भारत में कोविड से मरने वालों की संख्या को लेकर सवाल बवाल हुआ और फिर ठंडा हो गया. भारत का सारा मॉडल इसी पर आधारित लगता है कि जल्दी चर्चा टले और नई चर्चा हो, दर्शक की भी ट्रेनिंग यही है कि आज कुछ नया देखा जाए. जबकि नया के नाम पर बातें वही पुरानी हो रही होती हैं बस जिस बात से दिक्कत होती है उसे पीछे कर दिया जाता है. 15 मई को प्रधानमंत्री ने राज्यों से कहा कि संख्या अधिक है तो अधिक बताएं. 15 दिन बीत गए लेकिन विपक्ष के राज्यों के एलान से आगे कुछ हुआ नहीं.
दक्षिण अमरीकी देश पेरू की जनता ने कोविड से मरने वालों की सरकारी संख्या को लेकर जब संदेह किया तो वहां की सरकार ने अप्रैल महीने में एक कमेटी बना दी जिसमें पेरू और WHO के एक्सपर्ट थे. मई के अंत में इसकी रिपोर्ट आ गई है. इस रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया गया है और पेरू के प्रधानमंत्री ने पैनल के सदस्यों का हुक्का पानी बंद करवाने की जगह उनका शुक्रिया अदा किया है. पेरू में अब मरने वालों की संख्या 69,342 से बढ़ा कर 180,000 कर दी गई है. दोगुनी. पेरू के प्रधानमत्री ने कहा कि यह हमारा कर्तव्य है कि जनता को सही संख्या के बारे में बताएं. इस तरह प्रति व्यक्ति यानी Per Capita के हिसाब से दुनिया में सबसे अधिक मृत्यु दर पेरू की हो गई है. पेरू ब्राज़ील से भी आगे निकल गया है. एक्सेस डेथ के आधार पर यह संख्या बढ़ाई गई. पिछले साल जितनी मौत हुई थी उससे अधिक संख्या को कोविड में शामिल किया गया है. ठीक यही बात दिव्य भास्कर ने अपनी रिपोर्ट में दिखाई थी कि गुजरात में पिछले साल की तुलना में इस साल के 71 दिनों में 65000 अधिक पंजीकरण हुआ है. लेकिन भारत में किसी को फर्क नहीं पड़ा.
पेरू का उदाहरण यह बताने के लिए नहीं दिया कि नैतिकता की राजधानी भारत में नहीं है. इसलिए दिया कि जब पेरू कर सकता है तो भारत क्यों नहीं मरने वालों की गिनती फिर से कर सकता है. क्या हम कभी जान पाएंगे कि कोरोना से कितने लोग मरे हैं? या दिन भर इसी फिराक में रहेंगे कि कैसे भी दूसरा मुद्दा आ जाए ताकि डिबेट बदल जाए. 28 दिसंबर को रूस ने मरने वालों की सरकारी संख्या 57,000 से बढ़ा कर 180,000 कर दी थी. अक्तूबर 2020 में मेक्सिको के National Centre for Preventive Programs and Disease Control ने मरने वालों की संख्या में 50,000 की वृद्धि कर दी लेकिन मेक्सिको ने अपने आधिकारिक आंकड़े में बदलाव नहीं किया. कम से कम वहां एक संस्था तो है जो अपनी सरकार से अलग बात करती है. मेक्सिको में सभी मृतक के मृत्यु प्रमाण पत्र की समीक्षा की गई है. अमरीका में भी National Institute of Allergy and Infectious Diseases के निदेशक फाउची ने माना कि इसमें तो कोई शक ही नहीं कि अमरीका में कोविड से होने वाली मौत की कम गिनती हुई लेकिन वह यह नहीं मानते कि वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के अनुसार नौ लाख मरे होंगे.
कम से कम मानते तो हैं कि मौतों की गिनती कम हुई है. यहां तक कि पिछले साल अप्रैल में चीन के वुहान में भी कोविड से मरने वालों की संख्या डबल कर दी गई थी. चलिए पेरू की तरह नहीं, मेक्सिको और अमरीका की तरह नहीं लेकिन क्या कभी भारत में ब्रिटेन की तरह हो सकता है? पिछले हफ्ते ब्रिटेन की सरकार के पूर्व सलाहकार डोमिनिक कमिंग्स ने संसद की हेल्थ एंड साइंस कमेटी के सामने बयान दिया कि प्रधानमंत्री जॉनसन और स्वास्थ्य सचिव ने देश से झूठ बोला. प्रधानमंत्री जॉनसन मीडियाबाज़ी करते रहते हैं. लोगों को सही इलाज नहीं दिया. टेस्टिंग और टीकाकरण में देरी की. कमिंग्स ने माना कि हज़ारों लोग मरे हैं उन्हें मरना नहीं चाहिए था. खुद की भी नाकामी मानी और मरने वालों के परिजनों से माफी मांगी. पिछले साल तालाबंदी के नियम तोड़ने के लिए ब्रिटेन की सरकार के कोविड सलाहकार नील फर्गुसन को इस्तीफा देना पड़ा था. यहां तो कोविड के नाम पर आपदा प्रबंधन की असीम शक्तियों को हाथ में लेकर गृह मंत्री बिना मास्क के रैली करते रहे. सरकार के भीतर से किसी ने कुछ नहीं कहा. कोविड टास्क फोर्स के किसी सदस्य ने कुछ नहीं कहा. क्या आप उम्मीद कर सकते हैं कि भारत का कोविड नेशनल टास्क फोर्स उन परिवारों से माफी मांगेगा और कहेगा उन्हें इस तरह तड़प कर नहीं मरना था. यह हमारी नाकामी है. सरकार ने हमारे सुझावों पर अमल नहीं किया? क्या जनता को पता भी है कि आक्सीजन की आपूर्ति के बारे में सरकार और जनता को बताना टास्क फोर्स का काम है या किसी औऱ कमेटी का? क्या टास्क फोर्स के सदस्यों में से कोई नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा देगा? ये कहेगा कि मरने वालों की संख्या फिर से गिनी जानी चाहिए? इतनी तबाही के बीच क्या किसी सदस्य को नैतिक संकट नहीं हुआ होगा कि वह इस कमेटी में क्या कर रहा है? कोविड टास्क फोर्स है या कठपुतली टाक्स फोर्स है.
