This Article is From Apr 27, 2022

नैतिक बल के बिना ग्लोबल लीडर का बाहुबल

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Ravish Kumar

युद्ध केवल यूक्रेन में नहीं हो रहा है, एक युद्ध युद्ध रोकने के नाम पर भी हो रहा है. यूक्रेन तबाही झेल रहा है, लेकिन उसकी तबाही पर कई देश केवल निंदा और बातचीत के प्रयास का हवाला देकर अपनी छवि चमकाने में लगे हैं. दुनिया भर के विदेश मंत्री, राजदूत, एक दूसरे की राजधानियों का दौरा कर रहे हैं, बयान दे रहे हैं, मुलाक़ात कर रहे हैं लेकिन युद्ध नहीं रुक रहा है. एक देश रोजाना बम झेल रहा है और बाकी देश उसके नाम पर ग्लोबल लीडर बन रहे हैं. हिसाब तो कीजिए कि इन सबका नतीजा क्या निकल रहा है, अगर कोई नतीजा निकल रहा है तब फिर क्यों रूस 24 फरवरी से यूक्रेन पर हमला किए जा रहा है. आज 27 अप्रैल है. ग्लोबल लीडर फेल हो चुके हैं. म्यांमार से लेकर श्रीलंका या नाइजीरिया से लेकर बोलिविया कहीं आप देख लीजिए, इनकी पहल से न तो लोकतंत्र बहाल हो रहा है और न युद्ध रुक रहा है. ग्लोबल लीडर बनने के नाम पर दो महीने से केवल यात्राएं हो रही हैं और मीडिया का कवरेज़ हो रहा है.

यूक्रेन के शहर के शहर बर्बाद हो रहे हैं. पचास लाख से अधिक लोग शरणार्थी बन गए हैं. मारे जाने वालों की गिनती नहीं है. जो भी देश रूस से बातचीत कर रहे हैं, बातचीत के पक्षधर हैं, वो अपनी बातचीत का हिसाब पब्लिक में क्यों नहीं रखते कि उन्होंने रूस से क्या बातचीत की है और उसका नतीजा क्या है? जब उस बातचीत का, उनके किसी स्टैंड का कोई नतीजा ही नहीं है तब फिर उसे लेकर ढिंढोरा क्यों पीटा जा रहा है? कूटनीति के इन महान प्रोफेसरों से क्यों नहीं पूछा जा रहा है कि आपके किसी भी स्टैंड से यूक्रेन युद्ध पर क्या असर पड़ा है? कोई रूस का नाम लेकर निंदा कर रहा है, कोई बिना नाम लिए निंदा कर रहा है, लेकिन इन दोनों से रूस पर क्या असर पड़ रहा है? आखिर रूस से दोस्ती निभाने वाले मुल्क क्या बताएंगे कि रूस उनकी बात क्यों नहीं मान रहा है? रूस को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ रहा कि कोई देश नाम लेकर निंदा करे या नाम लिए बिना निंदा करे. रूस बेफिक्र होकर यूक्रेन पर बम गिराए जा रहा है. यूक्रेन के खंडहर होते शहर बता रहे हैं कि दुनिया उन्हें अकेला छोड़ कर जा चुकी है. प्रतिबंधों से लड़ने का एलान कर अब उन्हीं प्रतिबंधों से लड़ रही है. धंधे का रास्ता निकाल रही है. हेडलाइन छपनी चाहिए लेकिन तब छपनी चाहिए जब किसी प्रयास से कोई नतीजा निकले. केवल स्टैंड पर इतनी वाहवाही लूटी जा रही है, ये ग़ज़ब की कूटनीति है. रंग लगे न फिटकरी, यही सबकी कूटनीति.अजीब अजीब तरह की शब्दावली रची जा रही है. अमरीका के राष्ट्रपति जो बाइडन का बयान आया कि वे रूस की रणनीतिक हार चाहते हैं. उसे अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अलग-थलग करना चाहते हैं मगर वह भी तो नहीं कर पाए. रणनीतिक हार का खेल देखिए, यूक्रेन को युद्ध से नहीं बचा पा रहे हैं तो रूस को हराने के लिए रणनीतिक हार जैसे शब्दावली के तीर चला रहे हैं. आप रो नहीं सकते तो इस दुनिया पर हंस तो सकते ही हैं. कुछ दिन में बयान आएगा कि हमने सपने में रूस को हरा दिया है. इसे स्वप्न हार को नाम दे देंगे और हेडलाइन छप जाएगी.

