This Article is From Nov 04, 2022

पराली पर कब तक चलेगी जुगाली

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Ravish Kumar

मई 2021 की बात है,कोरोना की दूसरी लहर में आक्सीजन की कमी हुई तो लोग सुप्रीम कोर्ट चले गए।अस्पतालों और उसके बाहर आक्सीज़न न मिलने के कारण तड़प कर मर जाने वाले लोगों और बीमार लोगों के परिजनों के भीतर आक्सीज़न का ख़ौफ पैदा हो गया था। घबराई जनता सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई तो आक्सीज़न की उचित व्यवस्था के लिए सुप्रीम कोर्ट ने नेशनल टास्क फोर्स बना दिया। इस नेशनल टास्क फोर्स का बनाया जाना ही बड़ा प्रमाण था कि आक्सीजन का संकट है लेकिन इसके बाद भी सभी के सामने कह दिया गया कि आक्सीज़न से कोई नहीं मरा और सभी ने इसे स्वीकार भी कर लिया। जिन्होंने आक्सीजन के संकट को झेला था, सरकार के तर्क को स्वीकार करने वालों में शामिल हैं या नहीं, वही जानते होंगे। पर हम इसकी बात नहीं कर रहे हैं।


आगरा के इस गांव के लोग कभी नासा नहीं गए तो क्या हुआ, पीपल के पेड़ पर चढ़ गए कि अस्पताल में आक्सीज़न का सिलेंडर नहीं है तो क्या हुआ, पत्तों से आक्सीजन ले लेंगे। मुझे पूरा विश्वास है कि ये लोग सलाइन वॉटर चढ़ाने के समय भी यही करेंगे, अस्पताल जाने के बजाए नल या नदी के किनारे बैठ जाएंगे। पानी की कमी पूरी हो जाएगी। लेकिन उस वक्त आक्सीजन नहीं मिलने का भय इतना बढ़ गया था कि यह जनाब तो खटिया लेकर ही पेड़ पर पहुंच गए थे। आक्सीज़न की कमी से कोई नहीं मरा लेकिन आक्सीज़न की कमी के खौफ से हमने उस साल इस तरह के मंज़र तो देखे ही थे। इन दिनों दिल्ली हवा में ज़हर के फैल जाने से परेशान है। तो हम यही सोच रहे हैं कि अभी तक सारे पेड़ों को उखाड़ कर पीपल के पेड़ क्यों नहीं लगा दिए गए ताकि दिल्ली की हवा में आक्सीजन इतना बढ़ जाए कि हम दूसरे देशों को भी सप्लाई कर सके।

हमने आपको हंसाने के लिए आगरा की यह तस्वीर नहीं दिखाई है, बल्कि आपसे पूछना चाहता हूं कि जब राजनेता, जनता सब एक लाइन में खड़े होकर अपनी सोच का नाश कर दें, अजीब-अजीब हरकतें करें और उसे स्वीकार किया जाने लगे तब एक पत्रकार को, एक ऐंकर को किस तरह से संवाद करना चाहिए ताकि जनता समझ सके कि पहले दिमाग़ में ज़हर भरा गया और अब फेफड़े में ज़हर भरा जा रहा है। आप भागकर पीपल पर चढ़ जाइये, आपकी मर्ज़ी, मगर वह पीपल उसी दिल्ली या आगरा में है जिसका आसमान काले धुएं से भर गया है। क्या हमारे आंकड़ों और तथ्यों का कोई मतलब है या इसी तरह की बोगस बातों से आपका मनोरंजन किया जाए। वो भी किया जा सकता है। ताकि ही ही ही में यह हिस्सा वायरल होता रहे और समस्या की ऐसी तैसी हो जाए। जैसा कि राजनेता एक दूसरे पर आरोप लगाकर ज़हरीली हवा के संकट को निपटा रहे हैं। 

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सिर्फ हमारी हरकतें ही नहीं, हमारी भाषा भी टालने टरकाने वाली हो गई है। हमने किसी भी संकट पर नए नए नामों की टोपी पहनाने की कला विकसित कर ली है। जैसे ही कोई संकट आता है, उसके अलग-अलग नाम रखने लग जाते हैं, उसकी श्रेणियां तय कर देते हैं और फिर लोगों को भरमाया जाने लगता है कि अभी संकट सबसे ख़राब श्रेणी में नहीं पहुंचा है, जब तक ख़राब की श्रेणी में है तब तक सरकार और आपको चिन्ती करने की ज़रूरत नहीं है।1969 में एक फिल्म आई थी दो दुनी चार। किशोर कुमार की आवाज़ में एक गाना है। हवाओं पर लिख दो, हवाओं के नाम। ये किसके लिए है, बता किसके नाम। हवा में ज़हर फैला तो साहूकार की तरह सरकार ने हवाओं के अलग अलग नाम रख दिए गए और  उन्हें श्रेणियों के बटखरे से तराजू पर तौला जाने लगा। एक सूचकांक बना दिया गया जहां अलग-अलग रंगों में हवा दिखाई जाती है, जिसे एयर क्वालिटी इंडेक्स कहते हैं। संक्षेप में AQI कहते हैं यह हवा का नया नाम और परिचय हो गया है। प्रेमी आपस में व्हाट्स एप किया करेंगे कि मेरे शहर में AQI 225 बह रही है, तुम्हारे शहर की AQI कैसी है? 

