बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं, ये सच है. लेकिन नीतीश कुमार अब तक के अपने पूर्व के सभी कार्यकाल के तुलना में सबसे कमज़ोर मुख्यमंत्री साबित हो रहे हैं ये निर्विवाद सत्य है. लेकिन इतना कमज़ोर कैसे नीतीश कुमार हो गए इस सवाल का जवाब अगर आप जानना चाहते हैं तो कितना कमज़ोर नीतीश हुए हैं. उसके कुछ उदाहरण पर एक बार सरसरी निगाह डालनी होगी. सबसे ताज़ा उदाहरण हैं कि लखीसराय के पुलिस अधिकारियों के तबादला का जहां विधान सभा अध्यक्ष पर सदन के अंदर डपटने वाले मुख्य मंत्री नीतीश कुमार को जब बीजेपी और अध्यक्ष के नाराज़गी का अंदाज़ा हुआ तो सरकारी अवकाश के दिन उन्होंने डीएसपी का तबादला कर मामला को रफ़ा दफ़ा करने की कोशिश की.
सोमवार को नीतीश ने विधान सभा के अंदर अध्यक्ष को आयना दिखाकर 'टाइगर ज़िंदा हैं' जैसा इमेज़ को चार दिन के अंदर विधानसभा अध्यक्ष के मनमुताबिक तबादला कर राजनीतिक और प्रशासनिक गलियारे में यही संदेश दिया कि भले मुख्यमंत्री की कुर्सी पर वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कृपा से बैठे हों लेकिन संख्या बल न होने के कारण अब वो बात नहीं और उनके पास बीजेपी के निर्देशों को मानने के अलावा एक ही विकल्प बचा है. कुर्सी त्यागना और ये विकल्प नीतीश लेना नहीं चाहते, इसलिए भाजपा के सामने हर मुद्दे पर झुकना अब उनकी नियति बनती जा रही है. जनता दल यूनाइटेड के नेता भी अब स्वीकार करने लगे हैं, जब एक अधिकारी को अध्यक्ष के ज़िद से बचाने की औक़ात नहीं थी तो विधानसभा में खरी खोटी सुनाने का नाटक नहीं करना चाहिए था. इससे पूर्व जब बिहार भाजपा के अध्यक्ष संजय जायसवाल को पूर्वी चंपारण के एसएसपी नवीन चंद झा से नहीं बना तो नानुकर करते करते नीतीश ने भाजपा के दबाव में उनका तबादला कर दिया था.
वैसे ही मणिपुर में भाजपा के समर्थन मांगे बिना जनता दल यूनाइटेड ने अपने विधायकों का समर्थन भाजपा की प्रस्तावित सरकार को देने की घोषणा की . नीतीश चुनाव प्रचार के लिए ना तो उतर प्रदेश गये ना मणिपुर. इससे पूर्व बुधवार को बिना कैबिनेट में कश्मीर से विस्थापित पंडितों पर बने कश्मीर फ़ाइल्स नाम की मूवी को जब टैक्स फ़्री करने की बात आई तो बिना कैबिनेट में फ़ाइल भेजे उप मुख्य मंत्री तारकिशोर प्रसाद ने ये जानकारी सार्वजनिक कर दी जो नीतीश कुमार के मन मिज़ाज से बिल्कुल भिन्न बात हैं. हालांकि इस मुद्दे पर जनता दल के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी ने नीतीश से एक बार फ़िल्म देखकर कोई फ़ैसला लेने का आग्रह किया था. लेकिन नीतीश कितना कमज़ोर हुए हैं और भाजपा अब उसका कैसे फ़ायदा उठाती हैं ये इसका एक और उदाहरण हैं.
