नमस्कार, और कांग्रेस में जारी गृहयुद्ध की 203वीं कड़ी (या कहीं यह 406वीं कड़ी तो नहीं) आपका स्वागत है. लम्बे समय तक चलने वाले किसी धारावाहिक की तरह, जो शुरू तो काफी जोश के साथ हुआ था, लेकिन अब रोज़मर्रा की एकरूपता में सिमटकर रह गया है. 'द बॉल्ड एंड द बोरिंग' का कांग्रेस का वर्शन कोशिश ज़रूर करता है कि कहानी में रोज़ाना कोई नया घुमाव, नया ट्विस्ट लाए, लेकिन अब किसी को परवाह नहीं.
इस सप्ताह कहानी हमें जम्मू ले गई. चतुर गुलाम नबी आज़ाद ने गुप्त बैठक वहां क्यों आयोजित की? और फिर कोलकाता. क्या कांग्रेस एक कट्टरपंथी मौलाना से सीट-बंटवारे का कोई समझौता कर अपनी ही विचारधारा को धोखा दे रही है? वापस दिल्ली आइए. अधीर रंजन चौधरी क्यों पार्टी सहयोगियों से ट्विटर पर संपर्क कर रहे हैं? क्या वह फोन करना नहीं जानते? क्या उनका व्हॉट्सऐप/टेलीग्राम/सिगनल काम नहीं कर रहा है? क्या नेपथ्य में जिस हंसी की आवाज़ आप सुन पा रहे हैं, वह वह अमित शाह और नरेंद्र मोदी की हंसी है?
कांग्रेस की अंदरूनी लड़ाई अब इतनी थकाऊ और दोहरावभरी हो गई है कि जो लोग इस सरकार को रोकने के लिए एक राजनौतिक ताकत को चाहते हैं, उन्हें भी इस पार्टी से कोई उम्मीद नहीं रह गई है. बल्कि वे विपक्षी पार्टियों से इतर जाकर देखने लगे हैं कि कैसे किसानों के विरोध प्रदर्शन सरीखे आंदोलनों से श्री मोदी परेशान महसूस हो रहे हैं. वे नागरिक अधिकारों पर हो रहे सरकार के ज़्यादा प्रबल हमलों से लड़ने के लिए अदालतों की ओर देख रहे हैं, राजनेताओं की तरफ नहीं.
कांग्रेस ऐसी पहली पार्टी नहीं है, जो विपक्ष की भूमिका में पहुंचने के बाद खुद को ही नुकसान पहुंचाने लगी हो. ब्रिटिश लेबर पार्टी ने भी उस दशक में कुछ ऐसा ही किया था, जब 1979 में मार्गरेट थैचर सत्ता में आई थीं. और खुद कांग्रेस ने भी 1977-79 में एमरजेंसी के बाद वाले काल में आपसी लड़ाइयों और टूट के चलते यही किया था.
लेकिन आज जो कुछ कांग्रेस में हो रहा है, उससे कतई मिलता-जुलता माहौल तब बना था, जब 1969 में कांग्रेस में दोफाड़ हुआ था. यह वह समय था, जब इंदिरा गांधी ने पार्टी को तोड़ दिया था, और 1971 के चुनाव में दो अलग-अलग कांग्रेस पार्टियों ने किस्मत आज़माई थी.
श्रीमती गांधी का साथ युवा, ज़्यादा आक्रामक नेता दे रहे थे, और विरोधी धड़े में उनके पिता (पंडित जवाहरलाल नेहरू) के काल के नेता थे, जो दशकों तक सत्ता में रह चुके थे. प्रेस ने इन नेताओं को 'द सिन्डीकेट' का नाम दिया और उनकी ऐसी छवि पेश की, जैसे वे पुरानी पीढ़ी हैं, जो समकालीन भारत से अलग हो चुकी है और नए कांग्रेसियों को रास्ता नहीं दे रही है.
वास्तव में, लड़ाई सिर्फ एक शख्स के बारे में ही थी. सिन्डीकेट सिर्फ इंदिरा गांधी को पसंद नहीं करता था, और उन्हें बाहर करना चाहता था.
ऐसा ही आज हो रहा है.
सही शब्दों में कहें, तो कांग्रेस में आज दिख रही लड़ाई भी सिर्फ एक शख्स के बारे में है - राहुल गांधी. बागियों का मानना है कि वह पार्टी का नेतृत्व करने के लिए अक्षम हैं, कम से कम एक सामूहिक नेतृत्व के अभाव में तो हैं ही. दुर्भाग्य से, उनका कहना है, उनके (राहुल के) सलाहकार ज़्यादा होशियार नहीं हैं, ज़रूरत से ज़्यादा वफादार हैं, (तुलनात्मक रूप से) युवा कांग्रेसी हैं, जो पार्टी पर नियंत्रण चाहते हैं.
पिछले कुछ महीनों में बागियों के लिए माहौल निराशाजनक हो चला है, क्योंकि शुरुआत में जिन्हें पार्टी के भीतरी लोकतंत्र की आवाज़ के रूप में देखा जा रहा था, अब उन्हें 'द सिन्डीकेट' के इस शताब्दी के संस्करण के रूप में देखा जाने लगा है - वे बुज़ुर्ग, जो बस पार्टी में जमे हुए हैं.