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हवाओं पर अब हवाओं के छह प्रकार के नाम लिख दिए गए हैं। जैसे शिलांग की हवा का AQI 20 है तो इसे GOOD हवा की श्रेणी में रखा गया है। देहरादून की हवा का AQI 100 है तो इसकी श्रेणी का नाम Satisfactory है यानि हिन्दी में संतोषजनक हवा। हरे रंग की इस हवा पर किसी कवि का ध्यान नहीं गया है वरना बसंती पवन छोड़ कर संतोषजनक पवन पर कविता लिख रहे होते।यह खराब हवा की तीसरी  श्रेणी है जिसका रंग पीला है, अहमादाबाद के मणिनगर की हवा का AQI 162 है यानी moderately polluted है, हिन्दी में आंशिक रूप से प्रदूषित है। तीन कैटगरी में बांट कर बताया जाता है कि अभी सब कुछ ठीक है यहां तक चिन्ता की बात नहीं है। चौथी श्रेणी है poor, मुंबई के पास अंधेरी की हवा का AQI 215 है, तो यह हवा खराब हवा की श्रेणी की मानी गई है।

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ख़राब हवा का रंग भूरा रखा गया है। कितने कम अंतरों से हवाओं के ये नाम बदल जाते हैं। इस हवा का नाम Very Poor है मतलब बहुत ख़राब हवा, इसका रंग हल्का लाल है। लुधियाना के लोग राहत की सांस ले सकते हैं कि अभी अत्यंत ही ख़राब की श्रेणी में नहीं पहुंचे हैं। इस हवा का नाम Severe है मतलब अत्यंत ही ख़राब हवा। इसका रंग ऐसा लाल रखा गया है जैसे रेलगाड़ी का इंजन छाती पर ही चढ़ चुका हो। छह में से चार श्रेणियां तो ख़राब और प्रदूषित हवा की हैं। मतलब आपको कम से खराब, खराब से बहुत खराब, बहुत खराब से अत्यंत ख़राब के दायरे में गोल गोल घुमाया जा रहा है। हम आपको बता दें कि जो अत्यंत ख़राब श्रेणी की हवा है उससे तो स्वस्थ्य इंसान भी बीमार पड़ जाए और जिसे गंभीर बीमारी है, उसकी हालत और बिगड़ जाएगी। बहुत खराब हवा में अगर आप लंबे समय तक सांस लेते हैं तो बीमार पड़ जाएंगे। खराब हवा भी आपको सांस लेने में दिक्कतें पैदा करती रहेगी। 

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इस तरह की कैटगरी का एक लाभ यह है कि इनके बारे में बात करते हुए आप महसूस करते हैं कि पढ़े लिखे हैं और उसके अलावा जागरुक भी हैं। अगर आपका ध्यान बहुत खराब पर है तो प्लीज़  जहां की हवा अच्छी है, उस पर भी नज़र दौड़ाइये, पता कीजिए कि वहां क्या ऐसा कुछ किया जा रहा है ताकि वहां की हवा भी एक दिन अत्यंत खराब न हो? भारत सरकार की जिस वेबसाइट पर 385 स्टेशन की AQI दी जाती है।

National air quality index की साइट पर पंजाब की 8 जगहों की AQI  hai लुधियाना की हवा सबसे ख़राब बताई गई है- very poor। अमृतसर, बठिंडा, पटियाला, जालंधर, कलाल माजरा, मंडी, गोबिंदगढ़  की हवा ख़राब श्रेणी की है। रूपनगर  की हवा को आंशिक रुप से प्रदूषित बताया गया है। प्राइवेट वेबसाइट पर भी AQI की रैकिंग तैयार करती हैं। इस साइट के अनुसार पंजाब के 10 शहरों की हवा ख़राब से लेकर बेहद ख़राब श्रेणी की है। खेमकरण, अबोहर, मलौत, की हवा स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है। तो इस तरह पंजाब जिसकी एक ग्रामीण छवि मन में उभरती है, जिसके खुले खेतों से भरम पैदा होता है कि हवा भी खुली खुली है, वहां की हवा भी प्रदूषण से भारी हो चुकी है। सांस लेने लायक नहीं है। 

