होली का ये भी रंग, संस्कृति को सहेजता नैनीताल

Advertisement
Himanshu Joshi

होली बस एक दिन ही नहीं, यह कई दिनों तक चलने वाला उत्सव है. होली के हुड़दंग को एक उत्सव कैसे बनाए रखा गया है, यह नैनीताल में थिएटर ग्रुप 'युगमंच' के होली महोत्सव में शामिल होकर समझा और महसूस किया जा सकता है. नैनीताल समाचार में 23 तारीख को बैठ होली आयोजित की गई. समाचार के सम्पादक राजीव लोचन साह कहते हैं कि पहले हम अपनी अलग होली करते थे, पर इस साल राष्ट्रपति द्वारा संगीत नाटक अकादमी सम्मान प्राप्त जहूर आलम लगभग तीन दशक पहले हम सबको साथ लाए.

नैनीताल समाचार की विनीता यशस्वी कहती हैं कि अब तो समाचार की होली नैनीताल समाचार के नए ऑफिस में होने लगी है, लेकिन पहले समाचार के पटांगढ़ में होली होती थी और क्या रंग जमता था. जब रंग जमना शुरू होता था, तो सिर्फ पटांगढ़ ही नहीं भरता था, बल्कि होटल के आसपास आने वाले सभी रास्ते भर जाते थे और होटल के पास हल्द्वानी रोड में भी लोग झांक-झांककर समाचार की होली देखते थे. विनीता ने आगे कहा कि एक बार एक अमेरिकन रिसर्च स्कॉलर भी होली का आनंद लेने समाचार आई और भांग पीकर गदगद हो गई. यहां होली की बैठकों के लिए चटपटे आलू और चटनी, चाय के साथ बनाई जाती है, जिसको देखकर ही लोगों के मुंह में पानी आ जाता है. आज भी यह बैठ होली चाहे अपने पुराने रूप में नहीं है, पर होली का रंग वैसा ही जम रहा है. लोग भवाली, हल्द्वानी और कुमाऊं के अन्य कोनों से यहां पहुंच रहे हैं.

Photo Credit: फोटो क्रेडिट:- नवीन बेगाना

कुमाऊं की होली, इतिहास बड़ा रोचक

कुमाऊं में होली के दो प्रचलित स्वरूप पर 'रंग डारि दियौ हो अलबेलिन में' नाम की किताब में विश्वम्भर नाथ साह 'सखा' लिखते हैं कुमाऊं में होली के दो प्रचलित स्वरूप हैं, एक ग्रामीण अंचल की होली, जिसे खड़ी होली कहते हैं. दूसरी नागर होली, जिसे शहरी क्षेत्रों में बैठ होली कहते हैं. बैठ होली का कोई लिखित इतिहास व कल नहीं है. जन मान्यताओं के आधार पर इसे 200 से 300 वर्ष पूर्व के आसपास कुमाऊं में प्रचलित होना माना जाता है.

Advertisement

खड़ी होली पर इसी किताब में उत्तराखंड के जनकवि स्वर्गीय गिरीश तिवाड़ी 'गिर्दा' ने कुमाऊं की होली पर लिखा है. वर्तमान में यहां होली के मुख्यतः दो रूप प्रचलित हैं बैठ और खड़ी. बैठ होली में विशिष्ट लोगों की तथा खड़ी होली में आम लोगों की भागीदारी होती है. यहां पर चर्चा का विषय खड़ी होली है, जो अधिकतर ग्रामीण अंचल में गाई जाती है. शिवरात्रि से इन होलियों का गायन ढोल, नगाड़े और मजीरे के साथ प्रारंभ होता है. तब से लेकर होलिकाष्टमी तक शिव, राम, कृष्ण आदि नायकी- होलियां गाई जाती हैं, किंतु बैठकर. अभी इसमें नृत्य शामिल नहीं होता. 