यह कतई जायज़ नहीं है, लेकिन यह काम कर रहा है, क्योंकि 1) बागी अधिकतर बुज़ुर्ग हैं और 2) वे सचमुच शांत नहीं हो रहे हैं. लेकिन इंदिरा ने सिन्डीकेट से अपनी लड़ाई को पूरे देश के लिए जुनून बना छोड़ा था, वहीं कांग्रेस का मौजूदा धारावाहिक लगातार अपनी लोकप्रियता खोता जा रहा है.
हालांकि इसका कुछ श्रेय कांग्रेस की लड़ाई के खोखलेपन को भी जाता है. 1969 में, इंदिरा गांधी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही थीं. लेकिन वह इतनी चतुर भी थीं कि उन्होंने उसे विचारधारा की लड़ाई बना दिया था. उन्होंने घोषणा की थी कि वह रईसों के मज़बूत गढ़ का मुकाबला गरीबों की पैरोकार बनकर कर रही थीं, ताकि प्रशासन का वामपंथी समाजवादी ढांचा तैयार कर सकें.
विचारधारा वाला विकल्प इस वक्त कांग्रेस के दोनों में से किसी धड़े के पास नहीं है, क्योंकि कांग्रेस के गरीबों का ध्यान रखने वाले कल्याणकारी कदमों का प्लेटफॉर्म नरेंद्र मोदी पहले ही कब्ज़ा चुके हैं, और कामयाब भी रहे हैं. जैसा अरुण शौरी ने कहा है, आज की BJP का अर्थ है - 'कांग्रेस जमा गाय...'
अब जब कांग्रेस का मुख्य मुद्दा ही कब्ज़ा लिया गया है, कांग्रेस के पास एक ही रास्ता बचा है कि वे 'गाय' को अपना लें, जो वह ज़ाहिरा वजहों से नहीं करेंगे.
किसी भी विचारधारा से वंचित नए सिन्डीकेट और राहुल गांधी की लड़ाई अब सिर्फ पार्टी के नियंत्रण की लड़ाई बनकर रह गई है, जो ज़्यादातर भारतीयों को थकाऊ और ऊबाऊ लगने लगी है.
कुछ लोगों को ऐसा सोचना काफी अच्छा लगता है कि कांग्रेस बेहद होशियार, चतुर पार्टी है और BJP और उसके पास मौजूद अरबों रुपयों को मात दे सकती है. लेकिन हाल ही में पुदुच्चेरी में हुआ तजुर्बा बताता है कि कांग्रेस में इतना सक्षम कोई नहीं है, जो मोदी-शाह से लड़ने के लिए प्रभावी गुरिल्ला ऑपरेशन लॉन्च कर सके (बस, एक अशोक गहलोत ही रहे, जो सारी विपरीत परिस्थितियों में भी राजस्थान में अपनी सरकार बचाए रख सके).
राहुल गांधी के साथ समस्या यह है कि भले ही उनके समर्थक उनके बारे में अक्सर सही बोलते हैं, लेकिन यह गुण सत्ता में लौट पाने में कांग्रेस की मदद नहीं कर पाएगा. हां, शायद राहुल एकमात्र राष्ट्रीय नेता है, जिनमें नाम लेकर मोदी-शाह की जोड़ी पर हमला बोलने की हिम्मत है, और उनके (मोदी-शाह के) जिन कामों को वह गलत मानते हैं, उन पर आक्रमण कर सकें (उदाहरण के लिए - 'हम दो, हमारे दो'). लेकिन इन व्यक्तिगत हमलों की समस्या यह है कि वे सिर्फ उन लोगों को भाते हैं, जो पहले से ही श्री मोदी के खिलाफ हैं. ये लोग बेहद साफ-साफ बात करते हैं, लेकिन BJP को तो ये लोग वैसे भी कभी वोट देने वाले हैं ही नहीं. कांग्रेस को अगर कुछ हासिल करना है, तो उन्हें उन मतदाताओं को जीतना होगा, जो तय नहीं कर पाते हैं, और जिनका मोदी जी से मोहभंग हो रहा है. कुछ असभ्य चुटकुलों से इस काम में मदद नहीं मिलेगी.
इस बात से भी कतई मदद नहीं मिलेगी, जब कांग्रेसी सोशल मीडिया पर राहुल गांधी के बाइसेप्स का गुणगान करेंगे. यह शख्स क्या बनने के लिए जंग कर रहा है - प्रधानमंत्री, या मिस्टर इंडिया?
लेकिन इस वक्त कांग्रेस में जारी जंग में दोनों में से कोई भी पक्ष हार मानने को तैयार नहीं दिख रहा है. सो, यह धारावाहिक रोज़-ब-रोज़ जारी रहेगा और श्री मोदी पोलिंग बूथ तक ठहाके लगाते रहेंगे.
सो, अपना रिमोट कंट्रोल तैयार रखिए. हो सकता है, यह धारावाहिक घिसटते चले जाने पर आप शायद चैनल बदलना चाहें.
वीर सांघवी पत्रकार तथा TV एंकर हैं...
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