कहा जाता है एक तस्वीर कभी कभी हज़ार शब्दों के बराबर होती है . इन दिनों बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हर राजनीतिक चर्चा के केंद्र में हैं. उसका कारण है एक तस्वीर और कुछ सेकेंड का एक वीडियो, जो गुरुवार को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के शपथ ग्रहण समारोह में उनका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अभिवादन करने की शैली से संबंधित है .बहस इस बात को लेकर छिड़ी है कि आख़िर नीतीश का ऐसे झुकना क्या बिहार के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में उनकी राजनीतिक मजबूरी है या उन्होंने अपने हालात से समझौता कर राजनीतिक रूप से आत्मसमर्पण कर दिया है. नीतीश कुमार की लखनऊ में ये मुद्रा बिहार की राजनीति में बहस का विषय है, लेकिन आने वाले समय में वो इसलिए भी किसी न किसी चर्चा का केंद्र रहेगी क्योंकि ये वही नीतीश कुमार है, जिन्होंने 2009 के लोकसभा चुनाव में लुधियाना में एनडीए की एक रैली में उस समय के गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और अब प्रधानमंत्री ने जब नीतीश के साथ हाथ उठाकर फ़ोटो खिंचवाया था तो नीतीश आगबबूला हो गए थे.
उस रैली में भी नीतीश बहुत नानुकुर करके गए थे और बीजेपी ने ही उन्हें चार्टर प्लेन उपलब्ध कराया था. लेकिन नीतीश मोदी के साथ इस तस्वीर को लेकर बहुत असहज थे. उनका ग़ुस्सा उस समय सातवें आसमान पर चला गया था, जब 2010 जून में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भाग लेने के लिए नरेंद्र मोदी आ रहे थे, तब उसी तस्वीर को विज्ञापन के रूप में गुजरात के कुछ संगठनों ने पटना के अख़बारों में छपवाया था और नीतीश ने न केवल उस संगठन के ख़िलाफ़ एफ़आईआर कर जांच के लिए पुलिस टीम सूरत भेजी थी बल्कि रात का भोज भी रद्द कर दिया था. लेकिन उन्हीं नीतीश कुमार का इस तरह से अब नरेंद्र मोदी के सामने झुकना, उनके समर्थकों के अनुसार उनकी वर्तमान राजनीतिक हैसियत का परिणाम है. उस दिन मंच पर भाजपा के सभी मुख्यमंत्री थे, लेकिन नीतीश का स्टाइल चूंकि सबसे अलग था इसलिए वो चर्चा के केंद्र में है.
वर्तमान राजनीतिक माहौल को अगर आपको समझना है तो पिछले एक महीने के बिहार विधान सभा के बजट सत्र के घटनाक्रम को देखिए जहां तंग आकर नीतीश अपना आपा खो बैठे और विधान सभा अध्यक्ष को सदन के अंदर खरी खोटी सुना दी और जब अपने वाणी के कारण भाजपा सदस्यों के नाराज़गी का अंदाज़ा हुआ तो छुट्टी के दिन उस पुलिस अधिकारी का तबादला कर दिया जिससे विधान सभा अध्यक्ष विजय कुमार सिन्हा और भाजपा के सदस्य शांत हो जाएं. इससे पूर्व भी नीतीश विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव के ख़िलाफ़ भी ऊंची आवाज़ में बोल चुके हैं, जो अमूमन उनका स्टाइल नहीं है . इसके अलावा भाजपा के सदस्य सरकार की सदन में और बाहर जमकर बेलगाम अफ़सरशाही और भ्रष्टाचार को लेकर आवाज़ उठाते हैं, जिससे आख़िरकार नीतीश कुमार का इक़बाल कम होता है . नीतीश कुमार कितने अलग- थलग पड़ते जा रहे हैं कि जिस गृह विभाग के मुखिया हैं उनके मातहत पुलिस महानिदेशक उनके बार बार कहने के बाबजूद आम आदमी तो छोड़ दीजिए किसी मीडिया वाले का फ़ोन ना तो उठाते हैं ना कभी कॉल बैक करते हैं और ये नीतीश कुमार के 16 वर्षों से अधिक के शासन में पहली बार हो रहा है .
नीतीश जो लुधियाना में उस समय भाजपा के सामने विधान सभा में संख्या बल में अधिक थे तो उनकी बात सुनी जाती थी . हालांकि भोज रद्द करने के बाद भाजपा के नेता और कार्यकर्ताओं के बीच काफ़ी रोष था. हालांकि उस साल हुए विधानसभा चुनाव में उसका कोई असर नहीं दिखा. लेकिन आज अगर नीतीश संख्या बल में नंबर तीन की पार्टी हैं तो उसमें वर्तमान भाजपा का एक बहुत अहम योगदान इसलिए है, क्योंकि चिराग़ पासवान का अलग लड़ना और वो भी जनता दल यूनाइटेड के उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ ही अपना कैंडिडट देना और वो भी अधिकांश पूर्व भाजपा विधायक को टिकट देना, ये दोस्त बनकर पीठ में ख़ंजर खोपने के समान था. लेकिन नीतीश ने सार्वजनिक रूप से मुख्यमंत्री की कुर्सी मिलने के कारण ये बात कभी नहीं कही लेकिन वो भी इस सच को जानते हैं.
