जो लोग पिछले कुछ वर्षों के हिंदुस्तान को ध्यान से देख रहे हैं, उन्हें अंदाज़ा था कि इंदौर में चूड़ी वाले की पिटाई के मामले का क्या हश्र होना है. उस चूड़ी वाले के कई अपराध थे. उसका नाम तसलीम था. वह ऐसे समय में एक हिंदू मोहल्ले में दाख़िल हुआ था जब किसी और मोहल्ले में छेड़छाड़ और मारपीट हुई थी, फिर यह वह भी समय था जब तालिबान की क्रूरता के किस्से भारतीय मीडिया में सबसे ज़्यादा बिक रहे थे.
उसे भी मालूम था कि पिटाई और पैसे छीन लिए जाने के बावजूद वह खुशक़िस्मत है कि उसकी जान बच गई. उसने थाने पहुंच कर शिकायत की, लेकिन उसकी हिम्मत नहीं हुई कि वह एफआइआर दर्ज कराए. उसके लिए इंसाफ़ का मतलब बस वहां के सुरक्षित निकल जाना रह गया था- संभव हो तो अपने कुछ छीने हुए पैसे और साज़ो-सामान मिल जाने की उम्मीद भर था.
लेकिन उसे नहीं मालूम था कि भारत में क़ानून का नया खेल उसकी राह देख रहा है. उससे बस ग़लती यही हुई कि वह अपने लोगों की बातों में आकर इंसाफ़ की मांग कर बैठा. पुलिस ने थाना घेरने वालों के ख़िलाफ़ मुकदमा तो किया ही, अगले दिन लोगों ने उसके ख़िलाफ़ भी केस कर दिया. रातों-रात एक ग़रीब चूड़ी वाला, जो इस देश में खनकती हुई कलाइयों और खिलखिलाती हुई कन्याओं की याद दिलाता था- बाल यौन उत्पीड़न का अपराधी बना दिया गया. इसके लिए जिस छोटी बच्ची के बयान का इस्तेमाल किया गया, उसके बारे में सोच कर सिहरन सी होती है. इस कच्ची उम्र में उसे न जाने क्या-क्या सिखा दिया गया है. अब तसलीम नाम के इस शख़्स पर पॉक्सो के ऐक्ट में मुक़दमा चलेगा जिसके लिए ज़मानत तक नहीं है.
बहरहाल, इंसाफ़ का ये तरीक़ा आज के हिंदुस्तान में नया नहीं है. 2015 में दादरी के बिसाहड़ा गांव में एक भीड़ ने घुस कर अखलाक को मारा. फिर अख़लाक़ पर ही यह केस हो गया कि उसने घर में गोमांस रखा था. 2017 में गोमांस तस्करी के शक में पीट-पीट कर मार डाले गए पहलू ख़ान और उसके बेटों पर पुलिस ने गो तस्करी का केस लगा रखा था जिसे बाद में राजस्थान हाइकोर्ट के आदेश से खारिज किया गया. जैसे यह काफ़ी न हो, झारखंड में मॉब लिंचिंग के आरोपियों को मोदी सरकार में मंत्री रहे जयंत सिन्हा ने माला पहनाई. राजस्थान में बस मुसलमान होने के क़सूर में एक शख्स की तलवार से हत्या करने वाले शंभू रैगर का मुक़दमा लड़ने के लिए लोगों ने पैसा जुटाने की मुहिम चलाई.
भारतीय समाज में यह क्रूरता नई है. 1999 में जब दारा सिंह नाम के बजरंग दल के एक नेता ने ओडिशा में एक पादरी ग्राहम स्टेंस और उसके दो सोए हुए बच्चों को जीप में ज़िंदा जला दिया था, तब उसके बचाव में कोई नहीं आया था. सब मानते थे कि यह एक घृणित कृत्य है. आज दारा सिंह ने यह हरकत की होती तो उसकी पीठ थपथपाने वाले निकल जाते- यह बताते हुए कि वह हिंदू समाज का कितना बड़ा नायक और सेवक है.
क्या यह वही 'न्यू नॉर्मल' है जिसकी चर्चा इन दिनों लगातार हो रही है? इंसाफ़ के खिलवाड़ अपने देश में नए नहीं हैं. न्याय की डरावनी वि़डंबनाओं से हम दो-चार होते रहे हैं. इस देश में गरीब आदमी के लिए न्याय आकाश कुसुम जैसा रहा है- वह जितना पास आता है, न्याय का फूल उतनी ही दूर होता जाता है. बल्कि अमीर के हिस्से की सज़ाएं भी गरीब काटते रहे हैं. जातियों के हिसाब से अपराध तय होते रहे हैं. यह भारत के उच्चजातीय सामाजिक मनोविज्ञान का हिस्सा रहा है.