यूक्रेन युद्ध की कीमत आप सभी लोग बहुत बहादुरी से चुका रहे हैं. दुनिया तो अब महंगाई की मार झेल रही है लेकिन भारत के लोग तो 2019 के उत्तरार्ध से ही महंगाई झेल रहे हैं. उस साल खुदरा महंगाई की दर 6.3 प्रतिशत हो गई थी, उसके अगले साल 6.2 प्रतिशत थी. इस साल का हाल आप जानते हैं. लेकिन आपको परेशान छोड़ कूटनीति की उस सफलता का विज्ञापन किया जा रहा है जिसका नतीजा अभी नहीं आया है. अजीब दौर है. फेल करने वालों ने ख़ुद को टॉपर घोषित कर दिया है.

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संयुक्त राष्ट्र की आम-सभा में 193 सदस्य देशों ने आम सहमति से एक प्रस्ताव पास किया है. इस प्रस्ताव के तहत पांचों स्थायी सदस्यों को बताना होगा कि उन्होंने वीटो किस आधार पर किया. जिन पांच देशों को वीटो का अधिकार मिला हुआ है उन्हें वीटो के कारण बताने की ज़रूरत नहीं होती है. लेकिन इस नए प्रस्ताव के बाद बताना होगा, रूस को भी बताना होगा कि वह क्यों वीटो कर रहा है. लोकतंत्र की बात करते हैं तो कारण तो बताना ही चाहिए कि किस कारण से वीटो कर रहे हैं. सुरक्षा परिषद में प्रस्ताव गिर जाता है और क्यों गिरता है, वीटो करने वाला देश नहीं बताता है. क्या अब रूस, अमरीका, चीन, फ्रांस और ब्रिटेन सुरक्षा परिषद में विस्तार से अपने-अपने कारण बताएंगे? भारत ने इस प्रस्ताव पर अपनी आपत्ति जताई है, कहा है कि इसके लिए पारदर्शिता नहीं बरती गई है. संयुक्त राष्ट्र के पास वीटो के अलावा भी कई नियम और तरीके हैं. संयुक्त राष्ट्र के महासचिव गुटेरेस ने मास्को जाकर राष्ट्रपति पुतिन से मुलाकात भी की लेकिन इससे भी कोई हल निकलता नहीं दिख रहा है. उल्टा रूस ने पोलैंड और बुल्गारिया को गैस सप्लाई बंद कर दी है.

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आज खबर आई ड्रोन बनाने वाली चीन की एक कंपनी ने रूस में अपना ऑपरेशन बंद कर दिया है तो क्या चीन रूस को रोकने जा रहा है? फिर जो स्टैंड लिए जा रहे हैं, यात्राएं हो रही हैं उनका नतीजा क्या निकल रहा है? ऐसा लगता है कि सारे ग्लोबल लीडर इस बात का इंतज़ार कर रहे हैं कि रूस और यूक्रेन थक जाएं और युद्ध रोक दें ताकि ये लोग अपना अपना दावा करने लगें कि हमारी कूटनीति से युद्ध रुक गया. अमरीका अपने रास्ते पर है और रूस अपने रास्ते पर. भारत ने चीनी यात्रियों का वीज़ा रद्द कर दिया है, क्योंकि चीन 20,000 से अधिक भारतीय छात्रों को वहां जाकर पढ़ने की अनुमति नहीं दे रहा है. इनमें से ज़्यादातर मेडिकल छात्र हैं. इन छात्रों का भविष्य दांव पर हैं. इसी तरह यूक्रेन का युद्ध केवल कारोबार को नहीं बल्कि भारत के ही बीस हज़ार से अधिक मेडिकल छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ कर रहा है. उन छात्रों को वहां से निकाल कर लाने के नाम पर कितनी अखबारबाज़ी हुई. छवि बनाई गई कि उनका ख़्याल रखा जा रहा है लेकिन वहां से आए छात्र मेडिकल की पढ़ाई कैसे करेंगे, उनकी डिग्री की क्या मान्यता होगी, इन सब ठोस सवालों को लेकर कोई खास पहल नहीं दिखती है. कहने का मतलब है कि युद्ध भले न रुके, छात्रों की समस्या भले न दूर हो, लेकिन कुछ कदम उठाकर उसे सख्त और नरम बताया जाने लगता है और हेडलाइन छपने लगती है. समस्या वहीं की वहीं रह जाती है.

