This Article is From Jan 18, 2022

ये सांप्रदायिक उन्माद की घड़ी है, पहरुए सावधान रहना

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Priyadarshan

उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को 312 सीटें मिलीं- किसी भी चुनाव सर्वेक्षण और एग्ज़िट पोल से ज़्यादा. ऐसी बंपर कामयाबी की उम्मीद किसी ने नहीं की थी. लेकिन बीजेपी इन 312 विधायकों में किसी को मुख्यमंत्री नहीं बना सकी. मुख्यमंत्री बने योगी आदित्यनाथ, जो तब सांसद थे और जिनको पूर्वांचल का मोदी कहा जाता था. याद करने लायक तथ्य यह भी है कि बाद में जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल बनाए गए मनोज सिन्हा यूपी के मुख्यमंत्री पद की दौड़ में आगे ही नहीं थे, बल्कि उनके घर मिठाइयां बंटनी शुरू हो गई थीं. लेकिन बीजेपी के अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि योगी आदित्यनाथ ने लगभग अंगद की तरह पांव अड़ा कर दूसरों का रास्ता रोक दिया और खुद मुख्यमंत्री बन गए. दावा यह था कि यूपी की विराट जीत में उनका योगदान सबसे बड़ा है.

लेकिन 2017 अगर एक अवसर था तो 2022 एक चुनौती है. इस चुनौती की एक बड़ी विडंबना ये है कि जिस कार्यकाल में राम मंदिर के निर्माण का आंदोलन एक निर्णायक परिणति तक पहुंचा, जिस कार्यकाल में लव जेहाद, गोवध जैसे मुद्दे छाए रहे, जिस कार्यकाल में काशी विश्वनाथ के पुनरुद्धार का कारोबार चला, उसमें भी न योगी आदित्यनाथ ख़ुद को निष्कंटक पा रहे हैं और न प्रधानमंत्री मोदी. यही नहीं, जो लोग यूपी में बीजेपी के आगमन की संभावना देखते हुए 2017 में धड़ाधड़ बीजेपी में शामिल हो रहे थे, वे अब हवा उल्टी बहती देखकर दूसरी तरफ़ खिसक रहे हैं. ये अवसरवादी हो सकते हैं, महत्वाकांक्षी हो सकते हैं, लेकिन ये हवाओं को सूंघने वाले लोग हैं और इन्हें पता है कि इस बार राष्ट्रवाद का फूल खिलने की संभावना कितनी है और समाजवाद की साइकिल कितनी दूर तक जा सकती है. दूसरी बात यह कि इस दौर में बीजेपी का साथ वे नेता छोड़ रहे हैं जिनके साथ बीजेपी के खेमे में गैरयादव पिछड़ी जातियों का वोट आया था. इनकी एकमुश्त 'घर वापसी' यह संदेश दे सकती है कि बीजेपी पिछड़े समुदायों के साथ राजनीतिक न्याय नहीं कर रही. आख़िर बीते कुछ दिन में योगी सरकार के तीन मंत्री इस्तीफ़ा दे चुके हैं और आधा दर्जन से ज़्यादा विधायक- और सबने एक ही वजह बताई कि बीजेपी सरकार दलितों, पिछड़ों, कमज़ोर तबकों की अनदेखी कर रही है.

लेकिन यह हवा बनी कैसे? नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ की डबल इंजन सरकार वह ऊर्जा क्यों नहीं पैदा कर सकी जिससे उनकी ट्रेन बिल्कुल आश्वस्त ढंग से 2022 का स्टेशन पार कर पाए? निश्चय ही इसकी एक वजह वह किसान आंदोलन है जिससे निबटने में केंद्र सरकार बुरी तरह नाकाम रही. रही-सही कसर बीजेपी के अहंकारी रवैये ने पूरी कर दी. दूसरी बात यह कि किसान आंदोलन के दौरान हासिल लोकतांत्रिक समझ ने यूपी के किसानों को बहुत दूर तक जोड़ दिया है. वहां जाति और धर्म के कठघरे नहीं बचे हैं, ये कहना तो नादानी होगी, लेकिन ऐसा लग रहा है कि इन कठघरों के नाम पर किसान सबकुछ दांव पर लगाने को तैयार नहीं हैं. उन्होंने देखा है कि उनके ही वोट से बनी सरकार उनके प्रति कितनी ग़ैरजवाबदेह हो सकती है.

