हिरोशिमा-नागासाकी से दुनिया ने क्या सीखा, परमाणु बम सुरक्षा हैं या खतरा?

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डॉक्टर पवन चौरसिया

दुनिया के बीते सौ सालों के इतिहास में हुई 'मानव-निर्मित त्रासदियों' की सूची में अमरीका द्वारा द्वितीय विश्व युद्ध में जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर किया गया परमाणु हमला सबसे ऊपर आएगा. इस एक हमले ने ना केवल एक झटके में हजारों बेगुनाहों की भयावह रूप से जान ले ली, बल्कि पूरी दुनिया की राजनीति को अप्रत्याशित रूप से बदल कर रख दिया. आठ दशक बाद जब हम इस घटना को याद करते हैं तो यह सवाल उठना वाजिब है कि क्या आज हमारी दुनिया परमाणु खतरे या कहें की 'परमाणु उन्माद' से पूरी तरह सुरक्षित है या उसके विपरीत हम आज परमाणु हमला होते हुए देखने के और निकट आते जा रहे हैं? क्या हम परमाणु निरस्त्रीकरण को लेकर वाकई गंभीर हैं या फिर इसका ध्यान बस छह अगस्त को 'हिरोशिमा दिवस' मनाने तक ही सीमित है.

बावजूद इसके की सारी दुनिया परमाणु हथियारों से मानवता पर उत्पन्न खतरे को पूरी तरह समझती है, फिर भी देशों में परमाणु हथियार बनाने और जमा करने की होड़ सी लगी है. दरअसल यह विषय अपने आप में बहु-आयामी और जटिल है. इस विरोधाभास का कोई सीधा सा हाल नहीं है. आज के दो संघर्षों- रूस-यूक्रेन युद्ध और इजरायल-ईरान युद्ध ने एक बार फिर आत्मरक्षा के लिए परमाणु हथियारों की प्रासंगिकता की बहस को मुख्य धारा में ला दिया है. कई विद्वानों का मानना है कि यदि सोवियत संघ के विघटन के बाद यूक्रेन ने अपने परमाणु हथियार रूस को नहीं दिए होते और यदि ईरान परमाणु हथियार बना चुका तो शायद उन दोनों के ऊपर हमला नहीं होता. 

भूराजनीति ने बढ़ाई परमाणु हथियारों की होड़  

ऐसा माना जा रहा था कि शीत युद्ध के खत्म होने और सोवियत संघ के विघटन के बाद परमाणु हथियारों की संख्या में कमी आएगी. लेकिन नए भूराजनीतिक समीकरणों के कारण कई देशों में हथियारों को बढ़ाने की होड़ सी लग गई है. साल 2024 की शुरुआत से ही परमाणु संपन्न देशों ने अपने परमाणु हथियारों को और भी ज्यादा उन्नत बनाने की दिशा में तेजी से कदम बढ़ाया है. इन देशों ने न केवल पुराने हथियारों को अपग्रेड किया है, बल्कि नई और अधिक घातक परमाणु तकनीकों को भी अपने सैन्य ताकत में शामिल किया है. दुनिया में नौ ऐसे देश हैं जो परमाणु संपन्न हैं. ये हैं- अमेरिका, उत्तर कोरिया, इजरायल, ब्रिटेन, रूस, फ्रांस, चीन, भारत और पाकिस्तान. 

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स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (STOCKHOLM INTERNATIONAL PEACE RESEARCH INSTITUTE 'SIPRI') की 2025 की रिर्पोट के मुताबिक साल की शुरुआत में दुनियाभर में करीब 12,241 परमाणु हथियार मौजूद थे. इनमें से करीब 9,614 हथियार ऐसे हैं जो सैन्य इस्तेमाल के लिए तैयार हालत में रखे गए हैं. इन हथियारों में से 3,912 मिसाइलों और विमानों पर पहले से तैनात हैं, जबकि बाकी हथियार केंद्रीय गोदामों में सुरक्षित रखे गए हैं. लगभग 2,100 हथियार ऐसे हैं जिन्हें बैलिस्टिक मिसाइलों पर बहुत उच्च सतर्कता की स्थिति में रखा गया है. इनमें से अधिकतर रूस और अमेरिका के पास हैं.