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इलॉन मस्क ने साबुन ख़रीदा या साबुदाना उसे लेकर चिन्ता हो रही है, चिन्ता इसे लेकर होनी चाहिए कि टेक्नॉलजी के नाम पर आज की सरकारें किस तरह आम जनता का गला घोंटने की तैयारी कर रही हैं. क्या आप जानते हैं कि नाइजीरिया की सरकार ने अपने नागरिकों के फोन ब्लॉक कर दिए हैं. चार अप्रैल से ही वहां की एक तिहाई आबादी यानी सात करोड़ तीस लाख लोगों के फोन बंद हैं. सरकार अपरहकर्ताओं और इस्लामी गुटों के नाम पर कह रही है कि सभी नागरिकों को अपना नंबर ग्यारह अंकों के राष्ट्रीय पहचान संख्या से जोड़ना होगा. एक लेख में पढ़ने को मिला कि अपहरण करने वालों में सेना के भी लोग होते हैं. निजता के अधिकारों का अध्ययन करने वालों का कहना है कि नाइजीरिया के लोग सरकार के ख़िलाफ़ न बोलें, इसलिए उन पर नज़र रखने के लिए ऐसा किया जा रहा है. सुरक्षा और टेक्नालजी का नाम आते ही जनता अपने जनता होने के अधिकारों को सौंपने लगी है. जनता को लगता है कि नंबर मिल जाने से उसकी नागरिकता प्रमाणित हो जाएगी लेकिन इसी से जनता की अभिव्यक्ति और निजता की आज़ादी पर भी ख़तरा पैदा हो रहा है. सरकार को निजता की चिन्ताओं को दूर करना चाहिए था लेकिन एक झटके में करोड़ों फोन नंबर ब्लाक कर दिए गए.

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क्या किसी को फर्क पड़ रहा है कि सात करोड़ से अधिक लोगों के फोन ब्लॉक कर दिए गए हैं. आप कोरपोरेट कंपनियों से अभिव्यक्ति की आज़ादी की उम्मीद करते हैं लेकिन नाइजीरिया में किसी भी टेलिकाम कंपनी ने सरकार के इस आदेश का विरोध नहीं किया कि सात करोड़ से अधिक लोगों के फोन कैसे ब्लॉक किए जा सकते हैं. क्या दुनिया कुछ कर पा रही है? क्या ग्लोबल लीडर ने कुछ किया? 

अभी मंगलवार को ही अमरीका ने तुर्की की निंदा की है. तुर्की में एक प्रमुख बिज़नेसमैन और दानकर्ता ओस्मान कवाला को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई है. इस बिज़नेसमैन पर आरोप हैं कि इन्होंने 2016 में एर्दोगन की सरकार गिराने की साज़िश रची थी. कवाला पर जासूसी के भी आरोप लगे थे मगर उससे बरी हो गए. अमरीका ने कहा है कि यह मामला अभिव्यक्ति की आज़ादी और न्यायिक स्वतंत्रता की परीक्षा है. अमरीकी विदेश विभाग ने बयान जारी कर कहा है कि तुर्की के लोगों को मौलिक अधिकारों के इस्तेमाल का मानवाधिकार मिलना ही चाहिए. अमरीका ने निंदा कर दी लेकिन हुआ क्या? पिछले साल जब जर्मनी और फ्रांस ने बिज़नेसमैन की रिहाई की मांग की तो एर्दोगन ने दस देशों से अपने राजदूत बुला लेने की धमकी दे डाली. अमरीका और जर्मनी से भी राजदूत बुला लेने की धमकी दे डाली.

अमरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने दुनिया भर में लोकतंत्र और मीडिया को मज़बूत करने की बात कही थी, लेकिन वो बात ही रह गई. पत्रकारों की गिरफ्तारी और हत्या पर बाइडन की किसी निंदा या पहल का कोई असर अभी तक दिखाई नहीं दिया. दुनिया के हर मुल्क में जनता के अधिकार सीमित किए जा रहे हैं. कहीं सरकार कर रही हैं कहीं सरकार और कोरपोरेट दोनों मिलकर कर रहे हैं. 

बुधवार को ही श्रीलंका से बीबीसी की एक रिपोर्ट है कि इस साल के पहले तीन महीने में ही कोलंबो में 52 मानवाधिकार कार्यकर्ताओं औऱ सामुदायिक नेताओं की हत्या कर दी गई है. 2021 में पूरे साल भर में ऐसे 145 कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई थी. मारे गए लोगों में से वे हैं जो ड्रग माफिया और अवैध हथियारबंद गिरोह से लोहा लेते हैं. इनमें से 28 ऐसे सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो ज़मीन के अधिकार की लड़ाई लड़ा करते थे. कोलंबो की मानवाधिकार संस्था ने यह जानकारी दी है. 

ग्लोबल लेवल पर लोकतंत्र इतना ही बचा हुआ है कि लीडर मिल रहे हैं और बात कर रहे हैं. सारी बातचीत एक दूसरे की करतूतों को नज़रअदाज़ कर, बिज़नेस की होती है. नेता एक दूसरे की तानाशाही प्रवृत्तियों को लेकर साफ-साफ नहीं बोलते हैं. पश्चिम के जिस प्रेस से उम्मीद की जाती है, उसके अपने अंतर्विरोध हैं और उनका बहुत ज़्यादा असर नहीं है. 

लोकतंत्र की लड़ाई कई एजेंसियां लड़ती हैं. अदालत भी, जनता भी और राजनीतिक दल भी. अगर उन्हें लगता है कि ये लड़ाई लड़ी जानी चाहिए. ग्लोबल लीडर केवल भाषण देते हैं. क्या सुप्रीम कोर्ट राजद्रोह की धारा 124 को समाप्त कर देगा? चीफ जस्टिस एन वी रमना, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस हिमा कोहली की बेंच 5 मई को इस बारे में सुनवाई करेगी. सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा है कि केंद्र सरकार का भी जवाब तैयार है. दो तीन दिन और लगेंगे, केंद्र सरकार अपना पक्ष अदालत के सामने रख देगी. एडिटर्स गिल्ड आफ इंडिया ने पिछले साल आईपीसी की धारा 124 की वैधता के ख़िलाफ़ याचिका दायर की थी. साथ ही, मेजर-जनरल (अवकाशप्राप्त) एसजी वोमबटकेरे द्वारा दायर याचिका में दलील दी गई है कि राजद्रोह से संबंधित भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए पूरी तरह असंवैधानिक है. 15 जुलाई 2021 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इस कानून की वैधता की जांच होगी.

कोर्ट ने कहा था कि सरकार पुराने कानूनों को क़ानून की किताबों से निकाल रही है तो इस कानून को हटाने विचार क्यों नहीं किया गया? इसका इस्तेमाल अंग्रेज़ों ने भारत के स्वतंत्रता सेनानियों का गला घोंटने के लिए किया था. अदालत इसके दुरुपयोग को लेकर चिन्तित है. देशद्रोह कानून संस्थाओं के कामकाज के लिए गंभीर खतरा है. CJI रमना ने कहा था कि राजद्रोह का इस्तेमाल बढ़ई को लकड़ी का टुकड़ा काटने के लिए आरी देने जैसा है और वह इसका इस्तेमाल पूरे जंगल को काटने के लिए करता है. उस समय अटार्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने आई पी सी 124 की वैधता का बचाव करते हुए कहा था कि कानून के दुरुपयोग को रोकने के लिए कुछ दिशानिर्देश बनाए जा सकते हैं.

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