This Article is From Nov 09, 2021

क्या पुलिस को बताना पड़ेगा FIR कैसे लिखें, जांच कैसे करें?

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Ravish Kumar

पुलिस व्यवस्था की हालत इस स्तर पर आ गई है कि हत्या के सामान्य से मामले की जांच भी सुप्रीम कोर्ट के सामने खरी नहीं उतर रही है. चीफ जस्टिस को बताना पड़ रहा है कि FIR का मतलब क्या होता है और किन बातों की जांच की जानी चाहिए. हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां भी रुटीन होती जा रही हैं, ऐसा लगता है कि पुलिस तैयार होकर कोर्ट आती है कि आज सुनने को मिलेगा तो सुन लिया जाएगा. एक दिन की बात है, अखबारों और चैनलों में ख़बरें बदल जाएंगी और फिर वापस सब कुछ उसी ढर्रे पर चलता रहेगा. ख़बरों को बदलने से रोक नहीं सकते लेकिन उनकी आड़ में सिस्टम अपने आप को नहीं बदलने का बहाना खोज लेता है.

बहुत से बहुत अख़बारों में लखीमपुरी खीरी मामले में सुप्रीम कोर्ट की फटकार को इस तरह से छापा गया होगा, क्या यह कोई सामान्य टिप्पणी है? संवैधानिक नैतिकता का बोध अगर प्रशासन में होता तो इतनी ख़राब रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट के सामने पेश नहीं की जाती और की जाती तो छोटे से लेकर बड़े अधिकारी तक के ख़िलाफ़ कार्रवाई हो जाती. लेकिन सब कुछ यथावत है. एक दिन अदालत को ही बताना चाहिए कि उसकी इन फटकारों से पुलिस व्यवस्था में क्या सुधार आया? वर्ना ऐसी हेडलाइन पाठक और पुलिस दोनों के लिए रुटीन हो जाएगी और जिसके साथ अत्याचार होगा उसे न्याय नहीं मिलेगा.

यूपी पुलिस को पता है कि लखीमपुर खीरी केस की जांच पर सुप्रीम कोर्ट की नज़र है, इसके बाद इतनी ख़राब रिपोर्ट लेकर वह पेश होने जाती है. इसका मतलब है पुलिस को कोर्ट की डांट से शर्मिंदगी नहीं होती है. सुप्रीम कोर्ट की फटकार का क्या इतना ही असर होगा कि जांच रिपोर्ट में कुछ लाइनें और जोड़ दी जाएंगी या फिर जांच को लेकर पुलिस पेशेवर होने का प्रयास भी करेगी.

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इस वीडियो को आप कितनी बार देख चुके हैं, क्या पता यह वीडियो न होता तो किसानों की हत्या के बाद पता ही नहीं चलता कि किसने की. इस वीडियो के होने के बाद भी अगर बचाने के प्रयास हो रहे हैं तो क्या यह माना जाए कि बिना सुप्रीम कोर्ट की निगरानी के पुलिस जांच करना भूल गई है? आईपीएस बनने के बाद अखबारों में देश के लिए कुछ करने और जनता की सेवा करने की बात कर अपनी कहानी छपवाने वाले अफसरों ने क्या स्टेटस रिपोर्ट को एक बार भी ठीक से नहीं पढ़ा होगा कि सुप्रीम कोर्ट के जज देखेंगे तो क्या कहेंगे. इतने साल की सेवा में क्या उन्हें इसी तरह की रिपोर्ट लिखनी आई कि अदालत को कहना पड़े कि यूपी पुलिस की स्टेटस रिपोर्ट में कुछ नहीं है. कोर्ट को बताना पड़ रहा है कि केवल गवाही हो रही है. नई स्टेटस रिपोर्ट पर भी सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया कि इसमें नया कुछ नहीं है. दस दिन का समय दिया लेकिन फोरेंसिक लैब की रिपोर्ट नहीं आई है. आशीष मिश्रा का ही मोबाइल मिला है, बाकी आरोपियों के मोबाइल का क्या हुआ. मोबाइल टावर और मोबाइल डेटा का क्या हुआ. क्या यह कोई ऐसा सवाल है जो यूपी पुलिस को नहीं मालूम होगा, क्या इस बुनियादी बात के जवाब के साथ अदालत के सामने नहीं पेश होना था? भारत के मुख्य न्यायाधीश को अगर ये कहना पड़े कि सेल टावरों के माध्यम से आप पहचान सकते हैं कि क्षेत्र में कौन से मोबाइल एक्टिव थे, तो कम से कम उम्मीद की जानी चाहिए कि पुलिस के भीतर किसी को शर्म आई होगी. जस्टिस सूर्यकांत को कहना पड़ा कि हमें यह कहते हुए दुख हो रहा है कि प्रथम दृष्टया ऐसा लगता है कि एक विशेष आरोपी को 2 एफआईआर को ओवरलैप करके लाभ दिया जा रहा है. दो FIR की एक ही जांच कैसे हो सकती है. लखीमपुर खीरी मामले का वीडियो सबने देखा है तब यह हाल है कि देश की सर्वोच्च अदालत कह रही है कि किसी विशेष आरोपी को बचाने का प्रयास हो रहा है.