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किस देश के पास कितने परमाणु हथियार

'सिपरी' दुनिया भर में हथियारों पर नजर रखने वाली स्वायत्त अंतरराष्ट्रीय संस्था है. इसकी रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका के पास करीब 5,177 परमाणु हथियार हैं, जबकि रूस के पास 5,459 परमाणु हथियार हैं. सनद रहे की साल 2010 में अमेरिका और रूस के बीच 'न्यू स्टार्ट' समझौता हुआ था, जो कि परमाणु हथियारों की सीमाएं तय करता है, परंतु यह समझौता 2026 में खत्म हो जाएगा. यदि इसे फिर से नहीं बढ़ाया गया, तो दोनों देश मिसाइलों पर और ज्यादा परमाणु हथियार तैनात कर सकते हैं. वहीं दूसरी ओर अपने आप को विश्व की दूसरी सबसे बड़ी सैन्य महाशक्ति के रूप में स्थापित करने के लिए चीन परमाणु हथियारों की दौड़ में बड़ी तेजी से आगे आ रहा है. सिपरी की रिपोर्ट के अनुसार उसके पास अब कम से कम 600 परमाणु हथियार हैं. 2023 से वह हर साल औसतन 100 नए हथियार जोड़ रहा है. अगर यही रफ्तार बनी रही, तो उसके पास अमेरिका और रूस जैसी इंटरकॉन्टिनेंटल ताकत हो सकती है. 

साल 2024 में भारत के परमाणु हथियारों की संख्या में भी बढ़ोतरी हुई है. जानकारों का मानना है की चीन और पाकिस्तान द्वारा हाल ही में जिस तरह से नए एवं अत्याधुनिक परमाणु हथियार विकसित किए गए हैं, उसकी वजह से भारत ने भी अब अपने हथियार के ज़खीरे को बढ़ाना शुरू कर दिया है. भारत के पास कुल 180 परमाणु हथियार हैं. इसके अलावा कुछ नई मिसाइलें विकसित की गई हैं, जिनमें से कुछ 'कैनिस्टराइज्ड' तकनीक से लैस हैं. मतलब इन्हें शांतिकाल में भी तैनात रखा जा सकता है. इनमें से कुछ मिसाइलें एक साथ कई परमाणु हथियार ले जाने में भी सक्षम हैं. 

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भारत की परमाणु राजनीति

भले ही भारत एक परमाणु हथियार संपन्न देश है, लेकिन भारत का मूल विचार वस्तुतः परमाणु हथियार मुक्त विश्व बनाने का रहा है. और इसका एक परिप्रेक्ष्य भी है. भारत की परमाणु यात्रा रणनीतिक आवश्यकताओं, नैतिक विचारों और भू-राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का एक जटिल अंतर्संबंध है. साल 1947 में अपनी स्वतंत्रता से लेकर 1998 में एक घोषित परमाणु शक्ति के रूप में उभरने तक भारत की परमाणु नीति सुरक्षा अनिवार्यताओं, नैतिक चिंताओं और वैश्विक निरस्त्रीकरण के प्रति प्रतिबद्धता के बीच एक नाज़ुक संतुलन को दर्शाती है. भारत की परमाणु नीति की जड़ें स्वतंत्रता के बाद के युग में हैं, जो इसके नेताओं, विशेष रूप से महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के दृष्टिकोण से आकार लेती हैं. गांधी मूल रूप से परमाणु हथियारों के मुखर विरोधी थे. उन्होंने 1945 में हिरोशिमा और नागासाकी पर हुए परमाणु बम विस्फोटों को एक नैतिक आपदा के रूप में देखा था. उन्होंने कहा था कि परमाणु बम 'विज्ञान के सबसे शैतानी उपयोग' का प्रतिनिधित्व करता है.

