This Article is From Aug 30, 2021

कृष्ण का जन्मदिन और बढ़ते हुए कंस

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Priyadarshan

क़रीब 300 साल पहले पैदा हुए नज़ीर अकबराबादी ने कृष्ण के जन्म का जितना रस लेकर वर्णन किया है, वह देखने-पढ़ने लायक है. 'जनम कन्हैया जी का' नाम की अपनी लंबी नज़्म में वे कृष्ण जन्माष्टमी को इस तरह याद करते हैं -

‘था नेक महीना भादो का और दिन बुध गिनती आठन की
फिर आधी रात हुई जिस दम और हुआ नछत्तर रोहिन भी
सुभ साअत नेक महूरत से वां जनमे आकर किशन जभी
उस मंदिर की अंधियारी में जो और उजाली आन भरी 
वसुदेव से बोलीं देवकी जी, मत डर-भय मन में ढेर करो
इस बालक को तुम गोकुल में ले पहुंचो और मत देर करो'

यह बहुत लंबी कविता है. बिल्कुल कृष्णमयता में डूबी हुई. कृष्ण का इतना सरस वर्णन या तो फिर सूरदास के यहां मिलता है या फिर रसख़ान के यहां. आधुनिक हिंदी कवियों में इस सहजता की कल्पना नहीं की जा सकती है. वे या तो आडंबरी धार्मिकता में डूबे मिलते हैं या फिर राजनीतिक धर्मनिरपेक्षता के मुहावरों में फंसे नजर आते हैं. नज़ीर में औघड़ता और फक्कड़पन तो है लेकिन वे उसे किसी रूहानी या दैवी अनुभव से जोड़ने की परवाह नहीं करते. वे बिल्कुल धूल-मिट्टी के बने हैं, धूल-मिट्टी में सने हैं और इस धूल-मिट्टी में ही वह सोना पहचानते और बचाते हैं जिसे असली हिंदुस्तान का मिज़ाज कह सकते हैं.

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लेकिन इस टिप्पणी का वास्ता नज़ीर से नहीं, कृष्ण से है और उस धूल-मिट्टी और सोने से है जिसका नाम हिंदुस्तान है और जिसे हम खोते जा रहे हैं.

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एनडीटीवी के हमारे सहयोगी कमाल ख़ान ने ख़बर दी है कि मथुरा में दोसा बेचने वाले एक शख़्स का ठेला लोगों ने तोड़ कर फेंक दिया. क्योंकि वह मुसलमान था और उसने अपनी दुकान का नाम श्रीनाथ दोसा कॉर्नर रखा था. जिन लोगों ने उसका ठेला तोड़ा, उनकी दलील थी कि वह मुस्लिम है इसलिए हिंदुओं के देवता के नाम पर दोसा नहीं बेच सकता. उसे अगर श्रीनाथ जी के नाम पर दोसा बेचना है तो पहले धर्म बदलना होगा. उससे कहा गया कि अगर वह 'घर वापसी' कर ले तो आराम से श्रीनाथ जी के नाम पर दोसा बेच सकता है.

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बेचने वाले को धर्म बदलने से ज्यादा आसान दुकान का नाम बदलना लगा. वैसे भी श्रीनाथजी में उसकी कोई गहरी आस्था रही होगी- ऐसा नहीं लगता. संभव है, उसने किसी और से ठेला ख़रीदा हो और पहले से ठेले पर श्रीनाथ जी लिखा हुआ हो. हो सकता है, उसने इस बात पर ध्यान न दिया कि ठेले में क्या लिखा हुआ है, उसे बस दोसा बनाने और बेचने से वास्ता रहा होगा. लेकिन इसमें संदेह नहीं कि वह कट्टर मुसलमान नहीं रहा होगा अन्यथा श्रीनाथ जी के नाम पर अपने ठेले का नाम न रहने देता.

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लेकिन क्या जिन लोगों ने इस शख्स का ठेला तोड़ा, वे वाकई धर्मपरायण लोग रहे होंगे? क्या वाकई वे कृष्ण और श्रीनाथ जी के प्रति कोई सम्मान का भाव रखते होंगे? क्या उन्होंने कभी भी रसख़ान या नज़ीर को पढ़ा होगा? क्या उन्होंने मीरा को ही समझने की कोशिश की होगी? या उन्हें हसरत मोहानी की ही ख़बर होगी जिनका एक शेर आज सोशल मीडिया पर ख़ूब घूम रहा है- 'हसरत की भी क़ुबूल हो मथुरा में हाज़िरी / सुनते हैं आशिकों पे तुम्हारा करम है आज.'

ऐसा लगता नहीं. वे बस मौजूदा राजनीति के उस सांप्रदायिक घमासान के बीच बड़े और खड़े हुए होंगे जिसमें अपनी धार्मिक पहचान का मतलब दूसरों से नफ़रत करना और दूसरों को नीचा दिखाना रह गया है. जाहिर है, ये 'दूसरे' अलग धार्मिक पहचान वाले गरीब ही होते हैं. उनके लिए धर्म का मतलब बस राम मंदिर के लिए चंदा और बीजेपी के लिए वोट जुटाना है और हर बात पर 'भारत माता की जय' के नारे लगाना है.