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लखीमपुरी खीरी केस को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा वो सामान्य लापरवाहियों की तरफ इशारा नहीं है, कोर्ट की टिप्पणी बता रही है कि पुलिस सिस्टम कितना बेपरवाह हो चुका है. यूपी की पुलिस खुद को इन सब फटकारों के लिए अभ्यस्त कर चुकी है. पहले दिन से यूपी की पुलिस लखीमपुरी केस में फटकार ही सुन रही है.

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ऐसा नहीं लगता है कि पुलिस कोर्ट से अपने काम की पेशेवर तारीफ चाहती हो. फटकार सुनने आती है और सुनकर चली जाती है. अगर कोर्ट दखल नहीं देता तो आशीष मिश्रा शायद ही गिरफ्तार होता और हथियारों की फोरेंसिक जांच होती. क्या अफसरों को नहीं लगता होगा कि सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठा दिया है? उनकी पेशेवर क्षमता पर सवाल है? कोर्ट को कहना पड़ रहा है कि हाईकोर्ट के रिटायर जज से जांच की निगरानी कराते हैं.

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ये हालत हो गई है पुलिस की. क्या अब भारत के मुख्य न्यायधीश को यह भी बताना होगा कि FIR लिखने और जांच कैसे की जाए? पुलिस महकमे में क्या कोई ऐसा नहीं बचा है जिसे ख़राब लगा हो कि उनकी जांच पर कोर्ट ने बेसिक सवाल उठा दिए. इस केस में आरोपी के पिता केंद्रीय गृह मंत्री हैं. क्या इतना काफी नहीं है कि केंद्रीय गृह मंत्री को बर्खास्त कर दिया जाए या इस्तीफा हो. सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों से तमाम आशंकाएं सही ही साबित हो रही हैं कि लखीमपुरी केस में अजय मिश्रा के मंत्री रहते क्या होने वाला है.

किसानों को शुरू से आशंका थी कि मंत्री के पद पर रहते जांच सही तरीके से नहीं होगी. सुप्रीम कोर्ट की फटकार से लगता है कि अजय मिश्रा मंत्री न भी रहें तब भी पुलिस को कुछ फर्क नहीं पड़ेगा. उनकी पार्टी की सरकार तो रहेगी. इन टिप्पणियों से संदेश ऐसे जा रहा है कि पुलिस राजनीतिक कार्यकर्ता बन गई है. फिर पुलिस की ज़रूरत ही क्या रह जाएगी?

क्या यह बेहतर नहीं होगा कि पुलिस जब राजनीतिक दल के कार्यकर्ता की तरह काम कर रही रही है तो कार्यकर्ताओं को ही पुलिस बना दिया जाए. पुलिस को खत्म कर दिया जाए. सरकार कानून बनाए और लिखे कि जिसकी सरकार आएगी, उसके कार्यकर्ताओं की पुलिस बनेगी.