Advertisement

Photo Credit: फोटो क्रेडिट:- नवीन बेगाना

इतिहास के जानकार गिरिजा पाण्डे ने रंग डारि दियौ हो अलबेलिन में कुमाउँनी होली परम्परा पर लिखा है, कुमाउँनी होली गीतों के प्रारंभिक रचनाकार कौन थे यह तो स्पष्ट नहीं कहा जा सकता, लेकिन पंडित गुमानी की रचनाओं से इसके संदर्भ मिलने लगते हैं. जिसे अपनी-अपनी पीढ़ी में अनेक रचनाकारों ने, संगीतज्ञों ने समृद्ध किया. होली की इस विकास यात्रा के संदर्भ में यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि इस रचना धर्मिता में दो स्पष्ट धाराएं थी. पहले धारा सृजन को पारंपरिक रूप में पोषित करते हुए आगे बढ़ रहा रही थी, चाहे वह गायन हो या रचना की. दूसरी धारा परंपरा को सामाजिक संदर्भों की ओर ले जा रही थी. यह प्रक्रिया व्यक्ति या संस्था संगठन दोनों ही में देखी जा सकती थी और आज भी इसे देखा जा सकता है. इसी आलेख में गिरिजा पाण्डे ने आगे लिखा है वर्तमान में 'गौर्दा' के बाद 'गिर्दा' ने होलियों को अपनी अभिव्यक्ति का सर्वाधिक सशक्त माध्यम बनाया और समाज को लगातार अनीतियों, विषमताओं, शोषण, दमन की ओर सोचने को बाध्य किया. आर्थिक उदारीकरण, विश्व बैंक की घुसपैठ, पर्यावरण, बजट, रथयात्राएं, देश की खस्ता आर्थिक हालत जैसे विषय उनकी अभिव्यक्ति के केंद्र में रहे- 
अलिबेर की टेर यो गिरधारी, झुकि आयो शहर में ब्योपारी।
पैप्सी कोला की गोद में बैठी, संसद मारे पिचकारी।

Advertisement

युगमंच ने जो शुरू किया...

थिएटर ग्रुप युगमंच से जुड़े नवीन बेगाना एक से एक रंगीन पोस्टर तैयार कर युगमंच के होली महोत्सव का निमंत्रण देते हुए लिखते हैं, आप सभी संगीत प्रेमी, रंगकर्मीं, कलाप्रेमी, इस होली महोत्सव में सादर आमंत्रित हैं. 
इस होली महोत्सव पर बात करते 'युगमंच' थिएटर का संचालन कर रहे जहूर आलम ने बताया कि ढाई दशक पूर्व जब ‘युगमंच' ने नैनीताल में होली महोत्सव की परिकल्पना की तो उस समय होली की परम्परा काफी क्षीण हो चुकी थी. होली बैठकें इक्का-दुक्का घरों तक सीमित रह गई थीं. पलायन, नशे व हुड़दंग की प्रवृत्ति का बढ़ना और धीरे-धीरे अपनी जड़ों व संस्कृति से दुराव इसके कुछ कारण थे. गीत-संगीत से शराबोर मस्ती वाली पहाड़ी होली कहीं बिला गई थी.

Advertisement
डीजे का शोर, कीचड़ उछालना, गालियां देना, मुँह काला करना, कपड़े फाड़ना और साल भर के फस्ट्रेशन होली में निकालने की कलुषित प्रवृत्ति बढ़ती जा रही थी. लड़कियों और महिलाओं ने तो हुड़दंग के कारण निकलना ही कम कर दिया था. पहले नैनीताल में होलियों में खूब टूरिस्ट आते थे और निर्भय होकर घूमते थे, पर यह स्थिति अब बदल गई थी.


