मोदी ने पुतिन के लिए रेड कार्पेट क्यों बिछाया? जानिए भारत का क्या है मास्टरप्लान

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डॉ. नीरज कुमार

पंडित जवाहर लाल नेहरू के बाद नरेंद्र मोदी भारत के दूसरे ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो कि विदेश नीति निर्माण में व्यक्तिगत रुचि लेते हैं. क्योंकि, देश के प्रधानमंत्री का मानना है की भारत एक राष्ट्र के अलावा एक सभ्यता है जो कि प्राचीन काल से ही अपने ज्ञान विज्ञान के सहारे विश्व को प्रकाशित करता रहा है. अतः यह जरूरी है कि भारत आधुनिक विश्व में भी एक अग्रणी राष्ट्र के रूपं में उभरे. इसके लिए राष्ट्र को एक तरफ घरेलू मोर्चे पर विकसित होना होगा तो दूसरे तरफ यह वैश्विक राजनीति कि दिशा तय करने कि स्थिति में हो. इस देश के पहचान, संस्कृति, एवं नागरिकों को वो सम्मान हासिल हो जिसका ये हकदार है. यह नरेंद्र मोदी का साध्य जिसके लिए विदेश नीति एक साधन है. पिछले एक दशक देश प्रधानमंत्री अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय प्लेटफॉर्म भारतीय सभ्यता कि पहचान के बातों को दुहराते रहें हैं. उनका मानना है कि यह दौर राजनीतिक प्रतिद्वंदीता का नहीं बल्कि परस्पर सहयोग का है. लेकिन, सहयोग का अर्थ दमन या दबाब नहीं वरन पारस्परिक एवं स्वाययत होना चाहिए. इस लिए नरेंद्र मोदी किसी भी ध्रुव का हिस्सा न बनकर मुद्दे आधारित द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय संबंधों कि वकालत करते हैं.

वो चाहते हैं कि वैश्विक संस्थाएं लोकतान्त्रिक हो जहां निर्णय प्रक्रिया में विकसित एवं विकासशील देशों को भी समुचित प्रतिनिधित्व मिलें जिससे समावेशी वैश्विक समाज एवं अर्थव्यवस्था का निर्माण हो सके. इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो रूस के राष्ट्रपति पुतिन का भारत दौरा उस समय हो रहा है जब विश्व एक नए शीत युद्ध कि ओर अग्रसर है एक तरफ चीन एवं रूस है तो दूसरे तरफ अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देश शामिल हैं. नरेंद्र मोदी इसे एक चुनौती एवं अवसर के रूप में देखते है. क्योंकि, अमेरिका चाहता है कि भारत रूस पर उसके द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों का पालन करें. जबकि, भारत के लिए राष्ट्रीय हित सर्वोपरि है इसलिए भारत रूसी राष्ट्रपति के लिए रेड कॉरपेट बिछाने के लिए तैयार है. इसके सहारे भारत पश्चिमी मुल्कों को यह संदेश देना चाह रहा है कि यह किसी के दबाब में विदेश नीति का निर्माण नहीं करता और ना ही किसी ध्रुव का हिस्सा है.

वहीं दूसरी ओर पुतिन चीन को यह बतलाना चाह रहें हैं कि रूस चीन पे ही केवल निर्भर नहीं रहेगा बल्कि वह विकल्पों कि तलाश में है तभी तो रूस के विदेश नीति सलाहकार यूरी उशाकोफ़ ने रूस के सरकारी टीवी से बात करते हुए अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर गहन चर्चा पर ज़ोर देते हुए कहा है कि ये यात्रा 'भव्य और कामयाब होगी'. वहीं भारत के राष्ट्रीय प्रसारक दूरदर्शन से बात करते हुए पूर्व राजनयिक मेजर जनरल (रिटायर्ड) मंजीव सिंह पुरी ने कहा, "दुनिया के दो अहम देशों रूस और भारत का उच्चतम स्तर पर एक साथ आना ख़ास तौर पर महत्वपूर्ण है."

पुतिन और मोदी में समानता:

मोदी और पुतिन दोनों अपने-अपने देश को एक सभ्यता मानते हैं जैसा कि भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा “मोदी का नज़रिया न केवल सुरक्षा और विकास पर ज़ोर देता है, बल्कि भारत की सिविलाइज़ेशनल पहचान. यह बात फरवरी 2024 में और फिर 2025 की शुरुआत में और मज़बूत हुई, जब जयशंकर ने भारत के एक सिविलाइज़ेशनल देश के तौर पर खुद को साबित करने के संकेत के तौर पर ऐतिहासिक नाम भारत के बढ़ते इस्तेमाल की ओर इशारा किया. दुनिया की महान सभ्यताओं में से एक होने के नाते, भारत न सिर्फ़ ताकत में आगे बढ़ना चाहता है, बल्कि अपनी गहरी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत से ताकत लेकर दुनिया भर में लीडर बनना चाहता है. वहीं पुतिन भी रूस को इसी तरह खुद को एक सभ्यता वाला देश मानता है जिसकी एक अलग ग्लोबल भूमिका है. भारत की तरह, यह भी ऐतिहासिक गहराई और सांस्कृतिक निरंतरता की भावना से प्रेरित है.