जो लोग कुर्सी पर बैठकर अपनी कुर्सी को बचाने के लिए कार्यकर्ता बनते हैं इससे तो बेहरत है कि जो कार्यकर्ता हैं, जिनकी वजह से किसी की कुर्सी बच रही है, सीधे वही कार्यकर्ता कुर्सी पर बिठाए जाएं. कार्यकर्ता पुलिस, पुलिस विभाग की कुर्सी, मेज़, टेबल, फोन, जेल, गाड़ी, सब पर कब्ज़ा कर लेंगे और वही चलाएंग. इस तरह भारत दुनिया का पहला देश होगा जहां कार्यकर्ताओं की पुलिस होग. पारंपरिक पुलिस नहीं होगी. ऐसे भी राजनीतिक दल के कार्यकर्ता पुलिस का काम करने भी लगे हैं, मज़हब के हिसाब से किसी समुदाय को कहां अराधना करनी चाहिए, क्या खाना चाहिए, किससे शादी करनी चाहिए, तो क्यों न हम औपचारिक रूप से कार्यकर्ताओं की पुलिस ही बना दें. मैंने तो कार्यकर्ता पुलिस के लिए विशेष झंडा भी सोच रखा है जिस पर उंगली के निशान होंगे मतलब जैसा ये कार्यकर्ता पुलिस कहेगी वैसा ही सबको करना होगा. अपने दल से जुड़े कार्यकर्ताओं को बचाने का काम कार्यकर्ता पुलिस ज़्यादा बेहतर तरीके से करेंगे और बचाने के लिए नैतिक रूप से लैस भी होंगे. इससे एक और झंझट से मुक्ति मिलेगी. गुप्तेश्वर पांडे जैसे अधिकारी पुलिस प्रमुख के पद से रिटायर होकर राजनीति में जाते हैं, वो बंद हो जाए. जो राजनीति में पहले से हैं उन्हें ही पुलिस और पुलिस प्रमुख बनने का मौका मिलेगा.

नया भारत बिल्कुल नया होना चाहिए और वो ऐसे ही नया होगा. पुलिस सुधार को लेकर बरसों बहस चली और सुधार के नाम पर हमें जो पुलिस मिली है उसके पास फंसाने और बचाने के सौ तरीके हैं. या तो आप राजनीतिक आधार पर चपेट में आ जाएं या फिर किसी मामले में. एक बार चपेट में आ गए तो पुलिस आपको चट कर जाएगी.

आइडिया नंबर टू यह है कि कार्यकर्ता पुलिस की स्थापना के बाद थानों का विभाजन किया जाएगा. एक ही थाने में फंसाने, बचाने और मामले में लटकाने का काम नहीं होगा. फंसाने के लिए अलग से थाना होगा जहां किसी को भी फंसाया जा सकता है. कुछ हफ्तों और कुछ महीने जेल में रखकर अदालतों के चक्कर लगावाए जाएंगे. दूसरा थाना होगा बचाने का थाना. राजनीतिक आका के लोग या प्रभावशाली या जो पैसा देगा उसे बचाने का काम इस अलग थाने में होगा. तीसरा थाना होगा लटकाने का थाना. अगर गलती से सबूत वगैरह मिल भी जाएं तो मामले को लटकाने का काम इस थाने में किया जाएगा. तीनों प्रकार के थाने गूगल मैप से जुड़े होंगे ताकि लोगों को तुरंत ही पता चल जाएगा कि कौन सा वाला थाना सबसे नज़दीक है. फंसाने वाला या बचाने वाला.

