर बात कर रहे हैं जो कभी आता दिखता है, कभी जाता दिखता है. ‘वो'का नाम थोड़ी देर में बताएंगे.

प्रधानमंत्री इन तस्वीरों में शाम के वक्त कोरोना की तीसरी लहर को लेकर गंभीर बैठक कर रहे हैं. वॉर रुम यानी युद्ध कक्ष का निर्माण करने को कहा जा रहा है और रात के वक्त कर्फ्यू लगाने के आदेश दिए जा चुके हैं. शाम के वक्त की इस बैठक से आप कोरोना की तीसरी लहर को लेकर आश्वस्त हो सकते हैं कि सरकार गंभीर है 

लेकिन इसी शाम से पहले जब दोपहर और उससे पहले सुबह हुई थी तो प्रधानमंत्री वाराणसी में पब्लिक मीटिंग कर रहे थे. जैसे कोरोना ने ट्विट किया हो कि सारी इंडिया में दिन में नहीं आ सकूंगा और बनारस की रैली में तो जाने का बिल्कुल इरादा नहीं है. मैं रात में थोड़ा घूमना चाहता हूं तो प्लीज़ आप कर्फ्यू लगा दें ताकि मैं अकेला घूम सकूं. अगर लोगों के पास ‘वो' होता तो पूछते कि शादी में दो सौ से अधिक लोग नहीं आ सकते हैं और यहां रैलियों में लाभार्थियों को घर घर से बुलवाया जा रहा है. कहीं कोरोना बाराती तो नहीं बन गया है जो शादियों को नहीं छोड़ता है मगर रैलियों को छोड़ देता है.

भारत वो मुक्त हो रहा है. चिन्ता मत कीजिए यह ‘वो' भी व से ही है जैसे विरासत और विकास है. दिल है तो थामे रहिए. मुझे पता है ‘वो' तो है नहीं. तभी तो केंद्र सरकार और यूपी सरकार ने कह दिया कि कोरोना की दूसरी लहर में ऑक्‍सीजन की कमी से  कोई नहीं मरा.और भी सरकारों ने कहा है कि आक्सीजन की कमी से कोई नहीं मरा है. उसके कुछ ही दिन बाद इस देश की राजधानी को बंद करना पड़ा क्योंकि उसकी हवा में आक्सीजन ही नहीं था. सिर्फ़ कार्बन monoxide था.

बहरहाल ये वीडियो रेल मंत्री ने इस साल ट्वीट किया था. एक नार्मल मालगाड़ी पर ऑक्‍सीजन का कटेंनर लाद कर उसका नाम ऑक्सीजन एक्सप्रेस कर दिया गया. हेडलाइन छपने लगी.जब ऑक्सीजन की कमी नहीं थी तो आक्सीजन एक्सप्रेस क्यों दौड़ रही थी. दूसरे देशों से आक्सीजन ले जाने के लिए कंटेनर क्यों मंगाए जा रहे थे.

वायुसेना के विमान से उतरते इन कंटेनरों में सेना पर भी ज़ोर दिया जा रहा था कि सेना को उतार दिया गया है. आदेश दिए जा रहे थे कि हाईवे के नाकों पर पुलिस आक्सीजन कटेंनर लेकर जा रहे ट्रक ट्राली किसी चीज़ को न रोके. ताकि जल्दी जल्दी आक्सीजन पहुंचे. फिर आम लोग आक्सीजन लंगर क्यों लगा रहे थे, आक्सीजन की कमी नहीं थी तो तेज़ गर्मी में तेज़ बुखार में सड़क पर ये लोग आक्सीजन क्यों ले रहे थे?

जब लोग मर गए, मरने वालों का कोई हाल नहीं पूछा, अप्रैल और मई में लोग आक्सीजन की कमी से मरते रहे लेकिन सरकार ने आक्सीजन की कमी से इंकार कर दिया. फिर वही सरकार जगह जगह पर आक्सीजन प्लांट का उदघाटन भी करने लगी. जब प्लांट ही वहां नहीं था तो आक्सीजन की कमी कैसे नहीं थी. अक्‍टूबर में प्रधानमंत्री ने उत्तराखंड से 35 आक्सीजन प्लांटों का लोकार्पण किया. तीसरी लहर की तैयारी हो रही है तो दूसरी लहर में ऐसी तैयारी क्यों नहीं थी? यह तस्वीर भी उसी मंत्री की है जिसे इस्तीफा मांगा जा रहा है, जिनके बेटे पर हत्या का मुकदमा दर्ज है. लखीमपुर खीरी में आक्सीजन प्लांट का उदघाटन करके निकले ही थे कि पत्रकारों का आक्सीजन बंद करने लगे. धकियाने धमकाने लगे.