अलाइनमेंट के बजाय इश्यू-बेस्ड पार्टनरशिप पर भारत का है जोर

इस पहचान के केंद्र में रूसी मीर की विचारधारा है. इसके आलवे पुतिन और मोदी दोनों मल्टीपोलर दुनिया के आइडिया को सपोर्ट करते हैं लेकिन इसे अलग तरह से देखते हैं. नरेंद्र का मल्टीपोलैरिटी को अपनाना, एक लीडिंग ग्लोबल पावर के तौर पर उभरने की उसकी इच्छा से जुड़ा है. मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद , यह मकसद भारत की फॉरेन पॉलिसी में ज़्यादा क्लैरिटी लेकर आया है, जिससे ग्लोबल असर बढ़ाने के लिए ज़्यादा सोच-समझकर और स्ट्रेटेजिक कोशिशों को गाइड किया है. प्रधानमंत्री कि यह नीति भारत की इंटरनेशनल स्ट्रेटेजी को आकार देती है, जो 'मल्टीअलाइनमेंट' और विश्व मित्र (“दुनिया का दोस्त”) जैसे कॉन्सेप्ट में दिखती है, जो किसी एक ग्रुप के साथ अलाइनमेंट के बजाय इश्यू-बेस्ड पार्टनरशिप के लिए नई दिल्ली की पसंद को दिखाता है.

भारत के लिए, मल्टीपोलैरिटी के क्या मायने हैं?

भारत के लिए, मल्टीपोलैरिटी विरोध का टूल कम और पहचान हासिल करने, ऑटोनॉमी की रक्षा करने और इंटरनेशनल इंस्टीट्यूशन में सुधार को आगे बढ़ाने का एक फ्रेमवर्क ज़्यादा है. यह इसके आगे बढ़ने के लिए जगह बनाने और एक ऐसे ग्लोबल ऑर्डर को आगे बढ़ाने का काम करता है जो आज की असलियत को बेहतर ढंग से दिखाता हो. वहीं पुतिन भी मल्टीपोलैरिटी को वैश्विक राजनीति के लोकतान्त्रिककरण का एक साधन के रूप में देखते हैं. वह इसके माध्यम से रूस को विश्व में खोए हुए पहचान को स्थापित करना चाहते हैं.

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इसके अलावे मोदी और पुतिन दोनों ही ऐसे नेता हैं जो अपने-अपने देशों में मजबूत, निर्णायक और राष्ट्रवादी छवि के साथ उभरे हैं. दोनों ने लगभग एक समय पर अपने देशों की बागडोर संभाली. दोनों की सोच में एक समानता है कि वे अपने देश की संप्रभुता और हितों को सर्वोपरि रखते हैं. यह समानता उन्हें एक-दूसरे के फैसलों और घरेलू राजनीतिक दबावों को बेहतर ढंग से समझने में मदद करती है, जिससे उनके बीच एक अलग ही तालमेल बन जाता है. व्यक्तिगत रूप से दोनों एक दूसरे का सम्मान करते हैं इसलिए कभी-कभी अनौपचारिक हो जाते हैं जैसे 2018 में रूस के सोची (Sochi) में हुई अनौपचारिक शिखर वार्ता इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जहाँ दोनों नेताओं ने कोई औपचारिक समझौते नहीं किए, बल्कि दुनिया के मुद्दों पर खुलकर चर्चा की.

बेहद सहज हैं मोदी और पुतिन के रिश्ते

यह मुलाकात दर्शाती है कि दोनों एक-दूसरे से सलाह लेने और विचारों का आदान-प्रदान करने के लिए कितने सहज हैं. दोनों नेताओं की मुलाकातों के दौरान गले मिलना, हाथ मिलाने का तरीका और एक-दूसरे के लिए नरम शब्दों का इस्तेमाल अक्सर देखा जाता है. पुतिन ने एक बार कहा था, "प्रधानमंत्री मोदी एक ऐसे नेता हैं जो अपने शब्दों और कार्यों को लेकर स्पष्ट हैं." वहीं, मोदी ने भी अक्सर पुतिन को भारत का "विश्वसनीय मित्र" बताया है. यूक्रेन युद्ध जैसे वैश्विक संकट के दौरान भी दोनों नेताओं के बीच फोन पर बातचीत का सिलसिला जारी रहा. यह दर्शाता है कि वे मुश्किल हालातों में भी सीधे संवाद करने के महत्व को समझते हैं. मोदी का पुतिन को जन्मदिन पर फोन करना भी इसी निजी संबंध का प्रतीक है. दोनों नेता एक दूसरे के देश में काफी लोकप्रिय हैं.