मुझे पता है आपके दिमाग़ में भी एक आइडिया आया होगा कि वसूली के हिसाब से मैंने थाना नहीं बनाया. आप गलत सोच रहे हैं. कार्यकर्ता पुलिस के दौर में हर थाने में वसूली का अलग काउंटर होगा. वसूली का थाना बनेगा तो फंसाने और बचाने वाले थाने की कार्यकर्ता पुलिस को फंसाने और बचाने के बदले कुछ मिलेगा ही नहीं. जो पुलिस हत्या के सामान्य से मामले में सुप्रीम कोर्ट के सामने अपने पेशेवर काम को पेश नहीं कर सकती वह पुलिस आम लोगों को आतंक से लेकर अपराध के मामले में क्या करती होगी, उसके एनकाउंटरों को हम आंख मूंद कर सही मान लेते हैं. एक और कहानी बताता हूं.

ये दिल्ली है... यहां ग़ैर कानूनी काम न करे यूपी पुलिस. दिल्ली हाई कोर्ट की ये टिप्पणी है. कानून का काम करने वाली पुलिस गैर कानूनी काम भी करती है. इसी खबर में कोर्ट की एक और टिप्पणी है. यूपी में चलता होगा, यहां नहीं. दो प्रेमियों ने शादी कर ली तो यूपी पुलिस ने लड़के के पिता और भाई को गिरफ्तार कर लिया. दिल्ली के रहने वाले थे, गिरफ्तार कर ले भी गई और दिल्ली पुलिस को सूचित नहीं किया. डेढ़ महीने से जब भाई और पिता का पता नहीं चला तो यह जोड़ा कोर्ट की शरण में पहुंचा कि अपनी मर्जी से शादी की है लेकिन यूपी की पुलिस भाई और पिता को उठा ले गई है. जस्टिस मुक्ता गुप्ता ने कहा कि यहां दिल्ली में इसकी अनुमति नहीं दी जाएगी. आप यहां अवैध काम नहीं कर सकते. कोई आपके पास आता है और आप उसकी उम्र की पुष्टि किए बिना गिरफ्तारी करने लगते हैं? चाहे वह नाबालिग हो या बालिग? कोर्ट ने एसएचओ, पुलिस थाना, शामली को केस फाइल के साथ व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने के लिए नोटिस जारी किया था.

भारत के चीफ जस्टिस यूपी पुलिस को बता रहे हैं कि दो FIR की जांच एक नहीं हो सकती है, जांच में क्या क्या होना चाहिए तो दूसरी तरफ दिल्ली हाईकोर्ट की जस्टिस मुक्ता गुप्ता यूपी पुलिस से कह रही हैं कि यदि एसएचओ और उसके जांच अधिकारी केस फाइल पढ़ना नहीं जानते तो मेरे पास कोई समाधान नहीं है. अगर सीसीटीवी फुटेज मिल गए और पता चला कि शामली पुलिस गिरफ्तारी के लिए दिल्ली आई थी तो विभागीय जांच के आदेश दिए जाएंगे. कोर्ट को अब ये सब कहना पड़ रहा है. यह कोई पहला मामला नहीं है.

सितंबर महीने में मैनपुरी में नवोदय विद्यालय के एक छात्र की संदिग्ध मौत का मामला सामने आया था. इस मामले में बयान लेकर अभियुक्तों को छोड़ देने से कोर्ट नाराज़ हो गया. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यूपी पुलिस के मुखिया डीजीपी मुकुल गोयल को दो दिन कोर्ट में बुलाया. सबके सामने FIR की कापी पढ़वाई और सवाल तक पूछे. कोर्ट ने उस समय के एसपी अजय शंकर के खिलाफ कार्रवाई नहीं होने पर भी नाराज़गी जताई. कोर्ट ने तो एसपी को ज़बरन रियाटर करने का आदेश दे दिया था.

