मैंने महेंद्र बाबा के बारे में सबसे पहले अपने गुरु आचार्य पांडेय कपिल जी के उपन्यास ‘फुलसूंघी' से जाना. आहा, इस उपन्यास के पात्र, ढेलाबाई, केसरबाई, गुलजारी बाई, ललकी कोठी, उजरकी कोठी, हलिवंत सहाय, रिवेल साहेब, पलटुआ, जिरिया, ...एक-एक किरदार आंखों के सामने नाच रहे हैं. ‘फुलसूंघी' का अंग्रेज़ी अनुवाद प्रोफेसर गौतम चौबे ने किया है. यह पेंग्विन से प्रकाशित हुआ है. यह पहली बार हुआ कि किसी भोजपुरी उपन्यास का अंग्रेजी में अनुवाद हुआ. इसकी खूब चर्चा भी हुई. अभिनेता मनोज बाजपेयी ने न केवल इसकी तारीफ की, बल्कि जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में इसका वाचन भी किया. दरअसल, इस उपन्यास की भाषा बेहद काव्यात्मक है, कहानी फिल्मी है. इसमें संवेदना और टर्न एंड ट्विस्ट कूट-कूट के भरा हुआ है. बस चार पन्ने पढ़िए, फिर आप इसे खत्म किए बिना रह ही नहीं सकते. ऐसा आकर्षण है इसमें.
करीब 28 साल पहले मैंने इसका नाट्य रूपांतरण किया था. तब इस उपन्यास के हर पन्ने की पंक्तियां मेरे जेहन में दर्ज थीं. इसकी भाषा ने मुझे गहराई से प्रभावित किया था. मेरा मन था कि इस पर फिल्म बने. मैंने 2002 में फिल्म निर्देशक अनुभव सिन्हा और 2017 में टेलीविजन पर्सनैलिटी अनिरुद्ध पाठक को यह किताब इस आग्रह के साथ दी थी कि इसे पर्दे पर लाया जाए, लेकिन अब तक ऐसा नहीं हो सका. मेरी इच्छा थी कि मेरे गुरु आचार्य पांडेय कपिल अपनी इस ऐतिहासिक कृति को फिल्मी परदे पर जीवंत होते देखें, पर अफसोस, ऐसा हो नहीं पाया, और अब वे भी इस दुनिया में नहीं रहे.
महेंद्र मिसिर पर कौन सा उपन्यास लिखा गया है
'फुलसूंघी' पढ़ने के बाद महेंद्र मिसिर में मेरी रुचि और बढ़ी. फिर मैंने उन पर लिखी कई अन्य किताबें भी पढ़ीं. भोजपुरी के पहले उपन्यासकार रामनाथ पांडेय के उपन्यास 'महेन्दर मिसिर' में महेंद्र मिसिर का जो चरित्र चित्रण है, वह 'फुलसूंघी' से बिल्कुल अलग है. वहां उनका स्वतंत्रता सेनानी वाला रूप अधिक प्रमुख है. इसके बाद मैंने भगवती प्रसाद द्विवेदी जी की महेंद्र मिसिर पर लिखा मोनोग्राफ पढ़ा, जौहर जी की ‘पूर्वी के धाह' देखी, और रवीन्द्र भारती का हिंदी नाटक 'कंपनी उस्ताद' भी देखा. सन् 1998 में जब मैं भोजपुरी के प्रथम टेलीविजन धारावाहिक 'सांची पिरितिया' में काम कर रहा था, उसी समय मॉरिशस से एक सीरियल आया, 'महकेला माटी भोजपुरिया', जो महेंद्र मिसिर पर ही आधारित था. डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने अपनी किताब 'कविवर महेन्दर मिसिर के गीत-संसार' में महेंद्र मिसिर के गीतों का सुंदर संकलन किया है.
महेंद्र मिसिर का सबसे लोकप्रिय गीत है- अंगुरी में डंसले बिया नगिनिया. यह पूर्वी है. बहुत से गायकों ने इसे गाया है. गीत देखें-
अंगुरी में डंसले बिया नगिनिया रे, ए ननदी, दियरा जरा द
दियरा जरा द, अपना भइया के बोला द
पोरे-पोरे उठेला लहरिया रे, ए ननदी, अपना भइया के बोला द,
अंगुरी में डंसले बिया...
पुरुब गइनी रामा, पछिम गइनी
कतहूं ना मिलल शहरिया रे, ए ननदी, दियरा जरा द...
अंगुरी में डंसले बिया...
तड़पेला देहिया जइसे, जल बिन मछरिया
रेगनीं के कांट भइल, बिजुरिया रे, ए ननदी, दियरा जरा द...
अंगुरी में डंसले बिया...
झूठ भइल ओझवा के, झार-फूंक-मंतर,
अब त जीयब जब, उहे दिहें जन्तर
बान्हि लिहे हमरी नजरिया रे, ए ननदी, दियरा जरा द...