अधिकांश शान्तिप्रिय जन और होली के रसिया दुखी थे. लेकिन केवल दुखी होने भर से तो काम चलने वाला नहीं था. शारदा संघ, राम सेवक सभा, नैनीताल समाचार या व्यक्तिगत रूप से कुछ छिटपुट बैठ होली के आयोजन किए जा रहे थे. भारत सरकार के गीत और नाटक प्रभाग के नैनीताल केन्द्र ने भी कुछ आयोजन किये. तभी ‘युगमंच' ने वैचारिक रूप से परिपक्व समझ रखने वाले लोगों के साथ सोच विचार के बाद 1996 में ठोस पहल कदमी ली, तय किया गया कि परम्परागत बैठ होली का एक बड़ा आयोजन होगा, जिसमें तमाम संस्थाओं, होलियारों ओर होली रसिकों को बड़े पैमाने पर जोड़ा जाएगा. 

Photo Credit: फोटो क्रेडिट:- नवीन बेगाना

इससे पूर्व युगमंच मुख्यतः नाटक व अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए ही जाना जाता था. योजना के अनुसार, बैठ होली का एक बड़ा आयोजन 'होली महोत्सव' के नाम से नैनीताल नगर पालिका भवन में आयोजित किया, जो बेहद सफल रहा, इसमें लोगों की अच्छी खासी भागीदारी रही और हमें बधाइयां भी खूब मिलीं. अगले वर्ष होली से पहले ही तमाम सामाजिक, सांस्कृतिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों और सुधी जनों की बृहद मीटिंग बुलाई गयी और उसमें निर्णय लिया गया कि ‘होली महोत्सव' तीन दिवसीय होगा. इसमें उत्तराखण्ड तथा बाहर के अधिक से अधिक होली कलाकारों, गायकों को सम्मिलित करने का प्रयास होगा. पहाड़ की होली के सभी स्वरूप- गायन, नर्तन, बैठी व खड़ी, महिला होली, स्वांग और होली जुलूस सहित तमाम आयोजन होंगे. यह परम्परागत कुमाउनी होली का एक पूरा पैकेज होगा, जिसके माध्यम से बताया जाएगा कि हमारे पहाड़ की होली का असली स्वरूप क्या है.

इस होली महोत्सव को आशा से अधिक सफलता मिली. नैनीताल के अलावा दूर-दूर तक इसकी चर्चा हुई. पूरा नगर होली के रंगों, गीत-संगीत से सराबोर था. कहीं कोई हुडदंग या बदतमीजी नहीं हुई. इस अनूठे होली महोत्सव को मीडिया ने भी हाथोंहाथ लिया. कई अखबारों ने एक पूरा पेज तक इस आयोजन को दिया. नेशनल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया यानी दूरदर्शन, एन.डी.टी.वी. और जी.टी.वी. ने भी भरपूर कवरेज दी. फिर साल दर साल इस कार्यक्रम को कवर करने के लिए चैनल्स का जमघट लगने लगा. बी.बी.सी. और जर्मन रेडियो डाइचे वेले ने भी इसका संज्ञान लिया और अपने संवाददाता भेजे. कुमाउनी होली की इस रंग बिरंगी भव्यता को देखते हुए उत्तराखण्ड के पर्यटन विभाग ने अपने वार्षिक कलेण्डर में भी इस इवेन्ट को स्थान दिया.

Photo Credit: फोटो क्रेडिट:- नवीन बेगाना

खड़ी होली कुमाउँनी होली का मुख्य अंग है, जो लोक के ज्यादा करीब है. मुख्यतः ग्रामीण अंचलों में गोल घेरे में ढोल और मंजीरे की ताल पर और झूम झूम कर नृत्य करते हुए सामूहिक रूप से गायी जाती है. नगरों में इसका प्रचलन बहुत कम है. यहाँ तक कि नैनीताल नगर के कई निवासियों ने तो यह होली पहले देखी ही नहीं थी. पहले होली महोत्सव में ‘युगमंच' से जुड़े रहे अध्यापक होल्यार संतोष लाल साह पिथौरागढ़ से खड़ी होली के कलाकारों की टीम बस भर कर नैनीताल पहुँचे. नैनीताल वाले खड़ी होली की भव्यता और रंगत देखकर अचंभित और उत्साहित हो गये. तब से आज तक खड़ी होली, युगमंच होली महोत्सव का मुख्य आकर्षण बन गया है. प्रति वर्ष एक से चार खड़ी होली दलों ने सुदूर अंचलों से आकर कार्यक्रम की शोभा बढ़ाई है. पिथौरागढ़, चम्पावत पाटी, प्रचार, लोहाघाट, थुवामौनी, कानीकोट, गेवाड़ पट्टी, सतराली, गंगोलीहाट, देवीधूरा, अल्मोड़ा, खेतीखान, लड़़ीधूरा, बालाकोट, थारू होली खटीमा के साथ ही गंगोलीहाट के महिला ख़ड़ी होली दलों ने इस आयोजन में शिरकत की है.