इस संकट को केवल महानगर की नज़र से नहीं देखना चाहिए, पंजाब के ग्रामीण इलाकों के लोग भी ज़हरीली हवा में सांस ले रहे हैं। इसकी चिन्ता की जानी चाहिए। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार तीन नवंबर तक पंजाब में पराली जलाने की 24,166 मामले दर्ज किए गए हैं। दिल्ली और पंजाब के बीच हरियाणा आता है। भारत सरकार की केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड की वेबसाइट पर हमने हरियाणा के 22 शहरों की AQI देखी। 4 नवंबर को दोपहर तीन बजे 

कैथल की AQI 396 है यानी बहुत ख़राब. बहादुरगढ़ की  AQI 449 है, यानी अत्यंत ख़राब.बल्लभगढ़ की  AQI 369 है यानी बहुत ख़राब है. भिवानी की AQI 416 है, अत्यंत ख़राब. फरीदाबाद की AQI 434 है, अत्यंत ख़राब. सिरसा की AQI 337 है, बहुत ख़राब है. जिन्द  की AQI 426 है, अत्यंत ख़राब है. रोहतक की AQI 412 है, अत्यंत ख़राब है.

केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड हरियाणा के 22 शहरों की AQI जमा करता है, इन 22 में से 15 शहरों की AQI 300 से ऊपर है यानी बहुत ख़राब से लेकर अत्यंत ख़राब की श्रेणी में यहां की हवा है। तो यह समस्या केवल दिल्ली की नहीं है, दिल्ली की भी है, यूपी और हरियाणा और पंजाब की भी।केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने पंजाब में पराली जलाने को की ख़बर की क्लिपिंग के साथ ट्विट किया है कि देख रहा है न बिनोद,आप की ज़हरीली हवा को। मंत्री जी को हरियाणा की भी चिन्ता करनी चाहिए। केंद्रीय मंत्री को देख रहा न बिनोद और सुरेश टाइप के संवादों से बचना चाहिए। अगर सरकार बिनोद और सुरेश के टर्म में बात करने लग जाएगी तो बहुत से बिनोद ऐसे हैं जो सरकार से परेशान हैं, वही सामने आ जाएंगे कि हम हैं बिनोद, हमने फलां परीक्षा पास की है, ज्वाइनिंग लेटर नहीं मिला है। केंद्रीय मंत्री को यह बताना चाहिए कि अगर हरियाणा में पराली जलाने की घटना कम हुई है तब क्यों उसके शहरों की हवा ज़हरीली है?

आज के इंडियन एक्सप्रेस में हरियाणा को लेकर पवनीत सिंह चड्ढा की लंबी रिपोर्ट छपी है। इस रिपोर्ट में सरकारी आंकड़ों का हवाला देते हुए बताया गया है कि हरियाणा में इस बार पराली जलाने की घटना में कमी आई है। 15 सितंबर से 3 नवंबर तक हरियाणा में पराली जलाने की 2, 377 घटना दर्ज हुई है। जबकि पिछले साल इस समय तक 3, 438 घटना दर्ज की गई थी। 30 प्रतिशत की कमी है। ये सारे आंकड़े उपग्रह की मदद से जुटाए गए हैं।इस रिपोर्ट के अनुसार पिछले छह साल में हरियाणा में पराली जलाने की घटना में 55 प्रतिशत की कमी आई है।

अभी हमने बताया कि कैथल की AQI 396 है, यानी बहुत ख़राब है।हमारे सहयोगी सुनील रवीश ने कैथल के एक किसान राम कुमार जी से बात की। राम कुमार के पास पराली काटने की 14 मशीनें हैं।उन्होंने बताया कि एक मशीन की कीमत 14-15 लाख की है। कुछ मशीनें 50 फीसदी तो कुछ 80 फीसदी की छूट पर ली गई हैं। राम कुमार और उनके रिश्तेदारों ने मिलकर ये मशीनें खरीदी हैं। उन्होंने एक बात कही जो नोट करने लायक है। इन मशीनों की गुणवत्ता बहुत अच्छी नहीं है। रखरखाव और मरम्मत पर काफी पैसा खर्च हो जाता है। यही रिपोर्ट पंजाब से भी है, जिसकी चर्चा हम आगे भी करेंगे। 