अंगुरी में डंसले बिया ....
इस गीत से आपने अंदाजा लगा लिया होगा कि महेंदर मिसिर नारी मन के विशेषज्ञ थे.
उनका एक और लोकप्रिय पूर्वी देखें -
सासु मोरा मारे रामा, बांस के छिंऊकिया
ए ननदिया मोरी रे, सुसुकत पनिया के जाय
हाथवा में लिहली ननदो, सोने के घइलवा
ए ननदिया मोरी रे चलि भइली जमुना किनार
गंगा रे जमुनवां के चिकनी डगरिया
ए ननदिया मोरी रे पउआं, धरत बिछलाय
छोटे-मोटे पातर पियवा, हंसि के ना बोले
ए ननदिया मोरी रे से हो पियवा, कहीं चली जाय
छोटे-मोटे जामुन गछिया, फरे ना फुलाय
ए ननदिया मोरी रे से हो गछिया सूखियो ना जाय
गावत महेन्दर मिसिर इहो रे पुरूबिया
ए ननदिया मोरी रे पिया बिनु, रहलो ना जाय
अध्यात्म पर उनकी गहरी पकड़ थी. उनके व्यक्तित्व में भक्ति, दर्शन और लोकभावना का अद्भुत समन्वय दिखाई देता था-
माया के नगरिया में लागल बा बजरिया ए सोहागिन सुनऽ
चीझवा बिकाला अनमोल ए सोहगिन सुनऽ
कवनो सखी घूमि-फिरि मारेली नजरिया ए सोहागिन सुनऽ
कवनो सखी रोवे मनवां मार ए सोहागिन सुनऽ
यद्यपि महेंद्र मिसिर ने ‘महेन्द्र मंजरी', ‘विनोद', ‘महेन्द्र मयंक', ‘भीष्म प्रतिज्ञा', ‘कृष्ण गीतावली', ‘महेन्द्र प्रभाकर रत्नावली', ‘महेन्द्र चंद्रिका', ‘महेन्द्र कवितावली' आदि के साथ-साथ तीन नाटक और असंख्य स्वतंत्र (फुटकर) गीतों की भी रचना की, लेकिन उन्हें सबसे अधिक ख्याति 'पूर्वी गीतों' से ही प्राप्त हुई. उनका एक और अत्यंत लोकप्रिय गीत है–
आधी-आधी रतिया, कुहूके कोयलिया, राम बैरनिया भइली ना
मोरा अंखिया के निनिया, राम बैरनिया भइली ना
पिया परदेशिया ना, पतिया पेठवलन
राम मनरिया भइलें ना, मोरा छतिया के कोरिया, राम मनरिया भइलें ना
पुरुब के देशवा गइलें, मतिया मराई गइलें
निरमोहिया भइलें ना, हमके दरद देई के गइलें
निरमोहिया भइलें ना...
कहत महेन्दर मिसिर, कवन हमसे चूक भइल राम
अन्हरीया लागे ना, मोरा घरवा दुअरवा, राम, अन्हरीया लागे ना
मोरा अंखिया के निनिया.....
कहां हुआ था जन्म
बिहार के छपरा ज़िले के काहीं-मिश्रवलिया गांव में 16 मार्च 1886 को माता गायत्री देवी और पिता शिवशंकर मिश्र के घर जन्मे महेंद्र मिश्र को भोजपुरी के ‘शेक्सपियर' कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर अपना गुरु मानते थे.
मिसिर जी एक बलशाली पहलवान थे. उनका शरीर मजबूत और गठीला था. वे प्रायः धोती-कुर्ता पहनते, गले में सोने की सिकड़ी डालते और मुंह में पान चबाते रहते थे. उनकी पत्नी का नाम परेखा देवी था. कहा जाता है कि परेखा देवी कुरूप थीं. इस कारण महेंद्र मिसिर उनसे कुछ विमुख हो गए और अपने दुःख, विरह और संवेदना को उन्होंने गीत-संगीत के माध्यम से अभिव्यक्त करना शुरू किया. उनके एकमात्र पुत्र का नाम हिकायत मिसिर था.
महेंद्र मिसिर की नज़दीकी जब जमींदार हलिवंत सहाय से बढ़ी, तो उन्होंने जाना कि मुज़फ्फरपुर की कोठावाली की बेटी ढेलाबाई पर सहाय जी मोहित हैं. मिसिर जी ने ढेलाबाई का अपहरण कर उन्हें सहाय जी को सौंप दिया. लेकिन बाद में उन्हें अपने इस कार्य का पछतावा हुआ. सहाय जी की मृत्यु के बाद, उन्होंने ढेलाबाई को उनका अधिकार दिलाने में पूरा सहयोग किया.
