This Article is From Jan 10, 2022

यूपी चुनाव में पेंशन की राजनीति

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Ravish Kumar

यूपी के चुनाव में तमाम मुद्दों के बीच पेंशन का मुद्दा भी झूल रहा है. झूलना इसलिए कहा क्योंकि चुनाव से लेकर पेंशन की मांग को लेकर संख्या बल का खूब प्रदर्शन होता है लेकिन उस संख्या का असर चुनावी नतीजों में कहीं नहीं दिखता. भले ही पेंशन की मांग करने वाले लाखों की संख्या में होते हैं लेकिन वही संख्या जाति और धर्म के नाम पर वोट देने वालों में खप जाती है. चुनावी नतीजों को देखकर कहीं नहीं लगता है कि पेंशन की मांग से जुड़े लोगों ने चुनाव की दिशा बदली हो? फिर भी यूपी के चुनावों में सरकार अलग अलग वर्गों के खाते में पेंशन के नाम पर पैसे डाल रही है तो अलग अलग वर्ग अपने लिए पेंशन मांग रहे हैं.

आठ जनवरी को कानपुर के गोविन्दनगर में व्यापारियों की एक सभा हुई. इसका नाम दिया गया आगाज़. इस सम्मेलन में केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल भी थे और व्यापार समाज से जुड़े तमाम लोग. अग्रवाल समाज के राष्ट्रीय अध्यक्ष गोपाल शरण गर्ग ने इस सम्मेलन में कहा कि जिस तरह सरकार सांसदों और विधायकों को पेंशन देती है उसी तरह से व्यापारियों को भी पेशन दे. यह सम्मेलन यूपी को पांच खरब की अर्थव्यवस्था बनाने में व्यापारियों की भूमिका पर चर्चा के लिए बुलाया गया था. लेकिन व्यापारी सरकार से मामूली पेंशन के बारे में सोच रहे हैं यह किसी को अंदाज़ा नहीं रहा होगा. आम तौर पर यही कहा जाता है कि सरकारी नौकरी मत करो. अपना व्यापार करो लेकिन यहां तो व्यापारी भी पेंशन मांग रहे हैं. अगर अर्थव्यवस्था चांद सितारा बनकर चमक रही है तो फिर हज़ार दो हज़ार की पेंशन व्यापारी समाज के लोग क्यों मांग रहे हैं.

ऐसा नहीं है कि व्यापारी केवल आर्थिक नीतियों के आधार पर वोट करते हैं. इस तरह की बेकार समझ नहीं रखनी चाहिए. व्यापारी वर्ग आर्थिक तबाही के बाद भी धर्म और जाति के आधार पर वोट दे सकता है, इस बात को कोई गलत साबित नहीं कर सकता. लेकिन व्यापारी पेंशन क्यों मांग रहे हैं यह एक सवाल है और इसका जवाब यूपी की चुनावी राजनीति से मिलता है. जब सबको मिल रहा है तो हमको क्यों न मिले टाइप से. वैसे केंद्र सरकार ने जून 2019 में व्यापारियों के लिए पेंशन की एक नीति का एलान किया था. खूब हेडलाइन छपी थी उस साल. आगे बताएंगे क्या हुआ उस हेडलाइन का.

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आप जून 2019 की खबरों की हेडलाइन निकाल कर देखिए, हर जगह यह खबर छाई हुई है कि तीन करोड़ छोटे व्यापारियों को पेंशन मिलेगी. लक्ष्य है. इस खबर के बाद ऐसी भी खबरें हैं कि अलग अलग व्यापार संघों ने स्वागत किया है और मिठाइयां बांटी है. खबरों में बताया गया है कि बीजेपी ने 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए व्यापारियों से यह वादा किया था कि उन्हें पेंशन दी जाएगी. उस समय कहा गया था कि "डेढ करोड़ रुपये सालाना से कम रकम का कारोबार करने वाले सभी दुकानदार, स्वरोजगार करने वाले लोग और खुदरा कारोबारी, जिनकी आयु 18 से 40 वर्ष के बीच है, वह सभी इस योजना का लाभ ले सकते हैं." इसमें कहा गया है कि पेंशन योजना में शामिल होने वाले लोग देशभर में फैले 3.25 लाख साझा सेवा केन्द्रों पर पंजीकरण करा सकते हैं. इस तरह की खबरें खूब छपी मिलेंगी. यही हेडलाइन का जादू है. एक फैसला एक हेडलाइन के लिए बनता है या लोगों के लिए यह अंतर आपको समझना है. अगर व्यापारियों को पेंशन मिल रही होती तो कानपुर में व्यापारी फिर पेंशन क्यों मांग रहे हैं.