राम कुमार ने बताया कि तीन मशीनों का एक सेट होता है। जो 14 लाख का आता है अगर सरकार सब्सिडी न दे तो किसान खरीद ही न सके। पहले कटर से पराली काटी जाती है और रैक नाम की मशीन से उसे इकट्ठा किया जाता है। फिर पांच दिनों तक खेत में सूखने के लिए छोड़ देते हैं क्योंकि काटने के समय पराली में नमी होती है। फिर पांच दिनों के बाद ट्रेलर मशीन आती है जो पैक कर ले जाती है और बिजली बनाने वाली, कार्ड बोर्ड बनाने वाली फैक्ट्री को बेच दी जाती है। इसी से राम कुमार जी अपना ख़र्चा और मुनाफा निकालते हैं। पराली बिक जाती है इसलिए किसानों से किराया नहीं लेते। हर दिन सात हज़ार क्विंटल पराली उठा पाते हैं।जो किसान पराली नहीं जलाता है उसे हरियाणा सरकार एक हज़ार रुपये प्रोत्साहन राशि के रुप में देती है। राम कुमार ने बताया कि एक एकड़ पराली की कटाई में 10-11 लीटर डीज़ल लग जाता है। एक दिन में 25 एकड़ ज़मीन की ही पराली निकाल पाते हैं।मशीनें कम हैं इसलिए पराली की कटाई के लिए किसानों को इंतज़ार भी करना पड़ता है। 


राम कुमार के अनुसार डीज़ल के दाम का असर पड़ा है, मशीनों की गुणवत्ता और बेहतर करने की ज़रूरत है और ये बहुत महंगी भी हैं। धान की कटाई और गेहूं की बुवाई के बीच समय कम होता है इसलिए ज़्यादा से ज्यादा मशीनें होंगी तभी इसका समाधान निकलेगा।किसान जल्दी में होते हैं। ऐसा नहीं है कि सस्ती मशीनों का विकल्प नहीं है। कई लोगों ने ऐसे विकल्प बनाए हैं।इस साल मार्च 2022 में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने एक सवाल के जवाब में बताया था कि सरकार ने 2018-19 में दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में पराली के प्रबंधन को लेकर योजना के बारे में बताया था। 

लोकसभा में दिए गए जवाब के अनुसार 2018-19 से 2021-22 के दौरान केंद्र ने चार राज्यों को 2440 करोड़ रुपये जारी किए हैं। इसके तहत 39,000 कस्टम हायरिंग सेंटर बनाए गए हैं जहां से मशीन किराए पर ली जा सकती है। 2 लाख 10 हज़ार मशीनों की सप्लाई की गई है।

केंद्र सरकार का दावा है कि 2 लाख 10 हज़ार मशीनों की सप्लाई की गई है। क्या ये काफी हैं? मार्च से लेकर अभी तक कितनी और मशीनों की सप्लाई हुई है? क्या इन मशीनों के कारण पराली जलाने की घटना में कमी आ रही है? अब आते हैं पंजाब पर

यह 27 अगस्त 2022 की एक रिपोर्ट है, अंजु अग्निहोत्री चाबा की, इंडियन एक्सप्रेस में छपी है।इस रिपोर्ट के अनुसार पंजाब सरकार का कहना है कि उसने चार साल में 90,422 मशीन हैं। लेकिन इनमें से 11, 275 मशीनों का पता ही नहीं चल रहा है। हाल ही में पंजाब सरकार ने विजिलेंस जांच की घोषा की है।  सरकार का ही आंकड़ा है कि 90,422 मशीनों में से 79,295 मशीनें ही साक्षात पाई गई हैं, 11, 275 मशीनें लापता हैं। पंजाब सरकार को ही अंदेशा है कि 150 करोड़ का घोटाला हो सकता है। एक्सप्रेस ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि कई किसानों ने इन मशीनों को बेच दिया क्योंकि इनसे अच्छी मशीनें बाज़ार में थीं। कई मामलों में ये मशीनें कहीं और पड़ी हुई हैं। आपको याद दिला दें कि थोड़ी देर पहले हरियाणा के राम कुमार ने भी मशीनों की गुणवत्ता को लेकर बताया था कि बहुत खराब होती हैं।

इस रिपोर्ट में बताया गया है कि सरकार ने जो मशीनें दी हैं, उससे बेहतर प्राइवेट मार्केट में मशीन मिल रही है।इस मामले में हमारी कोई राय नहीं है, हम कोई एक्सपर्ट नहीं है लेकिनमगर एक्सप्रेस की रिपोर्ट में यह बात प्रमुखता से लिखी गई है कि पराली जलाने की जो मशीन सब्सिडी पर दी गई वह अच्छी नहीं निकली। इस बात की जांच होनी चाहिए कि सरकारी सब्सिडी वाली मशीन क्यों नहीं अच्छी है? क्यों किसान इन मशीनों का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं? इस सिलसिले में हम इसी 15 अक्तूबर को इकोनमिक टाइम्स में छपी रिपोर्ट का ज़िक्र करना चाहते हैं।