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ऐसे में बीजेपी फिर अपने उसी रामबाण तक लौट रही है जिसके सहारे उसने अब तक दुश्मनों को बेसुध किया है. वह तरह-तरह से नफरत की राजनीति कर रही है. धर्म संसद में पूरी तरह सांप्रदायिक, असंवैधानिक और अमानवीय वक्तव्य देने वाले तथाकथित संतों का संरक्षण इसी राजनीति का हिस्सा है. इसका संदेश साफ़ है- घृणा से जुड़ी बयानबाज़ी दूसरों के लिए निषिद्ध है बीजेपी और संघ के समर्थकों के लिए नहीं. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट तक के दख़ल के बावजूद बस दो लोगों को गिरफ़्तार किया गया. इनमें से एक वह वसीम रिज़वी हैं जिन्होंने हाल में धर्म परिवर्तन कराया है और दूसरे वे यति नरसिंहानंद हैं जिन पर महिलाओं को लेकर अभद्र भाषा के इस्तेमाल का भी आरोप है. उन्हें दरअसल गिरफ़्तार इसी आरोप में किया गया था, बाद में हरिद्वार के नफ़रती भाषण का मामला इसमें जोड़ा गया. लेकिन इसी सम्मेलन में जिन तथाकथित संतों के ज़हरीले भाषणों के वीडियो घूम रहे हैं, वे अब भी सीना तान कर घूम रहे हैं कि सरकार में हिम्मत है तो उन्हें गिरफ़्तार करे.

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ऐसा नहीं कि सरकार के पास हिम्मत नहीं है, लेकिन दरअसल उसकी नीयत ही नहीं है. उसे पता है कि ये मामले जितना ज़ोर पकड़ेंगे, इसकी प्रतिक्रिया में जो जोशीले भाषण होंगे, उनका राजनीतिक लाभ बीजेपी को ही मिलेगा. अगर ऐसे जोशीले भाषण न भी सुनने को मिलें तो भी लाभ बीजेपी को ही होगा, क्योंकि इससे यह संदेश जाएगा कि बीजेपी सरकार ने अल्पसंख्यकों को डरा कर रख दिया है. लोनी के विधायक नरेश गुर्जर भी जो भाषा बोल रहे हैं, वह चुनाव की आचार संहिता का नहीं, भारतीयता की आचार संहिता का उल्लंघन है. लेकिन बीजेपी ऐसे लोगों को सम्मानित या संरक्षित करती रही है, इसके उदाहरण अतीत में कई हैं.

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धार्मिक घृणा की राजनीति का दूसरा पहलू बीजेपी का यह आरोप है कि सपा और कांग्रेस हिंदूविरोधी राजनीति कर रहे हैं. उनकी ओर से पेश किया जा रहा इस आरोप का प्रमाण यह है कि सपा ने नाहिद हसन जैसे दागी नेताओं को टिकट दिया है और कांग्रेस को तौक़ीर रज़ा जैसे विवादास्पद बयान देने वाले नेता के साथ दिखने में परहेज नहीं है. बेशक, राजनीतिक टकराव की ज़हरीली भाषा में प्रतियोगिता करने की कोशिश में इन नेताओं के अपने अतिरेकी रुख रहे हैं, लेकिन बीजेपी यहां दोहरा खेल खेलती है. वह अपने साधु-संतों की बात को- जो खुलकर अल्पसंख्यकों के संहार की बात कर रहे हैं और इसके लिए आधुनिक हथियार जुटाने तक की ज़रूरत समझा रहे हैं- उचित ही व्यापक हिंदू समाज की बात नहीं मानती, लेकिन दूसरी तरफ़ वह दूसरे बड़बोले बयान देने वालों को उनके धर्म से जोड़ कर देखती है. यही सच राजनीति के अपराधीकरण के उसके आरोप का है. उसे अपने दाग़ी दिखाई नहीं पड़ते, सपा-बसपा के दिखते हैं. बल्कि उसे राजनीति के अपराधीकरण में अपना वह हिस्सा भी नहीं दिखता जो अटल-आडवाणी के धवल माने जाने वाले व्यक्तित्वों की छाया में रहते हुए था. यह 1998 का साल था, जब कल्याण सिंह सरकार में पहली बार एक साथ कई दाग़ी नेताओं को- दुर्दांत अपराधियों को भी- मंत्री बनाया गया. उसके बाद से ये सिलसिला लगातार बड़ा होता चला गया.

