Gen Z आंदोलन और केपी शर्मा ओली के इस्तीफे के एक महीने बाद कहां खड़ा है नेपाल

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नेपाल में Gen Z के 48 घंटों के आंदोलन के बाद ही प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को इस्तीफा देकर सेना के बैरक में शरण लेनी पड़ी थी. नेपाल की इस घटना को आज एक महीना हो गया. इस बीच नेपाल की राजनीति में Gen Z आंदोलन के बाद उत्पन्न राजनीतिक परिस्थितियों, नेपाल के भावी शासकीय स्वरूप और राजनीतिक दलों की भूमिका को लेकर बहस तेज हो गई है. 12 सितंबर को प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने वाली सुशीला कार्की के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार समय से चुनाव करने को लेकर प्रतिबद्ध है, लेकिन इस बीच युवा पीढ़ी, नेपाली सिविल सोसाइटी मन में एवं राजनीतिक गलियारों में कई सवाल भी उत्पन्न हुए हैं. 

सवालों के घेरे में सेना की भूमिका 

नेपाल में सेना और कम्युनिस्टों के बीच टकराव कोई नई बात नहीं है. टकराव के कारण इतिहास में मौजूद हैं. 2005 में जब नेपाल नरेश ज्ञानेंद्र शाह ने सत्ता अपने हाथ में ले ली थी, तब शाही सेना ही प्रचंड के नेतृत्व वाली जनसेना से सीधे मोर्चा ले रही थी. 2008 में राजशाही के खात्मे के बाद सेना का लोकतंत्रीकरण किया जाना था, लेकिन वह अभी तक अधूरा है. 2009 में प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल ने प्रधान सेना प्रमुख रूकमंगद कटवाल को बर्खास्त कर दिया था, तब सेना प्रमुख ने उनके आदेश को मानने से इनकार कर दिया. माओवादियों और सेना के बीच टकराव में अन्ततः प्रचंड को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा. नेपाल में सेना आज भी अन्य संस्थाओं में सबसे ज्यादा मजबूत है. लोकतांत्रिक नेपाल में सेना को राजशाही के बजाय जनता के प्रति जवाबदेह बनाने के लिए वर्तमान संविधान में प्रावधान किए गए हैं. वर्तमान संविधान के अनुच्छेद 267(6) के अंतर्गत सेना का उपयोग नागरिक सरकार के आदेश पर ही किया जाएगा, जिसे एक माह के अंदर संसद से मंजूरी लेनी होगी. 

नेपाल के सेना प्रमुख जनरल अशोक सिगदेल की इस तस्वीर ने लोगों का ध्यान खींचा था. उनके पीछे लगी तस्वीर नेपाल के पहले राजा की है.

आज आठ सितंबर के आंदोलन में सेना की संदिग्ध भूमिका पर सवाल उठ रहे हैं कि सेना ने सिंह दरबार सहित सभी सरकारी इमारतों को क्यों जलने दिया? आखिर क्या कारण है कि सेना ने उपद्रवियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की? क्या यह सब सेना की सह पर हो रहा था? क्या सेना ने सॉफ्ट तख्तापलट किया है? यद्यपि सेना कहती रही है कि वह संविधान और नेपाल की संप्रभुता के प्रति प्रतिबद्ध है. लेकिन सेना का यह रवैया कई गंभीर सवाल खड़े करता है. नौ सितंबर को प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के इस्तीफे के बाद जब राजनीतिक खालीपन उत्पन्न हो गया तो सेना ने बिना किसी सरकारी आदेश के देश की सुरक्षा अपने हाथों में पूरी तरह से ले ली थी. सेना की भूमिका पर सवाल उठाने का दूसरा कारण है कि सेना प्रमुख अशोक राज सिगदेल राष्ट्रपति से इस्तीफा क्यों दिलाना चाहते थे? क्यों वे राजावादी दुर्गा प्रसाई से मिले थे? क्या वे अपदस्त राजा ज्ञानेंद्र शाह को फिर से राजगद्दी पर बिठाना चाहते थे? इन संदेहों को तब और बल मिला जब पूर्व प्रधानमंत्री माधव कुमार नेपाल ने अखबार 'बुधवार' में लिखे अपने एक लेख में कहा है कि ज्ञानेंद्र शाह को गद्दी संभालने के लिए संपर्क किया गया था, लेकिन राजनीतिक दलों की सर्व सहमति न होने तक गद्दी पर बैठने से इनकार करने के बाद सुशीला कार्की के विकल्प पर विचार किया गया. सेना प्रमुख राष्ट्रपति से वार्ता करने वालों में दुर्गा प्रसाई और  भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल में बंद पूर्व उपप्रधानमंत्री रवि लामिछाने को भी शामिल करना चाहते थे. इन सभी घटनाओं ने सेना की इस आंदोलन में भूमिका को संदेह के घेरे में ला दिया है. उपरोक्त विकल्पों असफल होने के बाद राष्ट्रपति के साथ Gen Z प्रदर्शनकारियों की वार्ता में सेना प्रमुख ने मजबूरन सकारात्मक भूमिका भी निभाई.