इलाहाबाद हाई कोर्ट में पुलिस के प्रमुख को कोर्ट में बुलाकर FIR की कापी पढ़वाई गई, सुप्रीम कोर्ट में FIR की कापी पढ़ कर चीफ जस्टिस ग़लतियां निकाल रहे हैं, क्या इन बातों का कोई मतलब नहीं है? क्या हम नहीं देख पा रहे हैं कि तमाम दावों के बीच हमारी पुलिस किस तरह हो गई है? क्या सितंबर महीने में पुलिस प्रमुख को जो अपमान झेलना पड़ा उसका नवंबर महीने के स्टेटस रिपोर्ट में कुछ दिखा? ये है हमारी पुलिस. बात यूपी की कर रहा हूं लेकिन ये क्वालिटी केवल यूपी पुलिस की नहीं है. पुलिस अवैध काम भी करती है. हाईकोर्ट की जज की टिप्पणियों से किसी को तो शर्म आनी चाहिए.

इस रिपोर्ट का फारवर्ड सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस मदन बी लोकुर ने लिखा ह. इसे तैयार किया है कि Youth for Human Rights Documentation (YHRD), Citizens Against Hate (CAH) और People's Watch. मदन बी लोकुर ने नोबल पुरस्कार विजेता मारिया रेस्सा की एक टिप्पणी का उल्लेख किया है. बिना तथ्य के आप सत्य नहीं जान सकते और बिना सत्य के आप भरोसा नहीं कर सकते, और इन सबके बिना लोकतंत्र नहीं चल सकता. इस रिपोर्ट में यूपी पुलिस के 17 एनकाउंटर का अध्ययन किया गया है. इन सभी मामलों में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने जांच के आदेश दिए थे. जब तक आयोग जांच पूरी करता, एनकाउंटर के केस की संख्या 50 हो गई और तीन साल बाद 100 से अधिक लोग पुलिस एनकाउंटर में मारे गए. इस रिपोर्ट में लिखा है कि मानवाधिकार आयोग की जांच बिना किसी पर्याप्त जांच के बंद कर दी गई या तीन साल से जांच ही हो रही है. तमाम जगहों पर ये खबरें छपी हैं.

आप इन्हें टुकड़ों टुकड़ों में पढ़ते हैं, भूलते रहते हैं, क्योंकि सिस्टम ही बनाया गया है कि आप भूल जाएं, कल की जगह नई ख़बर खोजने लग जाएं. सिस्टम को पता है इसलिए वह खुद भी हर दिन नई ख़बरें पैदा कर देता है. इस तरह आप एक घटना से दूसरी घटना के बीच शिफ्ट होते रहते हैं और आपकी नज़रों को उलझा कर सिस्टम अपनी आदतों में पुराना होता जाता है, अपने गुनाहों में और शातिराना होता जाता है. कई बार न्यूज़ ही कवर-अप का ज़रिया बन जाता है. जो पुलिस हत्या के एक मामले में विश्वसनीय जांच नहीं कर सकती है उस पुलिस के एनकाउंटर के दावों पर बिना सवालों के क्या भरोसा किया जा सकता है? Youth for Human Rights Documentation, सिटिजन अगेंस्ट हेट और People's Watch की रिपोर्ट के अनुसार एनकाउंटर के 17 मामलों में एक भी मामले में पुलिस टीम के खिलाफ FIR नहीं हुई है. FIR 17 हैं, लेकिन सबमें एक ही तरह के हालात में पुलिस और अपराधी के बीच एनकाउंटर होता है. जिस थाने की पुलिस एनकाउंटर करती है उसी थाने की पुलिस जांच भी करती है. पांच शवों में बुलेट के निशान के चारों तरफ पुताई की गई है, निशान बनाए गए हैं ताकि लगे न कि नज़दीक से गोली मारी गई है. 17 एनकाउंटर में 280 पुलिस वाले शामिल थे लेकिन 20 को ही चोट लगी या गोली लगी. इनमें से 17 मामलों में देखा गया कि 15 मामलों में पुलिस को मामूली चोटें आई थीं.

