कोरोना महामारी से हो रही मौतों और स्वास्थ्य व्यवस्था की बदहाली के साथ नरेन्द्र मोदी सरकार की वैक्सीन नीति पर भी सवाल उठ रहे हैं. 3 जून को सुनवाई करते हुए जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की स्पेशल बेंच ने मोदी सरकार को फटकारते हुए वैक्सीन नीति का पूरा हिसाब किताब देने का आदेश दिया था. राज्य सरकारों को वैक्सीन खरीदने का दबाव बनाने वाली नीति का विरोध करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि आम बजट में कोरोना से निपटने के लिए आवंटित 35 हजार करोड़ का वैक्सीनेशन के लिए इस्तेमाल क्यों नहीं किया गया? परिणामस्वरूप सोमवार को शाम 7 बजे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्र को संबोधित किया. संबोधन में उन्होंने राज्य सरकारों पर पड़ने वाले बोझ को हलका करते हुए 21 जून से 18 साल से अधिक आयु के सभी लोगों को केन्द्र सरकार द्वारा मुफ्त वैक्सीन देने का ऐलान किया. मोदी ने वैक्सीन के उत्पादन पर भी बात की. गौरतलब है कि भारत के 4 संस्थानों में टीके पर शोध किया गया. भारत के 9 संस्थानों में कई देशों के संस्थानों के सहयोग से वैक्सीन बनाई जा रही है. लेकिन मोदी सरकार पर आरोप है कि वैक्सीन के उत्पादन का पेटेंट सिर्फ भारत बायोटेक को ही दिया गया है. इससे कम उत्पादन हो रहा है. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 18 अप्रैल को एक पत्र लिखकर मोदी सरकार से अपील की थी कि दूसरी कंपनियों को भी टीका उत्पादन का अधिकार दिया जाए. एक सवाल यह भी है कि भारत बायोटेक ने जिस दाम पर केन्द्र सरकार को वैक्सीन उपलब्ध कराई है, उसका दो गुना और तीन गुना दाम राज्य सरकारों से क्यों वसूल किया गया. गैर भाजपा राज्य सरकारों ने इस नीति की खुलकर आलोचना की. इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि जब नरेन्द्र मोदी कोरोना को शताब्दी की सबसे बड़ी महामारी कह रहे हैं तो उन्होंने इस आपदा से निपटने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर क्यों छोड़ दी थी?
दरअसल, स्वास्थ्य को राज्य का विषय बताकर मोदी सरकार ने कोरोना महामारी के विकट संकट से अपना पल्ला झाड़ लिया था. जबकि यह स्वास्थ्य का विषय नहीं, बल्कि आपदा का मामला है. संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार महामारी से निपटने की जिम्मेदारी केन्द्र सरकार की है. अलग-अलग प्राइवेट अस्पतालों में वैक्सीन का दाम अलग अलग क्यों है? अव्वल तो अगर केन्द्र सरकार मुफ्त वैक्सीन देने की बात कर रही है तो प्राइवेट अस्पतालों में लोगों से पैसा क्यों वसूल किया जाए? नरेन्द्र मोदी द्वारा प्राइवेट अस्पतालों को 150 रुपए सर्विस चार्ज वसूलने की छूट क्यों दी जा रही है? राहुल गांधी ने ट्वीट करते हुए सरकार को इस मुद्दे पर घेरा है. बहरहाल, लगता है कि सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद बेपरवाह मोदी सरकार चौकन्ना हुई है. हालांकि अब तक देश और लोगों का बहुत नुकसान हो चुका है. मोदी सरकार की वैक्सीन नीति शुरू से ही संदेहास्पद रही है. इस नीति को थोड़ा तफसील से समझने की जरूरत है.
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारत की 135 करोड़ जनता की परवाह ना करते हुए 'करोना मैत्री' कूटनीति के तहत 20 जनवरी 2021 से वैक्सीन दूसरे देशों में भेजना शुरू कर दिया था. लोकसभा में विदेश राज्य मंत्री वी. मुरलीधरन ने एक लिखित उत्तर में बताया कि 21 मार्च तक 6.45 करोड़ खुराक 76 देशों को भेजी गईं. इनमें 1.05 करोड़ खुराक अनुदान के तहत, 3.58 करोड़ व्यवसायिक समझौता के रूप में तथा 1.82 करोड़ कोवैक्स व्यवस्था के तहत दी गईं.' 28 जनवरी को वर्ल्ड इकोनोमिक फोरम की दावोस बैठक को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बड़े गर्व से ऐलान किया कि 'भारत ने कोरोना से जंग जीत ली है. उसने दुनिया को बड़ी त्रासदी से बचाया है. अब वह दुनिया को रास्ता दिखा रहा है.' अपनी वैश्विक छवि चमकाने के लिए नरेन्द्र मोदी ने नेपाल, सेशेल्स जैसे करीब 40 देशों को मुफ्त में वैक्सीन उपलब्ध कराई है. भारत में कोरोना की दूसरी लहर आने की वायरस विशेषज्ञों की चेतावनी के बावजूद मोदी सरकार ने कुछ ऐसे देशों को वैक्सीन दी, जहां डेथ रेट बेहद कम था. यानी वहां वैक्सीन की बहुत जरूरत नहीं थी.