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चीन एवं पश्चिमी देशों कि क्या हैं चिंताएं:

ऐसा नहीं है कि पुतिन के इस यात्रा से भारत और रूस के हित पूरे होंगे बल्कि, पश्चिमी देशों एवं चीन कि नजर भी इस यात्रा पर है. तभी तो पश्चिमी मीडिया यूक्रेन को केंद्र में रखकर इस यात्रा कि आलोचना कर रहा है. एक दिसंबर को भारत में जर्मनी के राजदूत फ़िलिप एकरमैन, फ़्रांस के राजदूत थिरी मथोउ और ब्रिटेन की उच्चायुक्त लिंडी कैमरुन ने टाइम्स ऑफ इंडिया में एक आर्टिकल लिखा था. इस लेख में यूक्रेन युद्ध के लिए रूस को ज़िम्मेदार ठहराया गया है. पीएम मोदी का ज़िक्र करते हुए एक पैरा में लिखा गया है, ''दुनिया इस बात पर सहमत है कि युद्ध ख़त्म होना चाहिए. इस मामले में भारत भी स्पष्ट है. पीएम मोदी ने कहा था कि किसी भी समस्या का समाधान युद्ध के मैदान में नहीं मिल सकता है. ''

इससे जाहिर होता है कि पश्चिम के राष्ट्र नहीं चाहते हैं कि भारत रूस के करीब जा सके. जबकि भारत भी अपना एक कड़ा संदेश दे रहा है. जब ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका भारत के साथ अपमानजनक व्यवहार कर रहा है, तब नई दिल्ली न तो रूस को अलग-थलग करने और न ही पश्चिमी प्रतिबंधों की लाइन में चल रहा है जो उसकी रणनीतिक स्वायत्तता को नुक़सान पहुँचाते हैं. पुतिन की मेज़बानी करके भारत यह साफ़ कर रहा है कि वह पश्चिम से थोपे गए 'या तो हमारे साथ या हमारे ख़िलाफ़' वाली नीति को स्वीकार नहीं करता और अपनी स्वतंत्र राह चुनेगा. इस ओर इशारा करते हुए भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने स्लोवाकिया की राजधानी ब्रातिस्लावा में एक कॉन्फ़्रेंस में कहा था, ''यूरोप इस मानसिकता के साथ बड़ा हुआ है कि उसकी समस्या पूरी दुनिया की समस्या है, लेकिन दुनिया की समस्या यूरोप की समस्या नहीं है.
राष्ट्रपति पुतिन कि इस यात्रा से चीन भी चिंतित है क्योंकि चीन के लिए रूस ना केवल एक बड़ा बाजार है बल्कि, वह एक रणनीतिक पार्टनर भी है.

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जबकि रूस चाहता है कि चीन पर उसकी आत्म निर्भरता कम हो. इस ओर इशारा करते हुए राष्ट्रपति पुतिन के प्रवक्ता दिमित्री पेस्कोव मंगलवार को रूसी न्यूज़ एजेंसी स्पुतनिक की ओर से आयोजित ऑनलाइन प्रेस वार्ता में शामिल हुए थे. इसी प्रेस वार्ता में पेस्कोव ने कहा कि चीन के साथ रूस का संबंध सीमाओं से परे है और भारत के मामले में भी रूस का यही रुख़ है. पेस्कोव ने कहा कि यह भारत पर निर्भर करता है कि वह किस हद तक आगे बढ़ने के लिए तैयार है.

जियोपॉलिटिकल स्ट्रैटिजिस्ट का क्या मानना है?

जियोपॉलिटिकल स्ट्रैटिजिस्ट वेलिना चकारोवा मानती हैं कि रूस ने भारत के सामने यह ऑफ़र रखकर चीन पर बढ़ी अपनी निर्भरता को संतुलित करने की कोशिश की है. वेलिना चकारोवा ने एक्स पर लिखा है, रूस ने भारत के साथ सीमाओं से परे संबंध का संकेत दिया है, और यह अहम संकेत है. रूस खुलेआम भारत को बराबरी का रणनीतिक रुतबा देकर चीन पर बढ़ी निर्भरता को संतुलित करने की कोशिश कर रहा है. यह प्रतिबंधों के बीच रूस की अपने लिए रणनीतिक गुंज़ाइश तलाशने की कोशिश है.

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अंत में भारत के लिए अपना राष्ट्रहित सर्वोपरि है जबकि रूस और चीन का गठजोड़ अमेरिका विरोधी है. चीन और रूस दोनों अमेरिका को प्रतिद्वंद्वी मानते हैं, लेकिन भारत ऐसा नहीं मानता है. भारत को अपनी विकास यात्रा में अमेरिका की ज़रूरत है. भारत न तो रूस के लिए अमेरिका को छोड़ सकता है और न ही अमेरिका के लिए रूस को. भारत की ज़रूरत रूस, चीन और अमेरिका तीनों हैं. रूस से भारत का संबंध ऊर्जा और रक्षा तक सीमित है जबकि अमेरिका से बहुआयामी है. 2024 में अमेरिका और भारत का द्विपक्षीय व्यापार 129 अरब डॉलर का था और 45 अरब डॉलर का ट्रेड सरप्लस भारत के पक्ष में था. ऐसे में भारत क्यों अमेरिका विरोधी खेमे में शामिल होगा. भारत को अभी अमेरिकी तकनीक की ज़रूरत है.

डिस्क्लेमर: डॉ नीरज कुमार बिहार के वैशाली स्थित सीवी रमन विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान पढ़ाते हैं. लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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