होली महोत्सव से पहले खड़ी होली के होल्यार कलाकार अपने घर गांव तक ही सीमित रहते थे. लेकिन अब इन्हें एक नई पहचान और सम्मान मिला है और दिल्ली देहरादून तक इन्हें आयोजनों में बुलाया जाने लगा है. अब खड़ी होली के ये कलाकार पूरे साज-बाज और सम्मान के साथ इन महोत्सव में सम्मिलित होते हैं.

बैठ होली मुख्यतः नगरों कस्बों में बैठ कर गायी जाती है. शास्त्रीय राग रागिनियों पर आधारित (शुद्ध राग नहीं) इस होली को नागर होली भी कहा जाता है. इसे एक मुख्य होली गायक द्वारा गाया जाता है और गम्मज में मौजूद लोग इसके बीच -बीच में भाग लगाते हैं. इसे सामूहिक एकल गायन भी कहा गया है.
अन्य नगरों की भॉति नैनीताल में भी बैठ होली गायन की परम्परा बहुत मजबूत रही है. होली के एक से एक घुरंधर गवैये यहाँ मौजूद थे. अल्मोड़ा आदि से भी वहां के दिग्गज होल्यारां का आदान-प्रदान होता था. कई संस्थान और गाने सुनने के शौकीनों के घरों पर रात-रात भर की महफिलें जमती थीं. धीरे-धीरे होली के शौकीनों में कमी आने लगी. बुजुर्ग होल्यार अपनी गति को प्राप्त हो रहे थे. नई पीढ़ी का अपनी इस गौरवशाली गायन परम्परा से जुडा़व नहीं हो पा रहा था. अपनी परम्परा से अनुराग का कम होना, होली सीखने सिखाने का अभाव, कई प्रकार के अन्य आकर्षण और बढ़ रहे नशे के जहर ने बैठी होली को बहुत नुकसान पहुंचाया था.

हमने पास-दूर के तमाम होल्यारों को आग्रहपूर्वक आमंत्रित किया और इसके मकसद पर लम्बी बातचीत की. यह तजवीज सभी को पसंद आयी और पहले ही वर्ष बैठ होली में तमाम स्थानीय कलाकारों के साथ ही बाहर से होली गायक बड़ी संख्या में एक स्थान, एक मंच पर एकत्र हुए. तमाम होल्यारों ने बड़े ही उत्साह से भागीदारी की और होली महोत्सव की शामें और रातें होली के रंगो में डूबी रहीं.

Photo Credit: फोटो क्रेडिट:- नवीन बेगाना

युवा पीढ़ी को होली की परम्परा से कैसे जोड़ा जाए? बाकायदा होली सिखाने की कोई परम्परा नहीं थी. जिज्ञासु एकलव्य की तरह बुजुर्गों से बैठकों में लगातार होली सुन सुनकर या भाग (आवाज) लगाते-लगाते होली सीख लिया करते थे. पर अब किसी के पास ऐसी दीवानगी कहां? हमारे आग्रह पर अग्रज होली गायक गिरधारी लाल साह जी के नेतृत्व में राजा साह जी आदि ने नवयुवकों और किशोरों को होली सिखाने का बीड़ा उठाया. नई पीढ़ी को आकर्षित करने के लिए बाकायदा प्रमाण पत्र और पारितोषिक की घोषणा की गई. इसके सुखद परिणाम सामने आए. बोए गये बीज अंकुरित होकर खिलने लगे. 
कार्यशालायें अब से होली महोत्सव का एक जरूरी अंग बन गयी हैं. नैनीताल में नई पीढ़ी के होली गायक ऐसी ही कार्यशालाओं की देन हैं. इस सफलता को देखकर अन्य स्थानों पर भी ऐसी कार्यशाला लगने लगी है और तो और लड़कियां भी होली सीखने आगे आ रही हैं.