क्या अपने लोगों की जान की चिंता छोड़कर नरेन्द्र मोदी अपनी वैश्विक ब्रांडिंग करने के लिए ऐसा कर रहे थे? जबकि उन्हें मालूम था कि भारत की विशाल जनसंख्या के लिए पर्याप्त वैक्सीन उपलब्ध नहीं है. यही कारण है कि जब कोरोना संकट गहराया और वैक्सीनेशन की मांग बढ़ी तो सरकार ने पिंड छुड़ाने के लिए राज्य सरकारों पर जिम्मेदारी डाल दी. राज्य सरकारों को ग्लोबल टेंडर डालने के लिए कहा गया. अपनी साख बचाने के लिए कुछ राज्य सरकारों ने विदेशी कंपनियों से वैक्सीन खरीदने की कोशिश की, लेकिन पहले कंपनियों ने तत्काल वैक्सीन उपलब्ध कराने से इनकार कर दिया क्योंकि उनके पास पहले से ही दूसरे देशों का आर्डर पूरा करने का दबाव था. दूसरा, इन कंपनियों ने केन्द्र सरकार की गारंटी मांगी. लेकिन मोदी सरकार 1 मई से ही राज्य सरकारों पर जिम्मेदारी डालकर मुक्त हो चुकी थी. ऐसे में राज्य सरकारों को बहुत मुश्किलें उठानी पड़ीं. उसके बाद हेमंत सोरेन, अशोक गहलोत, पिनराई विजयन, अरविंद केजरीवाल और नवीन पटनायक सरीखे मुख्यमंत्रियों ने वैक्सीन के उपलब्ध नहीं होने का ऐलान कर दिया और केन्द्र को अपनी जिम्मेदारी याद दिलाई.
नरेन्द्र मोदी बिल्कुल बेपरवाह होकर वैक्सीन विदेश भेज चुके थे, जबकि वे जानते थे कि भारत के लिए टीके पर्याप्त नहीं हैं. मार्च में संक्रमण बढ़ रहा था, लेकिन मोदी सरकार बंगाल सहित पांच राज्यों के चुनाव में व्यस्त थी. ईवेंट के मास्टर मोदी ने 11 अप्रैल से 14 अप्रैल तक यानी चार दिन का टीका उत्सव मनाने का ऐलान किया. इस समय 45 साल से अधिक उम्र के लोगों को टीका दिया जाना था. लेकिन सच यह है कि उस समय सरकारी टीकाकरण की रफ्तार बहुत धीमी थी. शहरों और महानगरों में रहने वाले अमीर और उच्च मध्यवर्ग के लोग अपना पैसा लगाकर प्राइवेट अस्पतालों में टीका लगवा रहे थे. लेकिन गांव और गरीब को टीका मयस्सर नहीं था. जब संक्रमण प्रतिदिन चार लाख पहुंचा और तीन से चार हजार मौतें होने लगीं तो सरकार ने 1 मई से 18-44 साल की उम्र के लोगों के टीकाकरण का ऐलान कर दिया. टीका लेने के लिए लोगों की लंबी होती फेहरिश्त और टीका नहीं मिलने की शिकायत पर राज्य सरकारों ने स्पष्ट कर दिया कि उनके पास टीके उपलब्ध नहीं हैं. इसी समय दिल्ली में कथित तौर पर आम आदमी पार्टी ने एक पोस्टर जारी किया- 'मोदी जी, हमारे बच्चों की वैक्सीन विदेश क्यों भेज दी?' तो वैक्सीन नीति दुरुस्त करने के बजाय पोस्टर लगाने वाले मजदूरों के खिलाफ एफआईआर करके मुकदमे दायर कर दिए गए.
मोदी की वैक्सीन नीति पर एक आरोप यह लगता है कि मुफ्त और सस्ती दरों पर करोड़ों टीके विदेश भेजने वाला भारत अब दूसरे देशों से महंगे दाम पर वैक्सीन खरीद रहा है.
वैक्सीन के लिए ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं. गांव में रहने वाले लोग कैसे ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन करेंगे? क्या मोदी सरकार केवल वैक्सीन के आंकड़े जुटाना चाहती है? क्या उसे लोगों की तकलीफ की कतई चिंता नहीं है? एक सवाल यह भी है कि वैक्सीनेशन के पश्चात दिए जाने वाले प्रमाण पत्र पर नरेन्द्र मोदी का फोटो क्यों छपा हुआ है?
(डॉ. रविकान्त लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)
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