आजादी के आंदोलन में महेंद्र मिसिर
महेंद्र मिसिर पर बंगाल के संन्यासी आंदोलन का गहरा प्रभाव था. उनमें देशभक्ति की भावना प्रबल थी. वे अंग्रेज़ों को देश से निकालने और क्रांतिकारियों की सहायता के लिए जाली नोट छापने लगे. इसकी खबर अंग्रेज़ सरकार तक पहुंच गई. अंग्रेजों ने उन पर नजर रखने के लिए खुफिया तंत्र का जाल फैला दिया. सीआईडी के अधिकारी जटाधारी प्रसाद और सुरेंद्रनाथ घोष के नेतृत्व में गुप्त जांच शुरू हुई. जटाधारी प्रसाद ने 'गोपीचंद' नाम से भेष बदलकर तीन साल तक मिसिर जी के साथी और नौकर के रूप में रहकर उनका भरोसा जीता, और अंततः विश्वासघात कर दिया. 16 अप्रैल 1924 की रात, जब महेंद्र मिसिर नोट छापने के काम में लगे हुए थे, तभी उन्हें उनके चारों भाइयों सहित, नोटों की गड्डी और मशीन के साथ गिरफ्तार कर लिया गया.
गोपीचंद की दगाबाजी पर महेंदर मिसिर के अंतःकरण से एक मर्मभेदी गीत गूँजा-
पाकल-पाकल पानवां खिवले गोपीचनवा
पिरितिया लगा के ना
मोहे भेजले जेहलखनवां रे
पिरितिया लगा के ना!
इस पर हाजिरजवाबी गोपीचंद यानी कि जटाधारी प्रसाद का जबाब सुनिये-
'नोटवा जे छापि-छापि गिनिया भजवलऽ ए महेन्दर मिसिर
ब्रिटिश के कइलऽ हलकान, ए महेन्दर मिसिर
सगरे जहनवां में कइलऽ बड़ा नाम, ए महेन्दर मिसिर
पड़ल बा पुलिसवा से काम, ए महेन्दर मिसिर!
लेकिन महेंदर मिसिर ने ऐसा क्यों किया, अपने गीत में बताया है-
'हमरा नीको ना लागे राम, गोरन के करनी
रुपया ले गइले, पइसा ले गइले, ले गइले सब गिन्नी
ओकरा बदला में त दे गइले ढल्ली के दुअन्नी
हमरा नीको ना लागे राम, गोरन के करनी
जब मुकदमा हार गए महेन्दर मिसिर
पटना हाई कोर्ट में लगातार तीन महीने तक मामले की सुनवाई चली. मिसिर जी के वकील थे, क्रांतिकारी हेमचंद्र मिश्र और प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी चितरंजन दास. लेकिन मिसिर जी मुकदमा हार गए. उन्हें दस साल की सजा सुनाकर बक्सर जेल भेज दिया गया, लेकिन उनके अच्छे व्यवहार के कारण उनकी सजा तीन साल कम कर दी गई. कहते हैं, जब वे जेल में बंद थे तो देश भर की तवायफों ने वायसराय को ब्लैंक चेक के साथ एक पत्र भेजा था, जिसमें गुजारिश की गई थी कि सरकार उस पर कोई भी रकम लिख सकती है, हम तवायफें अदा करेंगी, लेकिन महेन्दर मिसिर को आजाद कर दिया जाए. यह घटना इस बात की सबूत है कि तवायफों के मन में उनके लिए कितनी इज्जत थी.
जेल में ही उन्होंने ‘अपूर्व रामायण' नामक एक महाकाव्य की रचना की, जो भोजपुरी का पहला महाकाव्य माना जाता है.
महेन्द्र मिसिर ने कहां ली अंतिम सांस
महेन्द्र मिसिर को जेल से छुड़ाने के लिए ढेलाबाई ने अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया. वह उन्हें बचाकर घर ले आई. महेन्दर मिसिर ने अपने जीवन का अंतिम क्षण ढेलाबाई की कोठी में स्थित शिव मंदिर में ही गुजारा और वहीं अंतिम सांस ली. वह मनहूस दिन था, 26 अक्टूबर, 1946.
विवादित चरित्र के कारण आजादी के इतिहास में महेन्दर मिसिर को भले ही वह जगह न मिली हो, लेकिन उनके गीतों ने उनकी शख्सियत को हमेशा ऊंचा उठाए रखा. वह आज भी लोगों के दिलों में जीवित हैं. उनकी सोच, उनकी संवेदना और उनकी रचनाएं आज भी पूर्वी गीतों की अमर धुनों में गूंजती रहती हैं.
डिस्क्लेमर: लेखक मनोज भावुक भोजपुरी साहित्य-सिनेमा के जानकार और भोजपुरी भाषा के ग्लोबल प्रोमोटर हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.