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फ्लैशबैक में अखबारों को पलटने से पता चलता है कि इस खबर को कितना प्रचार मिला. इससे कितना अच्छा माहौल बना होगा कि सरकार अब व्यापारियों को पेंशन देगी. तीन हज़ार रुपये खाते में आने लगेंगे. एक खेल बताता हूं. 31 मई 2019 को दोबारा सरकार बनाने के बाद मोदी कैबिनेट की पहली बैठक में फैसला लिया गया कि तीन करोड़ व्यापारियों को पेंशन योजना से जोड़ा जाएगा. उसी दिन सूचना व प्रसारण मंत्री अपनी प्रेस कांफ्रेंस में तीन करोड़ से पांच करोड़ कर देते हैं. दो करोड़ सीधा बढ़ा दिया. एक महीने बाद जब बजट में इस योजना का एलान होता है तब संख्या तीन करोड़ ही बताई जाती है. अब कौन पूछे कि प्रकाश जावड़ेकर ने पांच करोड़ कैसे कह दिया था, वे तो अब मंत्री भी नहीं हैं.

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एक ही खबर है, एक ही हेडलाइन है मगर एक ही दिन में संख्या तीन करोड़ से पांच करोड़ हो जाती है और फिर तीन करोड़ पर आ जाती है. लक्ष्य था कि अगले तीन साल में व्यापारियों की पेंशन योजना से तीन करोड़ व्यापारी जुड़ेंगे? इसके लिए प्रधानमंत्री कर्मयोगी मानधन लांच की गई. क्या तीन करोड़ व्यापारी इस योजना से जुड़ पाए हैं? इसी का जवाब बता रहा है कि कानपुर में यूपी के व्यापारी क्यों पेंशन मांग रहे हैं?

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श्रम एवं रोज़गार मंत्रालय पर संसद की एक स्थायी समिति की रिपोर्ट भांडा फोड़ देती है. यह रिपोर्ट 13 दिसंबर 2021 को पेश हुई थी. इस रिपोर्ट के अनुसार 24 फरवरी 2021 तक व्यापारियों की पेंशन योजना से मात्र 43,583 व्यापारी जुड़े हैं. करीब दो साल में मात्र 43,583 व्यापारी ही पेंशन योजना से जुड़े हैं. जब करोड़ का दावा किया है तो कम से कम लाख तो होना चाहिए मगर यहां पचास हज़ार भी नहीं है. फरवरी से लेकर जुलाई के बीच इस योजना से केवल 508 नए व्यापारी ही जुड़े हैं. स्थायी समिति की 16 मार्च की रिपोर्ट में बताया गया है कि 2020-21 में पचास लाख व्यापारियों को जोड़ने का लक्ष्य था लेकिन 6213 व्यापारी ही जुड़े. यही नहीं केंद्र सरकार के बजट से भी पता चल जाता है कि इस योजना की क्या हकीकत है. योजना के पहले साल 2019-20 के बजट में 750 करोड़ का एलान हुआ लेकिन संशोधित बजट में यह राशि घट कर 160 करोड़ हो गई. 2020-21 में 180 करोड़ का एलान हुआ, लेकिन संशोधित बजट में इस राशि में 90 प्रतिशत की कटौती हो गई. योजना का बजट 15 करोड़ कर दिया गया. 2021-22 में 150 करोड का एलान हुआ था. नए बजट में पता चलेगा कि वास्तविक रुप से कितना पैसा दिया गया.