ठीक है कि आपके पास वो नहीं है लेकिन आप सोच तो सकते हैं कि जब आक्सीजन की सप्लाई के लिए कटेंनर नहीं था तो कटेंनर सऊदी अरब से क्यों आ रहा था? आक्सीजन की कमी नहीं थी तो उसकी सप्लाई के लिए आक्सीजन एक्सप्रेस क्यों चल रहा था? आक्सीजन की कमी नहीं थी तो इंडस्ट्रियल आक्सीजन के इस्तमाल के आदेश क्यों दिए जा रहे थे? आप भूल गए अपनों को जो अस्पताल के भीतर और बाहर तड़प तड़प कर मरे. आप भूल गए उन खबरों को जिनमें अस्पताल के मालिक ट्विट कर रहे थे कि उनके पास चंद घंटे के आक्सीजन बचे हैं.

2021 का साल उस ‘वो' की कुछ और समाप्ति का साल है जिसे 2022 में आप सभी को पूरी तरह से समाप्त करना है. तभी तो आपके सामने लोग आक्सीजन सिलेंडर की कमी से मरे और आपके सामने कहा गया कि आक्सीजन की कमी से कोई नहीं मरा. अगर आपके पास ‘वो' होता तो क्या इसे मान लेते. ये ‘वो' क्या है,आगे बताऊंगा.  इस साल का सबसे बड़ा सच सबसे बड़ा झूठ बन गया.आक्सीजन उस सच का नाम है जो अब झूठ में बदल गया है. इस पूरे साल को अगर कोई एक शब्द परिभाषित करता है तो वो आक्सीजन है. 2020 में भी आक्सीजन का संकट हुआ था तब टेंडर निकाला गया, आक्सीजन की सप्लाई का काम प्रधानमंत्री कार्यलय की एक उच्च स्तरीय कमेटी देखने लगी थी लेकिन जब संकट आया तो वह कमेटी कभी सामने नहीं आई. संसद की कमेटी चेतावनी दे रही थी कि आक्सीजन की सप्लाई ठीक करें मगर जब दूसरी लहर आई तो लोग समय पर आक्सीजन न मिलने के कारण  मरने लगे. 15 अप्रैल 2021 को PIB ने एक प्रेस रिलीज में बताया कि PMO के तहत बने 

“empowered group 2 ने गृह मंत्रालय को पीएसए प्लांट्स स्थापित करने की मंजूरी देने पर विचार करने के लिए दूर-दराज के क्षेत्रों में 100 अन्य अस्पतालों की पहचान करने का निर्देश दिया है.”

11 मई 2021 को PIB की एक और रिलीज़ आती है. इसके अनुसार कैबिनेट सचिव राजीव गौबा बताते हैं कि पिछले साल सितंबर से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तरल आक्सीजन की आपूर्ति और उत्पादन को लेकर स्वदेशी उद्योगों के साथ संपर्क में थे. इसके परिवहन को लेकर कई तरह की दिक्कतों को दूर करने में मदद की. सितंबर 2020 में कोरोना के केस बढ़ने के कारण लिक्विड आक्सीजन को लेकर संकट हुआ था और हमने उत्पादन बढ़ाने पर ज़ोर दिया था. 