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और प्रधानमंत्री मोदी अपने भाषणों में कानून व्यवस्था के राज का ज़िक्र ज़रूर करते हैं. माफिया खत्म हो गया, लूट-पाट खत्म हो गया लेकिन उसी पुलिस सिस्टम से जुड़ी इन ख़बरों और सवालों को आसानी से नज़रअंदाज़ भी कर देते हैं. योगी आदित्यनाथ अपने भाषणों में जिस तरीके से अपराधियों को दूसरे लोक में भेज देने का ज़िक्र करते हैं ऐसा लगता है कि एनकाउंटर ही इंसाफ का बेस्ट तरीका हो गया है. किसी भी वजह से एनकाउंटर को मान्यता देने वाला समाज एक दिन खुद ही पुलिस स्टेट से घिरा हुआ पाएगा.

भाषणों में अपराध खत्म हो चुका है, पुलिस व्यवस्था मुस्तैद हो चुकी है लेकिन आपको एक खबर के बारे में बताना चाहूंगा. मुरादनगर के भाजपा विधायक अजीत पाल त्यागी के भाई गिरीश त्यागी पर हत्या का आरोप लगा था. 14 महीने से विधायक का भाई फरार था. 14 महीने से. अपने ही मामा नरेश त्यागी की हत्या के आरोप में. 

14 महीने से नरेश त्यागी का परिवार यहां वहां भटकता रहा कि उनके पिता की हत्या के मामले में इंसाफ मिले. यूपी की पुलिस 14 महीने से विधायक के भाई को गिरफ्तार नहीं कर सकी. क्या इसलिए नहीं कर सकी कि गिरिश त्यागी बीजेपी विधायक के भाई हैं. चार चार बार कोर्ट ने आत्म समर्पण की तारीख दी. खबरों के अनुसार जब गिरीश त्यागी ने आत्म समर्पण किया तो 200 वकीलों के घेरे में कोर्ट के भीतर दाखिल हुआ. पुलिस पहले गिरफ्तार नहीं कर पाई. ऐसी खबरें आपकी नज़रों से गुज़रती नहीं हैं. जिन नरेश त्यागी की हत्या हुई उनके बेटे का आरोप छपा है कि जान को खतरा है. नरेश त्यागी के बेटे अभिषेक त्यागी का बयान कई दिनों से अखबारों में छपे जा रहा है.

इसलिए कहा कि लखीमपुर खीरी के मामले में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी एक मामले से संबंधित नहीं है उन मामलों से भी है जो सुप्रीम कोर्ट की नज़र में नहीं हैं. प्रधानमंत्री अगर प्राइम टाइम का यह एपिसोड ही देख लें तो यूपी की कानून व्यवस्था को लेकर उनका भाषण बदल जाएगा. उन्हें पता चलेगाा कि माफिया का रूप बदल गया है. मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री भाषण देकर चले जाएंगे और एनकाउंटर के मामलों में इंसाफ मांगने वाला वर्षों तक अदालतों के चक्कर लगाता रहेगा.

भाई वसूली के मामले में एक आईपीएस को खोज नहीं पा रही है. महोबा के इंद्रकांत त्रिपाठी के भाई असुरक्षित महसूस करने लगे हैं और आरोप लगा रहे हैं कि उन पर दबाव डाला जा रहा है। जो फरार है वो मौज में है, जिसके परिवार के सदस्य की हत्या हुई है वो डरा सहमा है. एक और हत्या की आशंका में जीते जी मरा जा रहा है.

फरार तो मुंबई के पुलिस कमिश्नर परमबिर सिंह भी है. इस सिस्टम ने एक अफसर को और एक अफसर ने इस सिस्टम को मिलकर कितना सड़ाया होगा कि पूरा जीवन IPS रहने के बाद फरार रहना पड़ रहा है. पुलिस को भी पुलिस से कुछ नहीं मिला.

इसलिए कहता हूं कि अदालत ने पुलिस को लेकर क्या टिप्पणी की, कितनी गंभीर टिप्पणी की इससे पुलिस पर कुछ फर्क नहीं पड़ता है. अगर अदालत को बुरा न लगे तो यह भी करके देख लें. पुलिस से ही पूछ ले कि अब आपकी इस करतूत पर क्या टिप्पणी की जाए, सौ शब्दों में लिख कर कोर्ट में जमा करें. ये हालत है पुलिस की. राज्य दर राज्य पुलिस की जांच का ये हाल है.