व्यापारियों के लिए पेंशन की यह योजना व्यापारियों के बीच फ्लाप हो गई है. वे व्यापारी बताएं जिन्होंने इस योजना के एलान के वक्त मिठाई बांटी थी कि अब मिठाई क्यों नहीं बांट रहे हैं. तीन करोड़ व्यापारी इस योजना से क्यों नहीं जुड़े. क्यों यूपी के अखबारों में ऐसी खबरें भरी पड़ी हैं कि व्यापारी पेंशन मांग रहे हैं.

2 मार्च 2020 अमर उजाला की हेडलाइन, उद्यमियों ने बाईपास, व्यापारियों ने उठाई पेंशन की मांग. इस खबर के अनुसार शामली के व्यापारियों ने भी मंच पर पहुंचकर सीएम से भेंट की और व्यापारियों के पेंशन की मांग उठाई. व्यापारियों ने सीएम के नाम प्रशासन को ज्ञापन दिया है कि साठ साल से ऊपर के व्यापारियों को पेशन की योजना का लाभ दिलाएं. वैसे इन खबरों को पढ़ेंगे तो पता चलेगा कि सरकार के सामने संगठनों की हालत क्या हो गई है. वे तारीफ भी कर रहे हैं और शहर में जाम और गड्ढों की समस्या का ज्ञापन भी सीएम के नाम दे रहे हैं. दूसरी खबर सहारनपुर की है. इसमें भी यूपी उद्योग व्यापार मंडल की जनपद ईकाई ने पेंशन की मांग की है.
फिर किस आधार पर प्रधानमंत्री दावा कर रहे थे, इस तरह की स्कीम बनाई ही क्यों गई जिससे व्यापारी दूर हो गए लेकिन दावेदारी में कोई कमी नहीं गई. क्या इस वजह से कि उस समय झारखंड में चुनाव चल रहे थे. प्रधानमंत्री बिरसा मुंडा का नाम लेकर इस योजना की तारीफ कर रहे थे.

दो साल पहले व्यापारियों की पेंशन योजना को लेकर सरकार ने एक प्रमोशनल वीडियो बनाया था. वो विज्ञापन शुरू होता ही है इस तरह से कि व्यापारी चौंक जाते हैं उन्हें लगता है कि सरकार बेवकूफ बना रही है. झांसा दे रही है. लेकिन विज्ञापन कहता है कि अब सपना होगा साकार लेकिन सपना सपना ही रह गया. विज्ञापन में व्यापारियों के सवाल ही सही साबित हुए. 

विज्ञापन के शुरू में व्यापारी जिन बातों को लेकर शक करते हैं वो आज सच सही साबित हो गया है. विज्ञापन का स्क्रिप्ट लिखने वाले को कितना यकीन होगा कि ये सरकार वैसा नहीं करेगी. सबके खाते में तीन हज़ार पेंशन के आने ही वाले हैं. यह योजना फ्लॉप हो गई है. इसके रहते यूपी के व्यापारी पेंशन मांग रहे हैं. कहां तो करोड़ों व्यापारियों को जोड़ने का लक्ष्य था और जुड़े कुछ पचास हज़ार ही. एक सवाल और है. क्या 2019 में व्यापारियों के लिए पेंशन की योजना को फ्लाप होने के लिए ही बनाया गया था? ताकि दोनों बात रह जाए. एक कि हमने योजना लाई. दूसरी कि अब नहीं चली तो हम का करें.

हम एक और पेंशन योजना का खेल आपको दिखाना चाहते है. खेल इसलिए कहा कि 2017 में बीजेपी वादा करती है कि विधवा महिलाओं की पेंशन 1000 रुपये कर देंगे. सरकार में आने के बाद योगी सरकार पूरे पौने पांच साल इस वादे को भूल जाती है और जब 2022 का चुनाव आता है तब पेंशन बढ़ाई जाती है.