निधि शर्मा की इस रिपोर्ट में लिखा है कि केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड के सदस्य सचिव करुणेश गर्ग ने इकोनमिक टाइम्स से कहा है कि पंजाब का कृषि विभाग और प्रदूषण बोर्ड दोनों मिलकर जागरुकता अभियान चला रहे हैं। ताकि किसान पराली न जलाएं। हम बता रहे हैं कि मशीनें है मगर इनका इस्तेमाल बहुत कम है। पिछले साल मार्च अप्रैल तक 30-35 प्रतिशत ही मशीनों का इस्तेमाल हुआ है। अगर हम मशीनों के इस्तेमाल को बढ़ाकर 50 प्रतिशत तक कर दें तो काफी फर्क पड़ेगा। पंजाब सरकार ने इसके लिए ikhet नाम से एप भी बनाया है। यह केंद्र सरकार के प्रदूषण बोर्ड के सदस्य सचिव का जवाब है कि पंजाब का कृषि विभाग और केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड दोनों मिलकर जागरुकता अभियान चला रहे हैं मगर किसान इन मशीनों का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। 

इसका मतलब है कि केंद्र और पंजाब सरकार मशीनों को लेकर किसानों को जागरुक करने में लगे हुए थे। केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड ने यह नहीं कहा है कि पंजाब सरकार कुछ नहीं कर रही है। जब दोनों मिलकर काम कर रहे हैं तब दोनों को ही कारण और उपाय बताने चाहिए न कि देख रहा है न बिनोद टाइप के संवाद बोले जाने चाहिए। सरकार ने पराली की समस्या को लेकर जागरुकता फैलाने के लिए काफी पैसे खर्च किए हैं।27 जुलाई 2022 को राज्य सभा में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने बताया कि 2018-19 से लेकर 2021-22 तक 181 करोड़ रुपये जारी किए गए ताकि मशीनों के इस्तेमाल को लेकर लोगों को शिक्षित किया जा सके। हमारे पास ऑडिट करने का कोई तरीका नहीं है, जिससे हम बता सकें कि इतने पैसे का इस्तेेमाल कैसे हुआ। 

केंद्र सरकार के प्रदूषण बोर्ड के अधिकारी कहते हैं कि पंजाब में 90,000 मशीनें बांटी जा चुकी हैं। यह बयान 15 अक्तूबर के इकोनमिक टाइम्स में छपा है। लेकिन 11 सितंबर के इकोनमिक टाइम्स में ही पंजाब के कृषि मंत्री का बयान छपा है कि 56000 और मशीनें बांटी जाएंगी जिसके बाद पंजाब में मशीनों की संख्या करीब 1,46,000 से अधिक हो जाएगी। 11 सितंबर से 15 अक्तूबर के बीच कितनी मशीनें बंटी हैं, इस सवाल की पड़ताल अलग से करनी होगी। 

हवा में ज़हर के फैलने और पराली संकट से जुड़ी तमाम ख़बरों को एक साथ देखिए, आपको झोल और झूठ का जाल भी दिखाई देगा। कुल मिलाकर हवा साफ नहीं हुई है। बिनोद भी सांस नहीं ले पा रहा है और प्रमोद का दम भी घुट रहा है।इंडियन एक्सप्रेस और इकनोमिक टाइम्स की रिपोर्ट से हमारे सामने दो सवाल मज़बूती से खड़े होते हैं। क्या ये मशीनें कारगर हैं? क्या ये मशीनें किसानों को महंगी पड़ती हैं? हमने पिछले साल 17 नवंबर के दिन इस संकट पर प्राइम टाइम किया था। उस एपिसोड में एक किसान ने बताया था कि एक एकड़ में पराली हटाने के लिए बीस लीटर डीजल लगेगा जो काफी महंगा हो चुका है। डीज़ल सस्ता तो हुआ नहीं है। तो इसकी लागत पर बात क्यों नहीं हो रही है? क्या मशीन का किराया महंगा हो गया है? जनवरी के महीने में किसान कह रहे थे कि धान और गेहूं की बुवाई के बीच समय भी कम मिलता है। किराए पर मशीन भी नहीं मिलती इसलिए समय बचाने के लिए पराली जला देते हैं। क्या ये बातें मंत्री अपनी प्रेस कांफ्रेंस में कह रहे हैं? डीज़ल की महंगाई पर बात कर रहे हैं? हम पुरानी रिपोर्ट का यह हिस्सा दिखाना चाहते हैं.