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बहरहाल, इस तर्क से सपा या कांग्रेस का बचाव नहीं किया जा सकता. अगर यूपी को वैकल्पिक राजनीति देनी है तो उसे सांप्रदायिकता से भी मुक्त करना होगा और अपराधीकरण से भी. जिस तीसरी बीमारी की चर्चा कोई नहीं करता, वह चुनावी राजनीति में पैसे का बढ़ता प्रभुत्व है. इन तीनों बीमारियों से मुक्त हुए बिना नेता पार्टियां बदलते रहेंगे, राजनीति के गठजोड़ नई शक्ल हासिल करते रहेंगे और कभी सरकार भी बदल गई तो हालात नहीं बदलेंगे. आख़िर मायावती और अखिलेश यादव के लगातार दो पूरे कार्यकालों के बावजूद सांप्रदायिकता की राजनीति यूपी में बची ही नहीं रही, उसने बिल्कुल ऐसी विस्फोटक वापसी की कि अब बिल्कुल दुर्निवार नज़र आती है.

निस्संदेह इस लिहाज से यूपी में कांग्रेस की पहल फिर भी स्वागत योग्य लगती है. अकेले चुनाव लड़ने का उसका फ़ैसला तात्कालिक फ़ायदे के लिहाज से भले कुछ अव्यावहारिक लगे, लेकिन अगर उसे वापसी करनी है तो कुछ समय अकेले चलना होगा. यही नहीं, प्रियंका गांधी ने 40 फ़ीसदी टिकट महिलाओं को देने का फ़ैसला कर जो बड़ी लकीर खींची है, वह पूरी राजनीति को बदलने का काम कर सकती है. यह हिसाब लगाना फिज़ूल है कि इस फ़ैसले से कांग्रेस को लाभ होगा या नुक़सान- या कांग्रेस को फ़ायदा होगा तो वोट बीजेपी के कटेंगे या सपा के- क्योंकि अंततः बहुत तात्कालिक लक्ष्यों को लेकर बड़ी राजनीति नहीं की जा सकती. बेशक, अभी यह नई शुरुआत है जिसमें बहुत सारा कुछ जोड़ने की भी चुनौती है और इस चुनौती की राह में उनके अपने भी लोग बाधक होंगे, लेकिन नई कांग्रेस अगर बनेगी तो पुरानी कांग्रेस की जर्जर हो चुकी इमारत को लगभग तोड़कर ही.

बहरहाल, यह सावधान रहने की घड़ी है. जातिगत समीकरण की काट में धार्मिक उन्माद को लगातार दी जा रही हवा फिर से माहौल प्रदूषित कर सकती है. जबकि इन चुनावों में एक सकारात्मक चुनाव का सवाल फिलहाल काफ़ी चुनौती भरा है- यूपी के लिए भी और बाक़ी राजनीति के लिए भी. इससे बड़ी चुनौती इस देश के उस साझा पर्यावरण को बनाए रखने की है जो तरह-तरह की सांस्कृतिक-धार्मिक हवाओं से मिल कर बना है और जिस पर हम अब तक नाज़ करते रहे हैं.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

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