2017 के चुनाव में बीजेपी ने वादा किया था कि विधवा पेंशन की राशि बढ़ा कर एक हज़ार की जाएगी और उम्र की सीमा समाप्त कर दी जाएगी. इसमें वृद्धावस्था पेंशन भी एक हज़ार करने का दावा किया गया था. सरकार बनने पर. सोचिए कि इस दौरान जब 100 रुपये लीटर पेट्रोल मिल रहा था जिसके कारण महंगाई आसमान छू रही थी, 500 रुपए से क्या हुआ होगा. यूपी सरकार अपने विज्ञापनों में दावा करती है कि 31 लाख महिलाएं ऐसी हैं जो निराश्रित है. यह तो बहुत बड़ी संख्या है. इतनी बड़ी संख्या में महिलाएं 500 रुपये के सहारे कैसे जी रही होंगी? चुनाव नहीं आता तो इस साल भी 1000 नहीं होता.

वादा 2017 का था, पूरा हो रहा है जनवरी 2022 में. यह वीडियो 5 जनवरी का है जिसे मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने ट्वीट किया है. इसमें दावा किया गया है कि करीब 99 लाख लाभार्थियों को पेंशन की राशि दी गई है. दिसंबर में शीतकालीन सत्र के दौरान पेंशन की राशि को 1000 करने का फैसला किया गया है. आखिर इस वादे को पूरा करने में पांच साल क्यों लगे? समाज कल्याण विभाग की वेबसाइट पर निराश्रित महिलाओं के बारे में यही कहा गया है कि 18 साल से अधिक की महिलाएं जिनके पति की मृत्यु हो गई है. इस तरह से यूपी में 31 लाख विधवाएं हैं. यह छोटी संख्या नहीं है. इनके खाते में 2017 से 500 रुपये जा रहा था अब जाकर 1000 किया गया है. 56 लाख वृद्दावस्था पेंशनर्स हैं. इतने लोग पांच साल से इंतज़ार कर रहे थे कि उनकी पेंशन 1000 हो जाए. अब यह राशि भी कितनी कम है इस पर कौन बहस करे, और किससे करे.

चुनाव आने पर क्या क्या होता है, इसका एक और उदाहरण देता हूं. ई श्रम कार्ड का. पूरे देश में करीब 20 करोड़ लोगों ने श्रम कार्ड बनवाए हैं लेकिन केवल यूपी के श्रम कार्ड धारकों के खाते में 1500 करोड़ डाला गया है. क्या यह पैसा केवल यूपी के कार्ड धारकों के खाते में डाला गया है या देश भर के बीस करोड़ खाते में भी डाला जाएगा? अगर यूपी ने केवल पैसा दिया है तो किया बाक़ी बीजेपी शासित राज्य भी इस तरह का भत्ता देंगे? क्या किसी विपक्षी की इस पर नज़र गई है.

यूपी सरकार ने अपने इन विज्ञापनों में दावा किया है कि श्रम कार्ड बनाने वाले डेढ़ करोड़ खातों में 1500 करोड़ की राशि भेजी जा चुकी है. इन खाथों में 1000 रुपये की किश्त भेजी जा चुकी है. 500 रुपये की एक किश्त बाकी है. ऐसी भी खबरें छपी हैं कि एक हज़ार रुपये लेने के लिए बीए और एमए पास नौजवानों ने भी श्रम कार्ड बनवाएं हैं. यूपी के तमाम ज़िलो में दस से पंद्रह लाख खातों में 1000 रुपये भेजे गए हैं. क्या चुनाव जीतने के लिए इन खातों में पैसा दिया जा रहा है वो भी मार्च 2022 तक? अगर नहीं तो फिर पूरे देश में ई श्रम कार्ड बनवाने वालों 20 करोड़ मज़दूरों के खाते में पैसे क्यों नहीं भेजे गए हैं? केवल डेढ़ करोड़ के खाते में पैसा क्यों भेजा गया?