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भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने वैज्ञानिक प्रगति और वैश्विक निरस्त्रीकरण पर दोहरे जोर के साथ भारत की परमाणु नीति की नींव रखी थी. नेहरू ने परमाणु प्रौद्योगिकी को विकास के एक उपकरण के रूप में दर्शाने के उद्देश्य से 1954 में संयुक्त राष्ट्र में एक 'स्थिर समझौते' का प्रस्ताव रखा था, जिसमें परमाणु परीक्षण रोकने और अंततः निरस्त्रीकरण का आह्वान किया गया था. नेहरू का दृष्टिकोण इस विश्वास पर आधारित था कि एक गुटनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में भारत, वैज्ञानिक क्षमता का निर्माण करते हुए वैश्विक शांति को बढ़ावा देने में एक उदाहरण स्थापित कर सकता है.साल 1962 का भारत-चीन युद्ध और चीन के 1964 के परमाणु परीक्षण ने भारत को परमाणु हथियारों को एक निवारक के रूप में देखने की दिशा में बदलाव को प्रेरित किया. पोकरण में 1974 का 'शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोट', जिसका कोडनाम 'स्माइलिंग बुद्धा' था, भारत के परमाणु क्लब में प्रवेश का प्रतीक था, हालांकि इसे हथियारीकरण के प्रयास के बजाय एक वैज्ञानिक उपलब्धि के रूप में प्रस्तुत किया गया था. शीत युद्ध के बाद के दौर में, क्षेत्रीय सुरक्षा खतरों, खासकर पाकिस्तान और चीन के मद्देनजर, परमाणु हथियारों को आगे बढ़ाने के भारत के तर्क ने आकार लिया. प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 1998 में किए गए पोकरण-II परीक्षणों ने भारत को एक परमाणु-सशस्त्र संपन्न राष्ट्र घोषित किया. इसे 'विश्वसनीय न्यूनतम निवारक' की आवश्यकता के आधार पर उचित ठहराया गया. भारत के सिद्धांत में पहले इस्तेमाल न करने और केवल जवाबी कार्रवाई की नीतियों पर जोर दिया गया. 

भारत और परमाणु निरस्त्रीकरण का प्रयास

बुद्ध और गांधी के देश भारत ने वैश्विक स्तर पर निरस्त्रीकरण के भी अनेकों प्रयास किए हैं. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी 1988 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में परमाणु-हथियार-मुक्त और अहिंसक विश्व व्यवस्था के लिए कार्य योजना प्रस्तुत की, जिसमें परमाणु हथियारों के समयबद्ध उन्मूलन का आह्वान किया गया. उन्होंने सार्वभौमिक, गैर-भेदभावपूर्ण निरस्त्रीकरण पर जोर दिया और परमाणु पदानुक्रम को बनाए रखने के लिए एनपीटी (नॉन प्रोलिफरेशन ट्रीटी) की आलोचना भी की थी. दूरदर्शी होने के बावजूद, इस योजना को परमाणु शक्तियों के बीच बहुत कम समर्थन मिला. गौरतलब है की संयुक्त राष्ट्र में भारत ने लगातार परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की निंदा की है,  खासकर हिरोशिमा और नागासाकी पर हुए बम विस्फोटों का हवाला देते हुए. हिरोशिमा दिवस (6 अगस्त) के वार्षिक स्मरणोत्सव पर भारत अपने नैतिक और रणनीतिक रुख के अनुरूप परमाणु-हथियार-मुक्त विश्व के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि करता है. नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक, हर प्रधानमंत्री ने विश्व शांति के लिए भेदभाव विहीन निरस्त्रीकरण का समर्थन किया है. 

हिरोशिमा, नागासाकी और परमाणु उन्माद 

छह अगस्त 1945 को अमेरिकी बी-29 बमवर्षक, एनोला गे ने जापानी शहर हिरोशिमा पर 'लिटिल बॉय'  परमाणु बम गिराया था. इसके तीन दिन बाद,नौ अगस्त को, नागासाकी शहर पर 'फैट मैन' नाम का दूसरा बम गिराया गया. दोनों विस्फोटों ने मिलकर, उस साल के अंत तक तापीय विस्फोट और आयनकारी विकिरण के गंभीर प्रभावों से दो लाख से अधिक लोगों की जान ले ली थी. हालांकि इस बात पर बहस जारी है कि क्या ये हमले नैतिक और सैन्य दृष्टि से उचित थे, फिर भी कई अमेरिकी मानते हैं कि इन्हीं हमलों ने 15 अगस्त को जापान को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर किया था. अगस्त 2025 को इन बम विस्फोटों की 80वीं वर्षगांठ के रूप में मनाया जा रहा है.यह सवाल पूछा जा रहा है कि क्या हमने इस घटना से कुछ सबक भी सीखा है? 