दरअसल भारत की जो मिली-जुली परंपरा रही है उसमें राम, कृष्ण या श्रीनाथ को किसी एक के खाने में बांध कर रखना संभव ही नहीं है. हमारी बहुत सारी कविता बरसों नहीं, सदियों के साझा अनुभव से निकली है. हमारी बहुत सारी सांस्कृतिक प्रथाएं इसी साझे की देन है. भारत में परदा-प्रथा के लिए इस्लाम के आगमन को ज़िम्मेदार ठहराने वाले हिंदू भी अपनी महिलाओं का घूंघट नाक से नीचे रखवाना ही पसंद करते हैं. हाल के वर्षों में बिरयानी के सांप्रदायिकीकरण की बहुत कोशिश हुई, लेकिन उसे खाने वाले कम नहीं हुए. यही नहीं, खाने-पकाने की बहुत सारी विधियां, आस्वाद और ज़ायके के खेल, मसाले की क़िस्में- सब इसी साझेदारी से निकले हैं. पढ़ने-ओढ़ने के सलीके, बात करने की तहज़ीब, ज़ुबानें- सब इतने हिले-मिले और सिले हुए हैं कि उनके रेशों को अलग-अलग करने की बात भी सोची नहीं जा सकती. ग़ज़लों के बिना हमारा संगीत कितना अधूरा है, यह समझने के लिए संगीत का क़द्रदान होना ज़रूरी नहीं है. हमारी जो शास्त्रीय गायकी की परंपरा है, वह इन सभी देवी-देवताओं से जुडे पदों से अनिवार्यतः बंधी रही है और इस परंपरा को बचाने में बहुत बड़ी भूमिका मुस्लिम गायकों और कलाकारों की रही है. हिंदी फिल्मों के जो सबसे मशहूर भजन हैं, वे मोहम्मद रफ़ी के गाये हुए निकलते हैं. 'बैजू बावरा' फिल्म का 'मन तड़पत हरि दर्शन को आज' या 'ओ दुनिया के रखवाले' जैसे गीत कौन भूल सकता है?

अगर आप एक मु्स्लिम ठेलेवाले को श्रीनाथ जी के नाम पर दोसा बेचने से रोक सकते हैं तो मोहम्मद रफ़ी के भजन कैसे सुन सकते हैं? और ये कैसे मंज़ूर कर सकते हैं कि नौशाद या गुलाम मोहम्मद या दूसरे मुस्लिम संगीतकार उनको संगीतबद्ध करें? ऐसे सवालों का सिलसिला इतना बड़ा हो जाएगा कि आप पागल हो जाएंगे. क्योंकि आप चाहे जितना लड़-झगड़ लें, चाहे जितना हिंदू-मुसलमान को अलग करने की कोशिश करें, सदियों के अभ्यास ने, रोज़मर्रा की मजबूरियों ने, कारोबार की साझेदारी ने, कला-संस्कृति, खानपान, पर्व-त्योहार और सिनेमा के सहकार ने ऐसा हिंदुस्तान बना ही दिया है जिसमें किसी देवता पर किसी एक का क़ब्ज़ा नहीं हो सकता. ठेले वाले की बात से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है. उसने कहा कि अजमेर शरीफ़ में मुसलमानों से ज़्यादा हिंदू जाते हैं, इसलिए उसे लगा कि इसमें कोई हर्ज नहीं है. इस सूफ़ी परंपरा को याद करें तो फिर पता चलता है कि यह हिंदू-मुसलमान की नहीं, उस हिंदुस्तान की परंपरा है जिसे एक हज़ार साल से गढ़ा जा रहा है. यह अमीर खुसरो की परंपरा है जिसने सितार और तबला बनाया, पहेलियां रचीं, फ़ारसी और हिंदी को मिलाकर नज़्में और ग़ज़लें लिखीं और जिसको गाते-गाते कम से कम दस सदियां गु़ज़र चुकी हैं- 'छाप-तिलक सब छीनी तोसे नैना मिलाय के.' जिसने यह सुख नहीं जाना वह कैसा हिंदुस्तानी?

कमाल ख़ान ने बताया है कि श्रीनाथ दोसा कॉर्नर वाले ने अब अपना नाम अमेरिका दोसा कॉर्नर रख लिया है. उसे पता है कि अमेरिका ही असली भगवान है. श्रीनाथ को पूजने वाले हों या अल्लाह को मानने वाले- सब अमेरिका का वीजा चाहते हैं. अब उसके दोसे पर कोई सवाल नहीं उठाएगा. इस बात में भी एक संकेत खोजने की इच्छा हो रही है, लेकिन वह इतना प्रत्यक्ष है कि उसके बिना भी यह टिप्पणी पूरी हो सकती है. अफ़सोस की बात इतनी है कि कृष्ण के जन्मदिन पर हमें बात उन कंसों की करनी पड़ रही है जिन्हें इस परंपरा के ध्वंस के अलावा कुछ और नहीं सूझता.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

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