पेंशन के नाम पर चुनाव के वक्त पैसा बढ़ाने और भेजने की राजनीति को समझने की ज़रूरत है. जिनके खातों में पैसा गया है वो किस तरफ वोट डाले गए हैं इसका अलग से सर्वे होना चाहिए. अध्ययन होना चाहिए कि पेंशन के नाम पर सरकारी खज़ाने का इस्तेमाल वोट खरीदने के लिए हो रहा है या सही लाभार्थियों के खाते में पैसा जा रहा है? जब सबको कुछ न कुछ पेंशन मिल रहा है तो ज़ाहिर है व्यापारी भी पेंशन मांगेंगे. सरकारी कर्मचारी भी मांग करेंगे कि उन्हें फिर पेंशन क्यों नहीं दी जा रही है. इसी मोड़ पर यूपी चुनाव में पेंशन एक पेचीदा मुद्दा बन जाता है. जिन्हें पेंशन मिल रही है वो पेंशन बढ़ाने की मांग कर रहे हैं और जिन्हें नहीं मिल रही है वो इसलिए आंदोलन कर रहे हैं कि पेंशन मिले. क्या ये मुद्दा कर्मचारी यूनियन के नेताओं के लिए अपनी राजनीति चमकाने भर का है या फिर वे वाकई गंभीर है, इसे परखने का हमारे पास कोई पैमाना नहीं. बस हमें यह भ्रम नहीं है कि सरकारी कर्मचारी वोट देते वक्त धर्म और जाति के गौरव के सवाल को भूल जाएंगे. मुमकिन है वे पेंशन के सवाल को ही भूल जाएं.

उत्तर प्रदेश में शिक्षकों के संगठन की तरफ से पुरानी पेंशन स्कीम को बहाल करने का आंदोलन चलाया जा रहा है. इसे राष्ट्रीय स्तर पर भी चलाया जाता रहा है. इसके अध्यक्ष विजय कुमार बंधु ने बताया कि अक्तूबर से लेकर दिसंबर के बीच यूपी में पुरानी पेंशन की बहाली को लेकर कई जगहों पर आंदोलन हुए हैं. 22 अक्तूबर को यूपी के हर ज़िला मुख्यालय पर पेंशन पदयात्रा निकाली गई थी. 21 नवंबर को लखनऊ के ईको गार्डन में पेंशन शंखनाद रैली हुई थी. 7 दिसंबर को हर ज़िला और ब्लाक स्तर पर शहीद दिवस बनाया गया. डा रामाशीष सिंह पेंशन की बहाली की लड़ाई लड़ने वाले नेता था. 7 दिसंबर 2016 को पेंशन के लिए लड़ते हुए लाठी चार्ज से उनकी मौत हो गई थी. उनकी याद में शहीद दिवस मनाया गया और पुरानी पेंशन की बहाली की मांग की गई. पुरानी पेंशन की बहाली की लड़ाई में शिक्षकों के संगठन के साथ अन्य विभागों के संगठन भी जुड़े रहते हैं. इस बार इनका नारा है कि जो पुरानी पेंशन को बहाल करने का वादा करेगा वोट उसी को मिलेगा.

कर्मचारी संगठन दावा करते हैं कि यूपी में 13 लाख कर्मचारी हैं. इनकी मांग है कि वे न्यू पेंशन स्कीम से खुश नहीं हैं. पुरानी पेंशन व्यवस्था ही चाहिए. क्या इतनी बड़ी संख्या के बाद भी ये संगठन और यह संख्या यूपी की राजनीति को मजबूर कर पाएगी कि हर दल पुरानी पेंशन को लेकर अपना स्टैंड साफ करे? लेकिन क्या यह सख्या वोट करते समय केवल पेंशन के आधार पर ही वोट करेगी? मेरी राय में कुछ ही लोग पेंशन के सवाल पर वोट करेंगे. यूपी में धर्म और जाति का सवाल इतना बड़ा है कि बेरोज़गार भी अपना मुद्दा भूल जाता है. इन्हें तो अभी सैलरी मिल ही रही है. जो सांप्रदायिक है उसके लिए दूसरे मुद्दे गौण हो जाते हैं. वैसे समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने कहा है कि उनकी सरकार बनेगी तो पुरानी पेंशन की व्यवस्था लागू कर देंगे.

क्या वाकई अखिलेश यादव पुरानी पेंशन बहाल करेंगे? ऐसा हुआ तो देश भर में पेंशन को लेकर चल रही लड़ाई की राजनीति पूरी तरह बदल जाएगी. ऐसा ही कुछ हिमाचल प्रदेश में हुआ है.