जापानी शहर नागासाकी पर 9 अगस्त 1945 को गिराए गए 'फैट बम' को ले जाते कर्मचारी.
Photo Credit: Pacific War Museum

आज वैश्विक परमाणु विमर्श परमाणु युद्ध के विनाशकारी परिणामों के प्रति पहले से कहीं अधिक सचेत है. पिछले एक दशक में परमाणु हथियारों पर मानवीय पहल के उदय ने परमाणु हथियारों पर प्रतिबंध लगाने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय अभियान को गति दी है. परमाणु हथियारों को खत्म करने के लिए लगे हुए अनेकों संगठनों ने विश्व के सबसे शक्तिशाली देशों से परमाणु निवारण का परित्याग करने का आह्वान किया है. यह चेतावनी भी दी है कि यूक्रेन और पश्चिम एशिया में संघर्षों ने परमाणु हथियारों की बढ़ती स्वीकार्यता में योगदान दिया है. ऐसे में वैश्विक नागरिक समाज में इस बात पर आम सहमति बनाने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी कि एक सच्चे शांतिपूर्ण विश्व के लिए परमाणु हथियारों का उन्मूलन अत्यंत जरूरी है. परमाणु बम विस्फोट में जीवित बचे लोगों का एक नेटवर्क, 'निहोन हिडांक्यो', जिसने पिछले साल 'नोबेल शांति पुरस्कार' जीता था, ने कहा है कि मानवता परमाणु संपन्न देशों को चुनौती देने के लिए समय के विरुद्ध दौड़ में है. जिन हथियारों ने हिरोशिमा और नागासाकी में इतनी तबाही मचाई थी, उन्हें एक बार फिर दबाव के औजार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है. हालांकि निहोन हिडांक्यो को नोबेल पुरस्कार मिलना विश्व शांति के लिहाज से उम्मीद की एक नई किरण है.

कैसी है 2025 की परमाणु दुनिया

हिरोशिमा और नागासाकी का सबक सिर्फ यह नहीं है कि परमाणु युद्ध विनाशकारी है, बल्कि यह भी है कि एक बार शुरू हो जाने पर इसे पलटा नहीं जा सकता. साल 2025 की परमाणु दुनिया शीत युद्ध के दौर से कहीं ज्यादा जटिल है.आज विश्व के नेताओं के सामने यह विकल्प है कि इस दूसरे परमाणु युग को अनियंत्रित रूप से फैलने दें या इसे रोकने के लिए आवश्यक राजनीतिक इच्छाशक्ति जुटाएं.

कोई भी वैज्ञानिक खोज या आविष्कार अपने आप में कल्याणकारी या विध्वंसक नहीं होता है. यह उसका प्रयोग करने वाले की मंशा पर निर्भर करता है कि वो इससे किसी का भला करना चाहता है या हानि. सनद रहे की परमाणु तकनीक का प्रयोग अगर रचनात्मक कार्यों, जैसे की स्वच्छ ऊर्जा उत्पादन, चिकित्सा, फसलों में सुधार (म्युटेशन ब्रीडिंग) आदि के लिए किया जाए तो यह पूरी मानवता के लिए लाभकारी हो सकती है. और यदि इसका प्रयोग परमाणु बम और मिसाइल बनाने के लिए किया जाए तो यह पूरी मानव जाति के अस्तित्व को ही मिटा सकती है. यदि हमें अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए इस पृथ्वी को सुरक्षित बनाना है तो पूरे विश्व को इस अंधी शस्त्र प्रतिस्पर्धा से उत्पन्न 'परमाणु उन्माद' से दूर जाना पड़ेगा.

अस्वीकरण: डॉ. पवन चौरसिया,इंडिया फाउंडेशन में रिसर्च फेलों के तौर पर काम करते हैं और अंतरराष्ट्रीय कूटनीति पर लगातार लिखते रहते हैं. इस लेख में दिए गए विचार लेखक के निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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