आज की भाजपा इसी रणनीति पर काम कर रही है कि वो धीरे धीरे जनता में नीतीश की नाकामियों को उजागर भी करती है और उनको कमजोर मुख्यमंत्री साबित करती जा रही है, जिससे नीतीश के कट्टर समर्थक वोटर ख़ासकर अति पिछड़ा समुदाय के लोगों को को ये विश्वास हो जाए कि नीतीश से शासन नहीं चल रहा और भाजपा में शिफ़्ट हो जाना ही बेहतर है . ये सच है कि उतर प्रदेश और बिहार में भाजपा अपने विरोधियों से अधिक अपने सहयोगियों को निपटा कर उनके आधारभूत वोट बैंक पर क़ब्ज़ा करने की योजना को एक से अधिक बार मूर्त रूप दे रही है .
वहीं नीतीश को मालूम है कि आज के भाजपा से मुक़ाबला वो नहीं कर सकते क्योंकि उनके पास साधन और संसाधन है और इन सभी मामलों को उन्होंने कभी शासन करने के अपने तरीक़े में बहुत महत्व नहीं दिया. इसलिए आज को बिहार की राजनीति की सच्चाई है कि नीतीश कुमार को उपचुनाव में भी जाने के लिए अपने उम्मीदवार को एनडीए का प्रत्याशी घोषित करना पड़ता है और भाजपा और राष्ट्रीय जनता दल अपने बलबूते मैदान में उम्मीदवार उतारती है . नीतीश की राजनीति को उनके शराबबंदी के फैसले ने भी उतना नुक़सान पहुंचाया है, जितना उनके विरोधियों ने सोलह वर्षों में उनकी सरकार की विफलताओं को उजागर नहीं किया. शराबबंदी के कारण एक समानांतर आर्थिक व्यवस्था क़ायम हुई है, जिसके कारण पुलिस का रोब और ख़ौफ़ कम हुआ, वहीं दलित, अति पिछड़े समाज के लोग बहुसंख्यक जेल जाने वालों को सूची में रहे जो नीतीश के कट्टर समर्थक थे और जेल और बेल के चक्कर में नीतीश से उनकी दूरी बढ़ी, जबकि समांतर व्यवस्था पर उन्ही जातियों का वर्चस्व है जो समाज में दबंग हैं .
लेकिन उतर प्रदेश के साथ अन्य राज्यों में चुनाव के बाद नीतीश कुमार को इस बात का अंदाज़ा है कि भले अगले लोक सभा चुनावों तक उनकी कुर्सी को कोई ख़तरा नहीं हो लेकिन अब वो भाजपा के साथ एक दबंग सहयोगी के बजाय एक निर्बल -दुर्बल पार्ट्नर के रूप में रहना, उनकी राजनीतिक मजबूरी है क्योंकि उनके पास संख्या बल नहीं है और लोकतंत्र में ये आपके पहचान का सबसे मज़बूत आधार होता है . हालाँकि उनके समर्थक मानते है कि वर्तमान भाजपा के साथ संबंध पहले के तरह मधुर भले ना हों लेकिन सरकार चलाने में कोई दिक़्क़त नहीं . हां, इस बात को स्वीकार करने में उन्हें कोई दिक़्क़त नहीं कि भाजपा जैसे ज़मीनी स्तर पर अपने पैर फैला रही है वैसे में भविष्य में अगर राष्ट्रीय जनता दल के साथ बिना नीतीश भी सीधा मुक़ाबला हो तो अब उनकी स्थिति अच्छी रहेगी.
नीतीश को इस बात का आभास है कि भाजपा देर सवेर उनका वही हश्र करेगी जो यूपी की राजनीति में बसपा का हुआ. नीतीश के समर्थकों की शिकायत या रोना है कि उनके नेता जिन चीज़ों के लिए भारतीय राजनीति में जाने जाते थे जैसे एक अच्छे वक्ता के रूप में, सुशासन बाबू के तौर पर वो सब अब खोते जा रहे हैं. भ्रष्टाचार अब उनके शासन में सदाचार बनता जा रहा है और इसमें भाजपा और जनता दल यूनाइटेड के मंत्रियों में कौन 19-20 कौन है कोई नहीं कह सकता . ऐसे में लुधियाना के अक्खड़ नीतीश कुमार अब अगर झुक रहे हैं तो ये उनकी वर्तमान राजनीतिक हालात की सच्चाई है, जहां झुक कर ही वो अपनी गद्दी बचा सकते हैं.