कभी इस तरह से खबरों को देखा या पढ़ा कीजिए. आपको पता चलेगा कि जिसे आप अपवाद मानते हैं वही नियम है. उसी नियम के तहत सिस्टम चल रहा है. हमने अक्तूबर और नवंबर में छपी यूपी पुलिस की खबरों को निकाला है. सिर्फ दो महीने की और पूरी खबरें हमने नहीं ली है. मैं इन खबरों को पढ़ूंगा, शायद पढ़ते पढ़ते थक जाऊंगा, आप बोर हो जाएंगे कि खत्म ही नहीं हो रही हैं.

सरकार को डेटा देना चाहिए कि हर साल कितने पुलिस वाले अपराध में लिप्त पाए गए हैं, अरेस्ट हुए हैं और अपराधी को फंसाने या बचाने के आरोप में निलंबित हुए हैं.

1. यह खबर आज की है. इंस्पेक्टर सहित 5 पर चलेगा मुकदमा, कस्टडी में महिला की हत्या का मुकदमा. मामला 2018 का है.
2. ये भी आज की खबर है, रामपुर से है. तत्कालीन गंज थाना प्रभारी समेत 4 के खिलाफ दुष्कर्म की रिपोर्ट. इसमें एक पीड़िता ने पुलिस अफसर पर बलात्कार का आरोप लगाया है.
3. दुष्कर्म केस के गवाह को जेल भेजने में 5 पुलिसकर्मी सस्पेंड. एक सहायक प्रोफेसर पर बलात्कार का आरोप था, इस मामले में पुलिस ने आरोपी को बचाने के लिए गवाह को ही दूसरे मामले में जेल भेज दिया.
4. यह खबर गाज़ियाबाद की है, दिवाली की रात बार डांसर का डांस देख रहे थे दारोगा जी, डांसर को मारने लगे तो केस हुआ और अब जेल में हैं.
5. यह खबर कानपुर की है. किशन त्रिवेदी ने पुलिस को घर बुलाया, दारू पी, पार्टी की. पुलिस को घर बिठाकर त्रिवेदी के बेटे ने सामने के दलित परिवार पर कुल्हाड़ी लाठी से हमला कर दिया. 58 साल के बुजुर्ग की हत्या कर दी.
6. यह खबर आगरा की है. सफाईकर्मी की हिरासत में मौत. निरीक्षक सहित पांच निलंबित.
7. बसपा सांसद अतुल राय पर बलात्कार के आरोप के मामले में डीएसपी अतुल राय को नौकरी से बर्ख़ास्त कर दिया. पीड़िता ने आरोप लगाया कि ये लोग आरोपी को बचा रहे हैं और सुप्रीम कोर्ट के बाहर आग लगाकर आत्महत्या कर ली. 
8. 26 अक्तूबर की इस खबर को देखिए. छह लाख रुपये की र‍िश्‍वत लेने पर यूपी पुलिस के कोतवाल के ख‍िलाफ भ्रष्टाचार का मुकदमा दर्ज हुआ है मुरादाबाद में. 23 अक्तूबर की खबर है कि मुकदमे में बरामद माल कोर्ट में पेश न करने पर फंस गए कोतवाल, परिवाद दर्ज.
9. फतेहपुर की यह खबर 7 नवंबर की है. पिटाई से घायल युवक की मौत, पुलिस पर आरोपियों से भिलीभगत का आरोप लगा ग्रामीणों ने किया हंगामा.
10. 17 अक्तूबर की यह खबर अमर उजाला में ही छपी है. फिरोज़ाबाद चोरों को पकड़ने की बजाए चोरी की रकम का बंटवारा, दरोगा सहित चार पुलिसकर्मी गिरफ्तार. 
11. आगरा से यह खबर है. 8 नवंबर की थाने में दो व्यापारियों की पिटाई, सीएम पोर्टर पर शिकायत दर्ज.