लोकसभा, राज्य सभा में केंद्र सरकार के जवाब, इसी सितंबर में PIB की रिलीज़ से पता चलता है कि केंद्र सरकार ने 2018 से 2021 के बीच पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और यूपी में 30,900 ऐसे केंद्र बनाए हैं जहां पर पराली हटाने की डेढ़ लाख मशीनें हैं। किसान यहां से किराये पर ले सकते हैं। जसवीर सिंह जैसे छोटे किसान जिनके पास दो एकड़ की ज़मीन है इन मशीनों को किराए पर भी नहीं ले सकते, कुछ बचेगा नहीं और ज्यादातर किसान इन राज्यों में भी इसी तरह दो तीन एकड़ वाले ही हैं। किसानों का कहना है कि अगर सब्सिडी से भी लें तो भी एक लाख रुपये लग जाएं जो कि किसानों के पास नहीं हैं। यही कारण है कि किसान पराली जलाने पर मजबूर हो रहे हैं।बार बार सुप्रीम कोर्ट कह रहा है कि सरकार जब सक्षम है तो वह कदम क्यों नहीं उठा रही है।केंद्र सरकार ने इसके बदले एक स्कीम बना दी है कि सरकार पचास फीसदी सब्सिडी देगी। इस संकट की स्थिति में भी किसानो से बिजनेस किया जा रहा है उन पर और खर्चा लादा जा रहा है। 

किसान बोलेंगे तभी जाकर बात समझ आएगी कि ये मशीन पराली से मुक्ति दिलाएंगे या नहीं। इसका मतलब यह नहीं कि दिल्ली की बात हो रही है तो पंजाब और हरियाणा का आंकड़ा दिखाया जाने लगे, बिल्कुल दिखाना चाहिए मगर इससे न तो हरियाणा की समस्या दूर होती है न दिल्ली की। आज यह मामला सुप्रीम कोर्ट चला गया, कोर्ट ने कहा कि हस्तक्षेप किया जाएगा। 10 नवंबर को इस मामले में सुनवाई होगी। 

इस बीच हम पिछले साल की एक खबर के बारे में याद दिला देना चाहते हैं। यह मामला तब भी सुप्रीम कोर्ट में गया था। तत्कालीन चीफ जस्टिस एन वी रमना ने कहा था कि कोर्ट की मंशा किसानों को दंडित करने की नहीं है। पराली जलाने के नाम पर जवाबदेही किसानों पर शिफ्ट नहीं होनी चाहिए।जस्टिस सूर्यकांत ने कहा था कि पांच सितारा होटल के एसी रुप में बैठकर किसानो को दोष देना आसान है। बेंच में शामिल जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा ये है, सिर्फ़ उदासीनता… उन्होंने यह भी कहा कि कोई बताए कि सरकार साल भर क्या करती है। कोर्ट ने सरकार से कहा था कि आप सक्षम है, आप किसानों को मशीनें दे सकते हैं। 

“पराली को लेकर केंद्र सरकार ने 2018 से अब तक 3138 करोड़ रुपए राज्यों को दिए हैं। अनेक राज्य सरकारों ने अच्छा काम किया है।पंजाब को हमने सबसे ज्यादा 1400 करोड़ से अधिक दिया है राज्य सरकारों ने 2 लाख मशीने खरीदी हैं। इन मशीनों के दम पर अगर राज्य सरकार तय कर ले तो पराली से निजात पाई जा सकती है। पूसा डीकम्पोजर बहुत सारे किसान उपयोग कर रहे हैं जिसका फायदा हो रहा है। पूसा डी कम्पोजर का प्रयोग सरल और सफल है।राज्य सरकारों से आग्रह है कि पूसा डीकम्पोजर का इस्तेमाल ज्यादा से ज्यादा किसान करें।”

“पंजाब द्वारा डीकंपोजर का इस्तेमाल नहीं करने पर पंजाब के कृषि मंत्री ने पहले ही कहा था कि वहाँ कि किसानों के पास दो फसलों के बीच में ज्यादा गैप नहीं होता है. वे लोग इसके लिए पूसा के वैज्ञानिकों से बात कर रहे हैं भाजपा केंद्रीय पर्यावरण मंत्री और एलजी को प्रदूषण पर बोलने जा हक़ नहीं है. वे पटाखे जलवाते हैं, बैन के बावजूद अपने केंद्रीय कार्यालय में निर्माण कराते हैं, हमारी फ़ाइल क्लीयर नहीं करते हैं, पराली के लिए मुआवज़े का प्रस्ताव नहीं मानते हैं.”