सरकार की संवैधानिकता पर सवाल

सुशीला कार्की के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार में Gen Z का कोई प्रतिनिधि शामिल नहीं है. Gen Z आंदोलन के अगुआ सुदन गुरुंग का कहना है कि उनका मकसद सरकार में शामिल होना नहीं वरन अपना एजेंडा लागू कराना और बाहर से सरकार की निगरानी करना है. कार्की सरकार ने हिंसा की जांच के लिए छानबीन आयोग का गठन पूर्व न्यायाधीश गौरी बहादुर कार्की के नेतृत्व में कर दिया है, लेकिन आयोग की शक्तियां अभी तक स्पष्ट नहीं हैं, जिसके कारण उसने हिंसा में शामिल किसी भी राजनेता को अब तक न तो गिरफ्तार किया है और न ही पूछताछ की है. कथित रूप से हिंसा के जिम्मेदार लोगों केपी शर्मा ओली, शेर बहादुर देउबा और पूर्व गृहमंत्री रमेश लेखक को काठमांडू छोड़ने पर रोक लगा दी गई है. केपी शर्मा ओली की गिरफ्तारी की Gen Z प्रतिनिधियों की तरफ से लगातार मांग की जा रही है. सरकार ओली को गिरफ्तार करने को लेकर दुविधा में है, वह उनकी गिरफ्तारी से बचती नजर आ रही है, क्योंकि सरकार की वैधता पर भी सवाल उठने शुरू हो गए हैं. ऐसा लगता है कि सरकार प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर अपनी वैधता के सवालों को और गहरा नहीं करना चाहती है. उसे डर है कि इससे राजनीतिक अस्थिरता बढ़ सकती है और चुनावी माहौल खराब हो सकता है.

नेपाल की तीनों प्रमुख पार्टियों ने सुशीला कार्की की सरकार की वैधता पर भी गंभीर सवाल उठाए हैं. उनकी नजर में यह सरकार असंवैधानिक और मनमाने तरीके से बनाई गई है, क्योंकि वर्तमान संविधान में अंतरिम सरकार का कोई प्रावधान नहीं है. संविधान के अनुच्छेद 76 (1) के अनुसार प्रधानमंत्री को अनिवार्य रूप से प्रतिनिधि सभा का सदस्य होना चाहिए. जबकि राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 61(4) के अंतर्गत प्रधानमंत्री की नियुक्ति की है, जो कहता है कि संविधान का पालन, संवर्धन और राष्ट्रीय एकता की रक्षा करना राष्ट्रपति का कर्तव्य होगा. इस तरह सुशीला कार्की की नियुक्ति इस अनुच्छेद की मनमानी व्याख्या पर आधारित है. वहीं विश्लेषक इसे परिस्थितियों से उत्पन्न संक्रमणकालीन व्यवस्था करार दे रहे हैं. ऐसी सरकार जिसे प्रमुख राजनीतिक दलों का समर्थन हासिल नहीं है. कार्की सरकार Gen Z के एजेंडे को लागू करने में भी हीलाहवाली कर रही है. जेन जी प्रतिनिधि राजनीतिक नियुक्तियों, जिसमें संवैधानिक निकायों के प्रमुख भी शामिल हैं, को खारिज कर भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग कर रहे हैं. जबकि  सरकार का प्रमुख जोर चुनाव कराने पर केंद्रित हो रहा है.