प्राइम टाइम के पुराने एपिसोड का हिस्सा है. आप ऑक्सीजन पर हमारे सारे शो देख सकते हैं.मीडिया में तमाम जगहों पर छपी इससे हर बड़ी लापरवाही को हमने उसमें शामिल किया है.प्रधानमंत्री ने कभी इसका जवाब नही् दिया कि उनके कार्यालय की कमेटी जब आक्सीजन का काम देख रही थी तो आक्सीजन की सप्लाई के लिए हम कटेंनर क्यों ढूंढ रहे थे वो भी तब जब लोग मरने लगे 

23 अप्रैल को हरकिशन शर्मा इंडियन एक्‍सप्रेस  में रिपोर्ट में लिखते हैं कि अप्रैल 2020 में ही EG6 यानी एम्पावर्ड ग्रुप का गठन किया गया था. इस ग्रुप की बैठकों के मिनट्स के आधार पर हरकिशन शर्मा  रिपोर्ट लिख रहे हैं कि अप्रैल 2020 की बैठक में ही चेतावनी दे दी गई थी कि आने वाले दिनों में भारत को आक्सीजन की कमी का सामना करना पड़ सकता है. इस का मुकाबला करने के लिए CII, इंडियन गैस एसोसिएशन,डिपार्टमेंट फार प्रमोशन आफ इंडस्ट्री एंड ट्रेड DPIIT को मिलकर काम करने के लिए कहा गया था. इंडियन एक्सप्रेस के रिपोर्टर ने लिखा है कि जब CII और DPIIT से प्रतिक्रिया जाननी चाहिए तो कोई जवाब नहीं आया. 

25 नवंबर 2020 को राम गोपाल यादव की अध्यक्षता में स्टैंडिंग कमेटी की रिपोर्ट लोकसभा और राज्य सभा में पेश की जाती है जिसमें कहा जाता है कि ऑक्सीजन की सप्लाई व्यवस्था को ठीक करना होगा. अस्पतालों में बेड और वेंटिलेटर की व्यवस्था ठीक नहीं है. अब नवंबर आ चुका है. इसके बाद भी सरकार तैयारी का दावा करती है. 

आक्सीजन की कमी से कोई नहीं मरा. दरअसल लोग मरे तो ‘वो' की कमी से जिसे उन्होंने थाली बजाकर मारा था. फूल बरसाकर मारा था. वो क्या है अब बता ही दूंगा लेकिन उससे पहले हम इन लोगों की तारीफ करना चाहते हैं जिन्होंने आक्सीजन का इंतज़ार नहीं किया. 

आत्मनिर्भर भारत का यह गांव जिसका नाम नोबरी है, आगरा ज़िले में पड़ता है. इस साल जब आक्सीजन की कमी हुई तो गांव के लोग पीपल के पेड़ के नीचे आसन लगाकर बैठ गए कि ऑक्सीजन की सप्लाई यहां होती है. ये भाई साहब थोड़ा समझदार थे ये खटिया लेकर सीधा पीपल की तनाओ के बीच जाकर बस गए कि और क्लोज़ होकर करीब होकर ऑक्सीजन लिया जाए. इन लोगों को पता था कि जब भारत में ही ‘वो' नहीं है तो इनमें ‘वो' कैसे हो सकता है. बस अब इस ‘वो' का नाम बता ही दूंगा. 'व' से विरासत की बात करने वाली सरकार आक्सीजन एक्सप्रेस चला रही थी लेकिन पीपल के पास आक्सीजन का भंडार है लास्ट मिनट में भूल गई. वर्ना अस्पतालों में भर्ती सारे मरीज़ों से आक्सीजन सिलेंडर हटाकर उन्हें पीपल के पेड़ के नीचे छोड़ सकती थी. सबको मुफ्त में आक्सीज मिल जाता. गाय गोबर का मज़ाक उड़ाने वाले यह नहीं समझ पाए कि भारत दुनिया को क्या दे सकता है. सात साल से प्रधानमंत्री मोदी और 18 साल से शिवराज सिंह चौहान अगर वो व्यवस्था बना पाते तो आज भारत की अर्थव्यव्था कहां से कहां होती है. बस वो प्रापर सिस्टम एक बार मिल जाए बन जाए. 

इस साल के उन महीनों को याद करना, उस सच का सामना करना है जिसकी क्षमता लोगों ने खो दी है. धर्म की राजनीति ने उस ‘वो' को इतना भ्रष्ट कर दिया है, जिसका नाम अभी नहीं लेना चाहता. क्या आप वाकई जानना चाहते हैं कि हम आज किस वो की बात कर रहे हैं. 