इसी तरह हाल के महीनों में राजस्थान, महाराष्ट्र और हरियाणा में भी पुरानी पेंशन को लागू करने के लिए कई तरह के आंदोलन हुए हैं. इनमें शामिल लोगों की गंभीरता पर सवाल नहीं उठा सकते, लेकिन क्या ये सारे लोग इसी सवाल पर अपनी राजनीतिक प्राथमिकता तय करते हैं, यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए. पुरानी पेंशन के लिए लड़ रहे इन कर्मचारियों का कहना है कि विधायक और सांसद को पेंशन मिलती है तो तीस तीस साल तक काम करने वाले आईएएस से लेकर चपरासी तक को पेंशन क्यों नहीं दी जा रही है. अगर न्यू पेंशन स्कीम इतनी ही अच्छी है तो फिर उस स्कीम का लाभ विधायक और सांसद क्यों नहीं ले रहे हैं. विधायकों से सरकार बनती है, विधायक अपनी पेंशन तो बढ़ा लेते हैं लेकिन सरकारी कर्मचारियों की पेंशन खत्म कर देते हैं. हिमाचल में न्यू पेंशन स्कीम के खिलाफ ज़बरदस्त आंदोलन चला है. इसके दबाव में दिसंबर में वहां के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने एक कमेटी बनाने का आश्वासन दिया है जो यह देखेगी कि पुरानी पेंशन की बहाली कैसे हो सकती है और नई पेंशन स्कीम में क्या समस्या है. क्या हिमाचल प्रदेश में बनने वाली कमेटी कुछ ठोस रास्ता बताएगी या चुनावी राजनीति की भेंट चढ़ जाएगी.

अगर कोई नेता विधायक रहता है. फिर वही नेता सांसद बन जाता है तो सांसद से हटने के बाद उसे विधायक और सासंद दोनों की पेंशन मिलेगी. बिहार का एक उदाहरण देता हूं. बिहार में जेपी स्वतंत्रता सेनानी पेंशन स्कीम है. करीब पांच हज़ार लोगों को पेंशन दी जाती है जो जेपी के आंदोलन में शामिल हुए थे. इस स्कीम के तहत दस हज़ार रुपया महीना मिलता है. नीतीश कुमार, लालू यादव और सुशील मोदी जेपी के आंदोलन में थे. ये जय प्रकाश नारायण स्वतंत्रता सेनानी पेंशन के भी हकदार हैं. ये तीनों सांसद भी रहे हैं और विधायक भी रहे हैं. जब ये इन दोनों पदों से हटेंगे तो विधायक और सांसद की दो पेंशन मिलेगी और जेपी पेंशन लेंगे तो तीसरी पेंशन होगी. किसी को एक पेंशन नहीं और किसी को तीन तीन पेंशन.

सरकार के बहीखाते में तरह तरह की पेंशन योजना है. सरकारी कर्मचारी को पेंशन देने के लिए पैसे नहीं हैं. आप इसकी बात करें तो सौ अर्थशास्त्री आ जाएंगे बताने कि कैसे राज्य का खजाना डूब जाएगा लेकिन जब वही सरकार 2000 करोड़ की मूर्ति बनाने का एलान करती है तब कोई अर्थशास्त्री नज़र नहीं आता है. मध्य प्रदेश से अनुराग द्वारी की रिपोर्ट बताती है कि धार्मिक उद्देश्य से खर्च करने के लिए सरकारों के पास पैसे की कोई कमी नहीं है.

लोगों के खाते में पैसा जाना चाहिए लेकिन वह पैसा वोट खरीदने के लिए नहीं हो बल्कि जीवन की सुरक्षा के लिए हो. 500 रुपये से कुछ नहीं होता है. इसलिए सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं की समीझा होनी चाहिए. वोट के हिसाब से हर सरकार किसी न किसी वर्ग के खाते में पैसे डाल रही है. एक अध्ययन होना चाहिए कि केंद्र और राज्य सरकारें कुल कितना पैसा कितने लोगों के खाते में डाल रही हैं. यह सब तब होगा जब मूर्ति, स्मारक, जयंती, और छुट्टी के नाम पर होने वाली धर्म और जाति की राजनीति से राजनीति को वक्त मिलेगा.

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