महिला होली : पहाड़ी होली का एक बहुत महत्वपूर्ण अंग महिला होली भी है, जिसमें स्वांग भी शामिल है. पच्चीस वर्ष पूर्व तक महिलाएं होली गायन के लिए अपने घर-पटांगण तक ही सीमित रहती थीं. कई महिला संगठनों से बात के बाद हम महिलाओं को खुले मंच पर गाने और स्वांग करने के लिए तैयार कर सके. उन्होंने ऐसी धूम मचाई कि लोग फटी आंखों देखते ही रह गये. खुले मंच पर महिला होल्यारों का यह रूप लोगों ने पहली बार देखा था. रोपे गये इस बीज की पुष्पित बेल बहुत ऊंचाई तक पहुंच चारों ओर अपनी सुगन्ध फैला रही है. सारे प्रदेश में आज महिला होली की धूम मची हुई है. महिला होली के बीसियों संगठन बन गये हैं. जगह-जगह नगर कस्बों में महिला होली की प्रतियोगिताएं आयोजित हो रही हैं. मैं निसंकोच कह सकता हूं कि अब होली मंच प्रस्तुति के मामले में महिलाओं ने पुरूषों को पीछे छोड़ दिया है.

सम्मान समारोह

जहूर आलम आगे कहते हैं कि पहले होल्यारों को वह सम्मान नहीं मिल पाता था, जिसके वे हकदार थे. अगर वे अन्य गायकी में निपुण नहीं होते, तो उन्हें चन्द रोज का मेहमान मानकर दरकिनार कर दिया जाता था. कहा जाता था- "पूस के पहले इतवार से ये जागेंगे और छलड़ी खेलकर ये फिर सो जाएंगे." परिवार और समाज में होल्यारों की गायक के रूप में कोई मान्यता नहीं मिलती थी. कलाकार इज्जत का भूखा होता है. उसे मान्यता और सम्मान मिलना बहुत जरूरी है. इसी को ध्यान में रखते हुए होली महोत्सव के दौरान होली के हर अंग यानी बैठी, खड़ी और महिला होली कलाकारों के सम्मान के लिए बाकायदा एक सम्मान समारोह शुरू हुआ, जिसमें प्रति वर्ष कुछ चुनिन्दा बजुर्ग होल्यारों को गरिमापूर्ण ढंग से खुले मंच पर जनता के बीच सम्मानित किया जाने लगा. होल्यारों को मान्यता दिलवाने में गहन प्रयास किये गये. कई बड़े कल्चरल फेस्टीवल में होली गायकों को भेजने में भी सफलता मिली. गिरदा और राजीव दा के नेतृत्व में ‘नैनीताल समाचार' की होली के अवसर पर बुजुर्ग होल्यारों को सम्मानित करने की महत्वपूर्ण परम्परा पूर्व से ही प्रचलित थी. युगमंच ने इसे आगे बढ़ाया. इस साल संगीत के अध्यापक नवीन बेगाना को सम्मानित किया गया है.

(हिमांशु जोशी उत्तराखंड से हैं और प्रतिष्ठित उमेश डोभाल स्मृति पत्रकारिता पुरस्कार प्राप्त हैं. वह कई समाचार पत्र, पत्रिकाओं और वेब पोर्टलों के लिए लिखते रहे हैं.)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

Topics mentioned in this article