अगर भाजपा को खुश करने के लिए नीतीश अगर ये मूवी देखने भी जाएं तो उनके समर्थकों के अनुसार कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी. ये सत्य है कि भले इस सिनेमा को कांग्रेस को राजनीतिक रूप से घेरने के लिए ज़ोर शोर से इस्तेमाल हो रहा है. लेकिन नीतीश उस समय केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य थे, जब कश्मीर से पंडित लोगों का आतंकवादियों के दबाव में पलायन हो रहा था. इसमें कैसे अहम भूमिका निभाई है, वो चालू बजट सत्र में दो चीज़ों में साफ़ झलकता हैं. एक विधानसभा अध्यक्ष जैसे जनता दल यूनाइटेड के मंत्रियों को किसी सवाल का सही उतर ना देने पर फटकार लगाते हैं और जब भी सरकार को बचाने की बारी आती हैं वो निष्पक्ष भूमिका में आ जाते हैं. यहां तक कि भाजपा के विधायक भी जब सवालों से जनता दल यूनाइटेड के मंत्रियों को घेरने की बारी आती है तो राष्ट्रीय जनता दल के विधायकों से वो कहीं ना कहीं दो कदम आगे रहते हैं . नीतीश इन सब घटनाक्रम से भलीभांति परिचित हैं लेकिन उनका ग़ुस्सा मीडिया पर निकलता है, इसलिए ये पहला सत्र है, जब उन्होंने तीन हफ़्ते तक सदन चलने के बाद एक भी शब्द टीवी कैमरा के सामने नहीं बोला है और छायाकारों और कैमरामैन की शिकायत होती हैं कि न वो अब आगे के दरवाज़े से आते हैं और ना निकलते हैं इसलिए उनका फ़ोटो भी मुश्किल होता है.
नीतीश को कमजोर बनाने में भाजपा ने परत दर परत काम किया है. जब से 2017 में लालू यादव से पिंड छुड़ाकर वापस नरेंद्र मोदी की भाजपा के साथ तालमेल किया तो कुछ ही महीनों में नीतीश को सार्वजनिक मंच से ये साफ़ कर दिया गया कि अब उनके मनमुताबिक काम नहीं चलने वाला. इसका प्रमाण था पटना विश्वविद्यालय का वो शताब्दी दिवस का कार्यक्रम जब नीतीश केंद्रीय विश्वविद्यालय के लिए गुहार लगाते रहे और मोदी ने उसी मंच से उनकी मांग ख़ारिज कर दी. इसके बाद बाढ़ राहत में जब केंद्र से सहायता की बात आई और जब मांग का मात्र 20 प्रतिशत राशि केंद्र ने मंज़ूर किया तो नीतीश का भ्रम टूट गया कि उन्हें गठबंधन या डबल इंजन की सरकार के आधार पर कुछ विशेष मिलने से रहा और नीतीश सार्वजनिक रूप से पिछले विधान सभा में अपनी दुर्गति के लिए चिराग़ पासवान को दोषी माने लेकिन ये सच सब जानते हैं कि उनकी राजनीतिक हजामत भाजपा के नेताओं के इशारे पर उनके वोटर ने वोट ना देकर बनाई लेकिन नीतीश सार्वजनिक रूप से इसलिए बात स्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि मुख्यमंत्री की गद्दी तो उन्हें मिली लेकिन संख्या बल में एक अच्छा ख़ास अंतर होने के कारण उनकी धाक नहीं रही.
इसका परिणाम हैं कि बिहार (Bihar) में मंत्रियों में नीतीश (Nitish Kumar) का डर कम हुआ है और इसके कारण भ्रष्टाचार बढ़ा है. इसका पिछले साल जून महीने में ट्रांसफर का दौर जब चला तो भाजपा के कुछ मंत्रियों ने तो बोली तक लगवायी लेकिन नीतीश मूकदर्शक बने रहे क्योंकि वो इतना कमजोर हैं कि कुछ बोल नहीं सकते. जब विधान सभा सत्र शुरू हुआ तो वो राज्यपाल के अभिभाषण हो या बजट जैसे विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने सरकार ख़ासकर नीतीश की कैसे उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी और भाजपा (BJP) के नेता आलोचना करते हैं उसका पुलिंदा पढ़ना शुरू किया तो नीतीश भी निरुत्तर थे. नीतीश के भाषण या प्रतिक्रिया में इतना तल्ख़ी या नाराज़गी झलकता हैं तो वो उनकी कमजोरी का परिचायक हैं . वो इस सच को जानते हैं कि वो कुर्सी पर भले बैठे हों, लेकिन उनका इक़बाल दिनोंदिन कम होता जा रहा है. भाजपा उनकी राजनीतिक ज़ड खोदने में लगी है, लेकिन वो सार्वजनिक रूप से अपना दर्द ज़ाहिर नहीं कर सकते इसलिए वो मीडिया से अब भागते है. ये आलम है कि जनता दरबार के बाद अब पत्रकार सम्मेलन एक ख़ानापूर्ति है, जहां कोरोना के नाम पर पत्रकारों के प्रवेश पर अलिखित पाबंदी है.