ऑक्सीजन अगर कहीं बचा था तो यहां बचा था. इन किसानों के बीच. जिन्होंने सरकार और गोदी मीडिया के कार्बन monoxide से भरे झूठ का मुकाबला किया उस हवा में सांस लेना सिखाया जिसमें आक्सीजन नहीं था.हमारे किसान अपना आक्सीजन लेकर आए थे, इस साल और इस देश के लोकतंत्र को आक्सीजन दे गए. कानून की वापसी हो गई. वो लौट गए.

इस एक साल में वो इतनी तेज़ी से ख़त्म हो रहा था कि यकीन करना मुश्किल हो रहा था. महंगाई लोगों के कुर्ते फाड़ रही थी और नेता जी सौ सौ कुर्ते पहन रहे थे. पेट्रोल डीजल के दाम 110 रुपये से अधिक हो गए. एक बार संदेह हुआ कि अब जनता का ‘वो' लौट आएगा लेकिन लोगों ने मेहनत की और उस ‘वो' को नहीं लौटने दिया. इसी मेहनत का नतीजा था कि भारत को इस साल लाभार्थी और बाजार्थी के बाद जनता की एक और कैटगरी मिली. महंगाई के सपोर्टर.  
(महंगाई के सपोर्टरों के तर्क, आगरा और बनारस से लेकिन फ्लो वाला होना चाहिए भले एक ही जगह का हो बेस्ट वाले निकालना इन बहुत ड्रैग नहीं करना चाहिए, केवल भक्त के लगेंगे)

'व' से विश्व गुरु भारत की सबसे बड़ी देन है. महंगाई के सपोर्टर. दरअसल चिन्ता की बात यही है कि अगले साल कहीं वो लौट आया तो क्या होगा. जिसे खत्म करने के लिए आप सभी ने 2020,2021 में इतनी मेहनत की. यह वो कुछ नहीं हमारा आपका विवेक है. 2022उस विवेक को कुछ और ख़त्म करेगा या उसकी वापसी करेगा, यह आप पर निर्भर करता है. अंतरात्मा की आवाज़ तो रही नहीं, लेकिन एक आवाज़ है जिसने खुद को शब्दों में दर्ज नहीं किया. 

आप सभी को मेरी क्रिसमस और नए साल की शुभकामनाएं. यही दुआ है कि इस मुल्क की सेहत ठीक रहे और उसका विवेक दुरुस्त. (add clothes photo) इस एक एपिसोड में मैंने कितने कपड़े बदले, गिन कर बताइयेगा (photo out) ताकि आपमें उनके कपड़े गिनने का विवेक जाग सके और आप यह देख सकें कि कपड़े बदलने से, किसी आयोजन को भव्य बनाने से, एक तरह की सनक का जन्म होता है और सारी कोशिश खुद पर ध्यान केंद्रित करने की होती है. टेलिविज़न में सिखाया गया था कि कपड़े सादे हों ताकि दर्शक की नज़र कपड़े पर नहीं ख़बर पर हो. टीवी में ख़बर नहीं है इसलिए ख़ूब सारे रंगों के स्क्रीन हैं. सिनेमा सीरीयल में कहानी नहीं है तो संगीत का शोर है. हमारी राजनीति और राजनेता अपने कपड़ों पर ज़्यादा ध्यान दे रहे हैं, आपकी हालत पर कम. उनके पास नया दिखाने के लिए नए ईवेंट और नए कपडों के अलावा कुछ नहीं है. 

इस देश का यह साल मौत और मातम में गुजरा है. इसलिए सरकारी कार्यक्रमों में सादा होने की उम्मीद थी, कुछ कम भव्य होने की उम्मीद थी. लेकिन सरकारी कार्यक्रम भव्य से भव्यतम हो गए. प्रधानमंत्री के कार्यक्म आलीशान होने लगे. शाही होने लगे. पैसों की कोई कमी नहीं थी. प्रधानमंत्री साल भर नए नए कपड़ों में तरो ताज़ा नज़र आए. जैसे आपका यह ऐंकर आज नज़र आया. प्राइम टाइम में अब मुलाकात अगले साल होगी लेकिन हम नहीं जानते कि अगले साल किस भारत में मुलाकात होगी. विवेकवान भारत में या विवेकहीन भारत में. ब्रेक ले लीजिए. 

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