राजस्थान के राज्यपाल कलराज मिश्र की जीवनी से पैदा हुआ विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है. राजस्थान के कई सांस्कृतिक संगठनों और लेखकों ने मांग की है कि इस जीवनी के प्रकाशक पर इसकी बिक्री में लाखों के घपले का जो आरोप लग रहा है उसकी जांच कराई जाए और जांच पूरी होने तक इस प्रकाशन से लेकर राजभवन तक से जुड़े सभी संदिग्ध व्यक्तियों को हटाया जाए. दरअसल कुछ दिन पहले इस जीवनी के लोकार्पण के अवसर पर आए राजस्थान के 27 विश्वविद्यालयों के कुलपतियों ने पाया कि उनकी कार में इसकी बीस-बीस प्रतियां रखी हैं और उन्हें 67,000 रुपये से कुछ ऊपर का बिल चुकाना है. दिलचस्प यह है कि इन बीस प्रतियों के लिए पांच अलग-अलग किताबों के बिल बनाए गए ताकि आने वाले कल को किसी अंकेक्षण- यानी ऑडिट- में इस पर सवाल न खड़े हो जाएं कि एक ही किताब की इतनी प्रतियां क्यों खरीदी गईं.
यह सीधे-सीधे फ़र्ज़ीवाड़ा था- इसलिए कहीं ज़्यादा गंभीर कि इसमें राज्यपाल की साख और शक्ति का दुरुपयोग भी शामिल था. राजभवन की सफ़ाई थी कि उसे इस मामले की ख़बर नहीं थी. लेकिन क्या राजभवन ऐसी जगह होता है जहां कोई व्यक्ति या टीम बिना किसी के जाने 27 कारों का दरवाज़ा या उनकी डिक्की खुलवा ले और उनमें 27 पैकेट डाल दे? क्या राजभवन में आने-जाने वाले किसी पैकेट की जांच नहीं होती? अगर इन पैकेटों में किताबों की जगह कुछ और होता तो क्या होता?
लेकिन यह सवाल बेमानी है. पैकेट में किताबों के अलावा कुछ और नहीं हो सकता था. क्योंकि यह सब कुछ राजभवन की निगरानी में ही होता रहा. अब यह बात भी सामने आ रही है कि इस जीवनी 'सिर्फ़ निमित्त मात्र हूं मैं' के प्रकाशक आईआईएमई, जयपुर, इसके पहले भी राज्यपाल के नाम पर विश्वविद्यालयों में जबरन अपनी किताबों की 25-25 प्रतियां खपाने का उपक्रम कर चुके हैं. यह स्पष्ट है कि इतना बड़ा दुस्साहस राज्यपाल की इजाज़त या जानकारी के बिना नहीं किया जा सकता.
लेकिन कलराज मिश्र को शायद ही इससे कोई फ़र्क पड़े. अपने लंबे राजनीतिक जीवन में वे इतने घपले-घोटाले और उनका हश्र देख चुके हैं कि उनको कुछ लाख रुपये का यह मामला भ्रष्टाचार के ऊंट में जीरे के बराबर भी नहीं लगता होगा. इसके अलावा यह उन्हें पहले से पता रहा होगा कि कॉफी टेबल बुक स्टाइल में छपी उनकी जीवनी कोई अपनी जेब से पैसे लगाकर नहीं खरीदेगा. यह भी शायद मालूम हो कि हिंदी किताबों की खरीद ऐसे ही होती है.
लेकिन इसी मोड़ पर हिंदी को अपनी दुनिया की चिंता करनी चाहिए. बताया जा रहा है कि कलराज मिश्र की जीवनी तैयार करने के लिए जो महायज्ञ चला, उसमें कई संपादक और शोधार्थी लगे. इनमें से कुछ हिंदी की मुख्यधारा के वे लेखक भी हैं जिन्हें वामपंथी माना जाता है. हालांकि सवाल उठ सकता है कि अगर कलराज मिश्र की जीवनी के लिए कुछ काम करने पर किसी लेखक को ठीकठाक पैसे मिल रहे हों तो उसे क्यों नहीं करना चाहिए? लेकिन विचारधारा अगर आपकी पोशाक नहीं, आत्मा है तो आप अपनी आत्मा के विरुद्ध जाकर कोई काम कैसे कर सकते हैं? आप वामपंथी न रहते हुए भी लेखक रह सकते हैं. बहुत सारे गैरवामपंथी लोग भी अच्छे लेखक हुए हैं. निर्मल वर्मा और अज्ञेय वामपंथी नहीं थे. (हालांकि वे भी कलराज मिश्र की जीवनी तैयार करने के काम में शामिल नहीं होते- भले उन्हें जितने भी पैसे मिलते). बहरहाल, यह ये लेखक ही बता सकते हैं कि किस नैतिकता के तहत उन्होंने कलराज मिश्र की किताब के संपादन में सहयोग किया और ऐसा करके भी वे किस तरह वामपंथी बने हुए हैं.
दूसरा मसला किताबों की बिक्री का है. दुर्भाग्य से हिंदी का पूरा प्रकाशन तंत्र बहुत संदिग्ध क़िस्म का कारोबार बनता जा रहा है. लेखकों की किताबें ख़ूब छप रही हैं. लेकिन वे किस तरह छप रही हैं, कोई नहीं जानता. लेखक बड़े से बड़े प्रकाशन से पैसे देकर किताब छपवा सकते हैं- बेशक, बस रक़म बदल सकती है. एकाध गिने-चुने प्रकाशकों के पास संपादक हैं. बाक़ी का कारोबार ख़राब लेखकों, योग्य प्रूफरीडरों और मेहनती जिल्दसाज़ों के सहारे चल रहा है. बहुत सस्ती किताबें बेचने का दावा करने वाला एक प्रकाशन सौ-सौ किताबों के दाम लेकर युवा लेखकों की पहली किताब छापता है. बिक्री का मामला और गड़बड़ है. हिंदी प्रकाशन उद्योग का बड़ा हिस्सा सरकारी खरीद के भरोसे है. साफ है कि ऐसी ख़रीद होती है तो कमीशन की बंधी-बंधी संस्कृति के सहारे होती है. इसकी वजह से वे नेता, अफ़सर और कभी-कभी प्रोफ़ेसर भी प्रकाशकों के दुलारे लेखक बन जाते हैं जो अपनी ख़राब से खराब किताबों को किन्हीं सरकारी गोदामों में खपवा सकने की पात्रता रखते हैं. ऐसे में लेखकों की रायल्टी जैसा मासूम सवाल कौन उठाए और किसके सामने उठाए.
निश्चय ही इस ढुलमुल-ढीले माहौल के ज़िक्र का कलराज मिश्र की जीवनी से जुड़े लोगों की करतूत का बचाव करना नहीं है, बस यह ध्यान दिलाना है कि ऐसे लोगों की हिम्मत इस वजह से बढती है कि हिंदी में ख़रीद-फ़रोख़्त का यह माहौल बना हुआ है. अंग्रेज़ी के वर्चस्व के आगे पहले से ही मार खा रही हिंदी पठन-पाठन की संस्कृति इस ख़रीद-फ़रोख़्त की वजह से कुछ और कुंठित होती है. इसलिए जितनी ज़रूरी कलराज मिश्र के मामले में कार्रवाई है, उतना ही ज़रूरी हिंदी में बढ़ रही इस गंदगी की सफ़ाई है.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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