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प्रत्यक्ष निर्वाचित कार्यकारी बनाम संसदीय व्यवस्था

नेपाल में प्रत्यक्ष निर्वाचित कार्यकारी बनाम संसदीय व्यवस्था की बहस जोर पकड़ रही है. Gen Z प्रत्यक्ष निर्वाचित प्रधानमंत्री के पक्ष में हैं, क्योंकि वे इसे भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए जरूरी बता रहे हैं. लेकिन सरकार दुविधा में लग रही है, उसका तर्क है कि ऐसी व्यवस्था करना उसके संवैधानिक अधिकारों के दायरे से बाहर है. सरकार का जोर है कि सभी राजनीतिक पार्टियां पांच मार्च 2026 को होने वाले चुनाव में हिस्सा लें और नेपाल का लोकतांत्रिक भविष्य तय करें. जैसी नेपाल की निर्वाचन प्रणाली है, उसमें किसी एक दल को पूर्ण बहुमत मिलना मुश्किल है. ऐसे में चुनाव बाद नेपाल के आठ सितंबर के पहले वाली स्थिति में लौट जाने की संभावना ज्यादा नजर आती है. यदि ऐसा होता है तो Gen Z आंदोलन की उपलब्धियां व्यर्थ जा सकती हैं.

क्षणिक रूप से उत्पन्न आंदोलनों के साथ ज्यादातर ऐसा ही होता है. वे कोई आमूलचूल परिवर्तन ला पाने में असफल रहते हैं. नेपाल का Gen Z आंदोलन नेतृत्वहीन, असंगठित और विचारधारा विहीन था. अब उसके विरोधाभास खुलकर सामने आने लगे हैं. मधेश में संघीय व्यवस्था को लेकर शंकाएं पैदा हो रही हैं, क्योंकि Gen Z आंदोलन की प्रमुख मांगों में प्रांतीय व्यवस्था को खारिज करना भी शामिल था, इसलिए मधेश के युवा संघीय व्यवस्था को लेकर लामबंद होने लगे हैं. उन्होंने अपना एक अलग समूह बना लिया है. कुछ लोग राजावादी धड़े में शामिल हो गए हैं. उन्होंने राजावादी Gen Z समूह का गठन कर लिया है. इससे Gen Z कार्यकर्ताओं के बीच बिखराव की स्थिति आ गई है. ऐसे में समग्र रूप में Gen Z प्रदर्शनकारी अपना  भ्रष्टाचारमुक्त और पारदर्शी नेपाल का लक्ष्य कितना हासिल कर पाएंगे, इस पर भी प्रश्न खड़े होने लगे हैं. 

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क्यों याद किया जाएगा नेपाल के Gen Z का आंदोलन

नेपाल के Gen Z को इसलिए याद किया जाएगा कि उन्होंने अपने आंदोलन से केपी शर्मा ओली की सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया. ओली की सरकार दक्षिण एशिया की एकमात्र कम्युनिस्ट सरकार बन गई, जिसे जनता ने आंदोलन करके हटाया. इसने दक्षिण एशिया में सामाजिक आंदोलन को नई दिशा दी है. इसने ओली, देउबा और प्रचंड की तिकड़ी को जबरदस्त चुनौती पेश की है. इसकी संभावना है कि आने वाले वक्त में ये तिकड़ी नेपाली राजनीति में अप्रासंगिक हो जाए. नेपाल की राजनीति में युवाओं की भागीदारी बढ़ेगी. प्रमुख पार्टियां अपना नेतृत्व युवाओं के हाथों में सौंपने को विवश हो रही हैं. उनके अंदर पीढ़ी हस्तांतरण की मांग जोर पकड़ रही है. भ्रष्टाचार को लेकर आने वाली सरकार संवेदनशील हो सकती है. इतनी सब उपलब्धियों के कारण इस आंदोलन ने क्षणिक लड़ाई तो जीत ली है, लेकिन नेपाल में आंदोलनों के इतिहास को देखते हुए ये बदलाव कितने दीर्घकालिक होंगे, यह कहना अभी मुश्किल है. इसने जो राजनीतिक खालीपन उत्पन्न किया है, उससे कोई विजनरी नेता जन्म ले पाएगा, इस आंदोलन का गुस्सा नेपाल में कितने आमूलचूल परिवर्तन ला पाएगा, आंदोलन की सफलता इन बातों पर निर्भर करेगी.

डिस्क्लेमर: मोहन कुमार मिश्र बीएचयू वाराणसी के राजनीति विज्ञान विभाग में शोध छात्र है और डॉक्टर श्रुति दुबे बीएचयू के राजनीति विज्ञान विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.  इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखकों के निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है. 
 

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