नई बात उसमें बस यह जुड़ी है कि जिस संविधान ने इस व्यवस्था और सोच को बदलने की कोशिश की, उसी के नुमाइंदे अब उसी मनोविज्ञान को और मज़बूत करने पर तुले हैं. पहली बार राजनीतिक सत्ता पूरी बेशर्मी से अल्पसंख्यकों के विरोध में खड़ी है. तसलीम के बारे में बिना आधिकारिक पुष्टि के मध्य प्रदेश के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्र ने दावा कर दिया कि उसके दो आधार कार्ड हैं. जबकि इंडियन एक्सप्रेस में छपी रिपोर्ट के मुताबिक तसलीम ने बहुत स्पष्ट बताया कि उसके वोटर कार्ड में उसका पुकारने वाला नाम भूरा दर्ज है और उसका एक ही आधार कार्ड है जिस पर उसका नाम तसलीम है.
जाहिर है, मध्य प्रदेश के मंत्री अपनी पार्टी के आइटी सेल की तरह व्यवहार कर रहे हैं. उन्हें एक गरीब आदमी की पहचान के साथ खिलवाड़ करने में, उस पर झूठा आरोप लगाने में, उसे मुजरिम बताने में ज़रा भी मुश्किल नहीं होती. इसे चाहें तो जेएनयू के छात्र नेता रहे उमर ख़ालिद को खलनायक बनाने की बीजेपी और मीडिया की कोशिश का छोटा सा रूप मान सकते हैं. उमर ख़ालिद ने महाराष्ट्र के अमरावती में एक भाषण दिया, बीजेपी आइटी सेल के मुखिया ने उसका कटा-छंटा रूप ट्वीट किया, मीडिया ने वहीं से उठा कर उसे चलाया और उसी आधार पर पुलिस ने दिल्ली दंगों में उसे आरोपी बना डाला. इसी तरह एक चूड़ी वाला पिटा, उसको पीटने वाले पकड़े गए, अब उनके बचाव में राज्य का मंत्री खड़ा हो गया है और झूठ बोल रहा है.
दुर्भाग्य से हिंदुस्तान का वर्तमान और इतिहास ऐसे ही झूठों से रचे जा रहे हैं. वाट्सऐप पर हर सरकारी नाकामी के विरुद्ध एक विरुदावली दिखती है जिसमें अनाप-शनाप तथ्यों के साथ एक जोशीला भाषण आगे बढ़ाने की अपील की जाती है. ऐसे लगभग सभी भाषणों के निशाने पर अल्पसंख्यक होते हैं.
यह देश आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है? लेकिन क्या यह वही देश है जिसने आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी? और क्या यही आदर्श थे जिनके साथ यह लड़ाई लड़ी गई थी? जिस हिंदुस्तान का सपना इस देश ने देखा था, क्या यह वही हिंदुस्तान है?
शायद नहीं. तब गांधी जो रामधुन गाते थे, उसमें 'रघुपति राघव राजा राम' में 'ईश्वर अल्लो तेरो नाम' भी आता था. अब यह बताने वाले लोग निकल आए हैं कि मूल भजन में यह पंक्ति नहीं थी, इसे गांधी जी ने अपनी ओर से जोड़ा था. वे यह नहीं समझ पा रहे कि गांधी ने भजन में एक पंक्ति नहीं जोड़ी थी, नए बनते हिंदुस्तान में एक नई बुनियाद जोड़ी थी.
जिस समय गांधी अपनी प्रार्थना सभाओं में यह भजन गाया करते होंगे, ठीक उसी समय जर्मनी में हिटलर यहूदियों को दोयम दर्जे के नागरिक बना रहा था. भारत से जर्मनी की तुलना ठीक नहीं. जर्मनी में साठ लाख यहूदी मार दिए गए थे. भारत में हम इसकी कल्पना नहीं कर सकते.
लेकिन क्या बीस और तीस के दशकों में जर्मनी ने इसकी कल्पना की होगी? तीस के दशक से ही वहां यहूदियों को किनारे करने का काम शुरू हो गया था. चालीस के दशक में जो भयावह नरसंहार सामने आया, उसके बीज ऐसी ही छंटाई से पड़े थे.
निस्संदेह भारत के जर्मनी होने की कल्पना नहीं की जा सकती. भारत की मिट्टी जर्मनी से काफ़ी अलग है. वैसे भी इतिहास की विडंबनाएं हमेशा ख़ुद को जस के तस नहीं दुहरातीं. लेकिन इसमें संदेह नहीं कि अगर हम अपनी बीस करोड़ की आबादी को न्याय और बराबरी का भरोसा नहीं दिला पाए, उनके साथ समुचित बरताव नहीं कर पाए तो हम अपने ही देश के साथ न्याय नहीं करेंगे- हम ऐसे देश होंगे जिसमें लोकतंत्र सबका ख़याल रखने की संवेदनशीलता का नहीं, बहुसंख्यक के अतिचार का नाम होगा और धीरे-धीरे वह तानाशाह प्रवृत्तियों को बढ़ावा देता जाएगा. तसलीम का इंसाफ़ उसके लिए ज़रूरी है, लेकिन उससे ज़्यादा हिंदुस्तान के लिए ज़रूरी है.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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