कई महीनों से सरकार यही कह रही है कि दो लाख मशीनें दी गई हैं जबकि सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सरकार मशीनें देने में सक्षम है यानी सरकार चाहे तो फ्री में और एक साथ कई हज़ार मशीनें किसानों तक पहुंचा सकती है। हवा में ज़हर फैल गया है।यह मामला चंद दिनों का नहीं है, जनवरी के आखिर तक रहता है। इतने लंबे समय तक अगर आप ऐसी हवा में सांस लेंगे तो दिल्ली वालों के फेफड़े दुनिया के सबसे प्रदूषित फेफड़े बन जाएंगे। दरअसल इस संकट का चेहरा आम आदमी नहीं है। वह आम आदमी जो अस्पतालों में तड़प रहा है, इलाज के लिए लाइन में लगा है

उसकी तस्वीर यहां है। यह ख़बर ग़ाज़ियाबाद की है, अमर उजाला की, भीतर के पन्नों पर छपी है कि गाज़ियाबाद का एयर क्वालिटी इंडेक्स 416 है यानि अत्यंत विषाक्त है। इसमें लिखा है कि गैस चेंबर बन जाने से दो हज़ार से अधिक लोग इलाज के लिए सरकारी और प्राइवेट अस्पतालों में पहुंचे हैं। ग़ाज़ियाबाद के चार बड़े सरकारी अस्पतालों में 1750 मरीज़ भर्ती हुए हैं। यानि साफ है ज़्यादातर सरकारी अस्पताल में गए हैं जो यह भी इशारा करता है कि आम ग़रीब लोगों पर इस ज़हर का असर भयानक पड़ा है। जो न तो ट्विटर पर है न फेसबुक पर। 

ग़ाज़ियाबाद में प्रदूषण को लेकर राजनीति नहीं है, दिल्ली को लेकर है। ज़हरीली हवा केवल दिल्ली में नहीं है, यूपी के गाज़ियाबाद और नोएडा भी बहुत प्रभावित हैं। हवा को लेकर एक दूसरे को घेरने वाले इसका भी जवाब दे दें कि गंगा क्यों नहीं साफ हो सकी? 

इससे पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट ने नमामि गंगे प्रोजेक्ट को लेकर क्या कहा है, वह भी देख लें। यही कहा है कि साफ करने के नाम पर धोखा हो रहा है। यह खबर भी छपी है। क्या कोई केंद्रीय मंत्री इस रिपोर्ट को ट्विट कर सकता है? राजनीति से तो गंगा और यमुना भी साफ नहीं हो सकी। 

कितने साल गुज़र गए, हम न नदी साफ कर पाए, न हवा। बच्चों ने दिल्ली की हवा ख़राब नहीं की मगर सबसे पहले कीमत वही चुकाते हैं। दिल्ली में पांचवी तक के स्कूल बंद कर दिए गए हैं। कई जगहों पर स्कूल बंद किए गए हैं इस बात कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है कि पांचवी कक्षा से ऊपर के बच्चों के फेफड़े स्टील के बने हुए हैं, उन पर ज़हरीली हवा का असर नहीं होगा। उनकी सोचिए जो रेहड़ी पटरी पर काम करते हैं, जो मज़दूरी करने निकलते हैं, उनका क्या होगा, इसलिए इसका समाधान स्कूल बंद करना, दुकान बंद करना नहीं है, गाड़ियां और परालियां ज़िम्मेदार हैं, तो इन दोनों का कुछ करना चाहिए। डाउन टू अर्थ ने जलवायु परिवर्तन पर एक रिपोर्ट तैयार की है। 

इसी साल के 9 महीने में ऐसा कोई दिन नहीं बीता जब प्राकृतिक आपदा ने दस्तक न दी हो।1 जनवरी से लेकर 30 सितंबर तक 273 दिनों में से 243 दिनों तक हर दिन आपदा का कहर टूटा है। गर्मी से जुड़ा आपदा, सर्दी से जुड़ी आपदा, बारिश से जुड़ी आपदा, चक्रवाती तूफानों से जुड़ी आपदा। आकाश से गिरने वाली बिजली की आपदा। इन आपदाओं में 2755 लोगों की जानें जा चुकी हैं। इसके बाद भी यह मसला हमारी प्राथमिकताओं में नहीं हैं। क्या आप जानते हैं कि जिन 2755 लोगों की जानें गई हैं उनके परिवारों को किस भयंकर आर्थिक आपदा के साये में जीना पड़ रहा होगा? डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट के अनुसार प्राकृतिक आपदा से चार लाख घर नष्ट हो गए और 70,000 पशु मारे गए हैं। हिमाचल प्रदेश में प्राकृतिक आपदा के कारण 359 लोग मारे गए हैं। 

hydrometeorological calamities बोला भी नहीं जानता है, आपदाओं के ऐसे ऐसे नाम रख दिए गए हैं। हिन्दी में इसका नाम जल-मौसम संबंधी आपदाएं। इसका एक रिकार्ड आपको दिखा देना चाहता हूं। इसी 19 जुलाई को गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने लोकसभा में बताया है कि  जल मौसम संबंधी आपदाओं से 

2018-19 में 2400 लोग मारे गए हैं। 1 लाख 23 हज़ार से अधिक पशु मारे गए हैं। 15 लाख से अधिक मकान और झोपड़ियां नष्ट हो गई हैं। 17 लाख हेक्टयर भूमि में खड़ी फसल को असर हुआ.