इस तरह से अखबारों की कतरनों को खोजना, उन्हें सजाकर देर तक पढ़ते जाना वाकई थका देने वाला है. हर दिन की यह चुनौती है कि किस तरह से खबरों को पेश किया जाए और खबरों को देखने समझने में बदलाव आए. यह काम बिना मेहनत के भी हो सकता था. अगर मैं इन सब खबरों को एक जगह दिखाने की बजाए, दो लोगों को अलग बगल बिठा लेता, बहस करा देता तो देखते देखते कार्यक्रम खत्म हो जाता. आप कांग्रेस से चिढ़ने वाले होते तो कांग्रेस से चिढ़ते और भाजपा से चिढ़ने वाले होते तो भाजपा से चिढ़ते. डिबेट के कार्यक्रम का यही नतीजा निकलता है. आप जानते कुछ नहीं, जो मानते आ रहे हैं उसी को मानते रहते हैं. कभी कभी सिस्टम को भी देखिए जिसके भरोसे आप रह रहे हैं. अलग अलग दिनों और अलग अलग शहरों से छपी ये खबरों उत्तर प्रदेश पुलिस की हैं. लेकिन ये सच्चाई कई राज्यों के पुलिस की है.

बिहार में शराबबंदी का कोई असर नहीं है. नकली शराब पीने से 40 से अधिक लोगों की मौत हो गई. बीजेपी ही आरोप लगा रही है कि पुलिस भी इस धंधे में मिली हुई है. बिहार में शराबबंदी लागू करने के लिए एसपी का पद है. इसी साल जनवरी में SP शराबबंदी राकेश कुमार सिन्हा ने बिहार के सभी SP को पत्र लिख दिया कि सभी थानों की जानकारी और निगरानी में शराब का अवैध धंधा चल रहा है. इसमें सिपाही और दारोगा शामिल हैं. एक्साइज विभाग के अधिकारी शामिल हैं. इस पत्र से हंगामा मच गया और राकेश कुमार सिन्हा का तबादला कर दिया गया है.

उनकी जगह पर आए नए अधिकारी ने उसी दिन राकेश कुमार सिन्हा का पत्र वापस ले लिया. पुलिस की क्या हालत हो गई है. पुलिस के अधिकारी जानते हैं कि पुलिस के लोग शराब के धंधे में लिप्त हैं लेकिन उन पर कार्रवाई नहीं कर सकते हैं. यही नहीं राकेश कुमार सिन्हा ने यह भी लिखा था कि स्थानीय प्रतिनिधि भी शराब के अवैध धंधे में शामिल हैं. अब सोचिए राकेश सिन्हा जैसे काम करने वाले अफसरों के मनोबल पर क्या असर पड़ा होगा.

बिहार में शराब के धंधे में लिप्त होने के कारण पुलिस की ये हालत हो गई है कि कोई नागरिक पुलिस को सूचना देता है कि अमुक जगह पर अवैध कारोबार हो रहा है तो पुलिस उस नागरिक की पहचान ही उजागर कर देती है. मुख्यमंत्री के जनता दरबार में भी यह बात उठी है. बिहार में शराब के धंधे में लिप्त पाए जाने के कारण 600 से अधिक पुलिस वालों के खिलाफ मामले दर्ज हैं. कई अफसरों को बर्खास्त किया गया है लेकिन सरकार अदालत में उनका केस इतना कमज़ोर तरीके से लड़ती है कि बर्खास्त किए हुए अधिकारी फिर से बहाल हो जाते हैं. 

काफी थका देना वालारहा ये लेकिन उस जनता की सोचिए जिसे बिना किसी अपराध के पुलिस फंसा देती है, एनकाउंटर कर देती है और दशकों मुकदमे की जाल में फंसा देती है. और फिर इस पुलिस की भी सोचिए जो खुद अपने जाल में फंस जाती है. तब आप नहीं थकेंगे. खुश हो जाएंगे चलो सबके साथ ऐसा होता है.

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