नीतीश अब अपनी सरकार का रिपोर्ट कार्ड इस डर से नहीं जारी करते कि कहीं पत्रकारों के सवाल का जवाब ना देना पड़े . ये आप कह सकते हैं कि भाजपा और नरेंद्र मोदी की सरकार के संगत का सीधा असर हैं कि एक जमाने में मीडिया के डार्लिंग नीतीश अब अपनी कमजोर राजनीतिक हालात के कारण आंख मिलाने से भी बचते हैं. हालात इस मोर तक पहुंच गया है कि जब नीति आयोग के रिपोर्ट के आधार पर नीतीश ने विशेष दर्जे की मांग की तो उसकी आलोचना विपक्षी दलों से कई अधिक भाजपा के विधायकों और मंत्रियों ने किया और इस विरोध और आलोचना से कहीं ना कहीं डर कर नीतीश आज तक इस मुद्दे पर अपना मांग पत्र लेकर ना तो वित मंत्री ना नीति आयोग के अध्यक्ष से मिले हैं. यूपीए के दौर में या महागठबंधन के मुखिया के रूप में जब भी नीतीश दिल्ली का दौरा करते थे तो किसी ना किसी केंद्रीय मंत्री से मुलाक़ात कर बिहार के माँगो से उनको अबगत कराते थे वहीं अब उनका दिल्ली दौरा मेडिकल जांच तक सिमटता जा रहा है.
सबसे चिंताजनक है कि विकास और पिछड़े पन के मुद्दे पर भाजपा जैसे उन्हें नसीहत देती हैं वैसा अमूमन विपक्ष से किसी सत्तासीन व्यक्ति उम्मीद करता हैं. .कमोबेश जातिगत जनगणना पर भी नीतीश पर भाजपा का डर हैं कि वो किसी ना किसी बहाने इस विषय पर सभी दलों को सहमति के बाद भी मामले को लटकाते जा रहे हैं. हालांकि भाजपा का कहना है कि जब संख्या बल में नीतीश तीसरे नम्बर की पार्टी है और कुर्सी उनको मोदीजी के कृपा के कारण मिली है. वैसे में वो भाजपा को एक सीमा से नज़रअंदाज कर नहीं चल सकते . भाजपा नेताओं की माने तो नीतीश कमजोर हुए हैं तो ये सत्य है कि भाजपा मज़बूत हुई है. वैसे ही भाजपा के कारण उनकी लोकसभा और विधान सभा में सीटों का इज़ाफ़ा हुआ था. इन नेताओं का कहना हैं कि भाजपा को इस बात का टीस हैं कि अब तक 1977 से लेकर 2022 में वो वित मंत्री से आगे नहीं बढ़ पाए हैं लेकिन बदली हुई परिस्थिति में अब भाजपा का सीधा मुक़ाबला तेजस्वी यादव से है और नीतीश अपने राजनीतिक जीवन की अंतिम पारी खेल रहे हैं क्योंकि भाजपा उनको अब अधिक ढोना नहीं चाहती. उतर प्रदेश के चुनाव परिणाम से साफ़ है कि कमंडल मंडल पर भारी पर रहा हैं इसलिए नीतीश जितना कमजोर होंगे और भाजपा इतना कमजोर कर देगी जिससे उनकी राजनीतिक सौदेबाज़ी की क्षमता और कम हो.
लेकिन भाजपा और जनता दल यूनाइटेड दोनों के नेता मानते हैं कि फ़िलहाल नीतीश की कुर्सी को कोई ख़तरा नहीं क्योंकि भाजपा अगले लोक सभा चुनाव तक साथ रखेगी और तब तक नीतीश का राजनीतिक रूप से इतना कमजोर करने के अपने लक्ष्य में कामयाब रहेगी कि वो इधर से उधर मतलब फिर तेजस्वी के राजद के साथ जाने का डर ना दिखाए. भाजपा को इस बात का भरोसा हैं कि उतर प्रदेश के बाद वो किसी को चेहरा बनाकर जनता का जनादेश अपने बलबूते अब ला सकती है. यही सहयोगी भाजपा का आत्मविश्वास है कि जो नीतीश को इतना कमजोर कर रहा हैं कि लोग पूछते हैं कि और अब कितना कमजोर होंगे बिहार के इतिहास के सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने वाले नीतीश कुमार.
(मनीष कुमार NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...)
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.