हवा से लेकर पानी तक सब कुछ ज़हरीला हो चुका है। लोगों के घर में पानी का बिल हज़ारों रुपये का होने लगा है। आंकड़े बता रहे हैं कि इसकी मार सबसे अधिक आम लोगों, ग़रीबों, किसानों पर पड़ रही है। एक आपदा से विस्थापित होकर कहीं जाते हैं तो वहां से दूसरी आपदा से विस्थापित होकर कहीं और जाना पड़ता है। इस बहस में आम लोग नहीं हैं। इस पर नेताओं और कार चलाने वाले वर्ग ने कब्ज़ा कर लिया है। जो कार वाला क्लास है, जो बोलने वाला क्लास है, उसके जीवन में आपदा के अलावा सौ और मुद्दे हैं। वह नवंबर में हवा पर बोल रहा है, दिसंबर में छुट्टियों के सपने देखने लगेगा। आम आदमी साल भर ज़हरीली हवा और दूषित पानी का सेवन करता हुआ बीमारी की तरफ जा रहा है। 


इसीलिए हमने शुरू में आपको यह नौटंकी दिखाई कि कोरोना के समय जब आक्सीजन का संकट आया तो कुछ लोग पीपल के नीचे आ गए, कि आक्सीजन की कमी नहीं होगी, एक जनाब खटिया लेकर डाल पर चढ़ गए। हम सब यही कर रहे हैं। हम मतलब मीडिया, नेता, और इन्हें पढ़ने देखने और सुनने वाला समाज।आप ये नहीं कर सकते कि दस किलोमीटर की हवा छांट कर राजनीति कर लें, इस पूरे संकट को व्यापक रुप से देखिए तो हमने धरती को जीने लायक कहां छोड़ा है। एक भी उदाहरण नहीं है जिसे दिखा कर दावा किया जा सके कि इस नदी को पीने लायक बना दिया गया। यहां की हवा अब बेहतर हो गई। बाकी राजनीति खूब होती है। होती रहेगी। फेफड़ा आपका है। 

हमने जो बताया उसका तरीका बहुत बोरिंग और बोझिल था, क्योंकि कई तरह के आंकड़े हैं, कई तरह की बातें हैं, लेकिन आपको ऐसे ही देखना होगा अगर मर्ज़ को समझना है तो। नेता इसकी जगह एक दो लाइन की मारक और चालू पंक्तियां बोल कर निकल जाते हैं, लेकिन जब आप डिटेल में जाते हैं तब पता चलता है कि आप सांस लेने के नाम पर भी बेवकूफ बनाए जा रहे हैं।दिल्ली नगर निगम के लिए 4 दिसंबर को वोट डाले जाएंगे। 7 दिसंबर को नतीजे आएंगे। निगम के चुनाव से पहले ही दिल्ली की हवा से लेकर कूड़े के पहाड़ को मुद्दा बनाया जा चुका है। शरद शर्मा की रिपोर्ट। 


इस बार गढ़मुक्तेश्वर के कार्तिक मेले में पशु मेला नहीं लगेगा। इस मेले में 20-25 लाख लोगों के आने का दावा किया जा रहा है। लंपी वायरस का प्रकोप अभी खत्म नहीं हुआ है। इस साल न जाने कितने किसानों का पशुधन समाप्त हो गया। उनकी क्या हालत है हम नहीं जानते हैं। गोदी मीडिया ने मीडिया को बाक्सिंग रिंग बना दिया है जहां हर शाम दो पक्ष भिड़ते हैं और पूरा देश तमाशा देखता है मगर उनकी खुद की ज़िंदगी में क्या चल रहा है किसी को पता नहीं। सोहित महाराष्ट्र के अहमदनगर का हाल बता रहे हैं। 

आपने देखा होगा कि दिल्ली, हरियाणा, यूपी और पंजाब की ज़हरीली हवाओं पर बात करते करते हम किसानों की बात करने लगे। बिना किसानों की बात किए ज़हरीली हवा की समस्या का निदान नहीं हो सकता। इसका मतलब है कि खेती अगर प्राथमिकता में होती, ईमानदारी से प्रयास किए जाते तो बिनोद को दिखाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। बिनोद का ज़िक्र इसलिए आया
क्योंकि केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने अपने ट्विट में आप को निशाना बनाते हुए लिखा है कि देख रहा है न बिनोद। यह मनोविनोद का विषय नहीं है, बहुत गंभीर विषय है इसलिए इसे विनोद और आमोद दोनों ही गंभीरता से देखें। देश तो कब से देख रहा है, नदियों की सफाई के दावों से लेकर हवा को साफ करने के दावों का हाल। उस देश की जनता को बिनोद मत कहिए मंत्री जी। आप ब्रेक ले लीजिए। 

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