हम आपको न्यूज़ीलैंड का उदाहरण देना चाहते हैं. न्यूज़ीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिंडा अरडर्न तो कोविड को लेकर फेसबुक लाइव और हर दिन प्रेस से बात करती रहीं. प्रधानमंत्री जेसिंडा प्रेस कांफ्रेंस में स्वास्थ्य मंत्रालय के मुख्य कार्यकारी अधिकारी एशली ब्लूमफिल्ड के साथ आती थीं. न्यूज़ीलैंड के स्वास्थ्य मंत्रालय में ही एग्जीक्यूटिव लीडरशिप टीम है जिसके 20 सदस्य हैं. प्रधानमंत्री और ब्लूमफिल्ड ही कोरोना से जुड़े फैसलों की आधिकारिक घोषणा करते थे. अभी भी ब्लूमफिल्ड ही मीडिया के सवालों का विस्तार से जवाब देते हैं. खुलकर बोलते हैं. ब्लूमफिल्ड ने पिछले ही हफ्ते कहा कि उन्हें लगता है कि तीन से पांच साल तक तालाबंदी जैसे प्रतिबंध रहेंगे. किसी ने उन पर नकारात्मक होने का आरोप नहीं लगाया और न ब्लूमफिल्ड ने कोरोना को हरा देने जैसा बोगस दावा किया. न्यूज़ीलैंड की जनता को पता है कि इस महामारी की लड़ाई का कमांडर कौन है. भारत में टास्क फोर्स का वैज्ञानिक यह बात बोल देगा तो उसकी बात को काटने के लिए टास्क फोर्स के दूसरे वैज्ञानिक प्रेस कांफ्रेंस करने लगेंगे. हेडलाइन मैनेज हो जाएगा. भारत में अगर आप कोरोना से संबंधित बयानों को इंटरनेट में सर्च करेंगे तो आपको कई चेहरे मिलेंगे.
प्रधानमंत्री, स्वास्थ्य मंत्री, परिवहन मंत्री, रक्षा मंत्री, नागरिक उड्डयन मंत्री, पर्यावरण मंत्री, विदेश मंत्री, रसायन व उर्वरक मंत्री, क़ानून मंत्री. और भी न जाने कितने मंत्री राज्य मंत्री कोरोना पर ज्ञान देते मिल जाएंगे. सरकार के अलावा पार्टी के अध्यक्ष और प्रवक्ता भी अपने-अपने दावे करते हैं. जिस वक्त महाराष्ट्र के अमरावती में लाकडाउन हुआ था और तब दूसरी लहर की बात चल पड़ी थी, बीजेपी की कार्यकारिणी में कोरोना को हराने के लिए प्रधानमंत्री को धन्यवाद दिया जाता है. इसके अलावा परिवहन मंत्री और स्वास्थ्य मंत्री रामदेव की तथाकथित दवा के लांच में जाते हैं, बताया जाता है कि कोरोना से लड़ने के लिए है लेकिन ICMR इस दवा का नाम तक नहीं लेता है.
तय करना मुश्किल हो जाता है कि कोविड की लड़ाई गृह मंत्रालय लड़ रहा है या परिवहन मंत्रालय. स्वास्थ्य मंत्री की जानकारी सही है या नागरिक उड्डयन मंत्री की. महामारी से लड़ने में नाकाम होने पर दुनिया भर में आठ से अधिक स्वास्थ्य मंत्रियों ने इस्तीफा दिया है और देना पड़ा है. जार्डन के स्वास्थ्य मंत्री तो बिल्कुल ही नैतिकता में भारत से पिछड़े हैं जिन्होंने ऑक्सीजन की कमी से छह लोगों की मौत के कारण इस्तीफा दे दिया. कम से कम एक बार भारत के स्वास्थ्य मंत्री को फोन ही कर लेते. वो बता देते कि दिल्ली के अस्पतालों में पचास से अधिक लोग आक्सीजन की कमी से मर गए, इस्तीफा देने का तो ख़्याल ही नहीं आया. नैतिकता के सेंट्रल विस्ता का पिस्ता बना कर कहीं चबाया जा चुका है तो वह देश भारत है.
पिछले साल सितंबर में चेक गणराज्य के प्रधानमंत्री ने महामारी के विशेषज्ञ Prymula को नया स्वास्थ्य मंत्री बना दिया. कोविड से निपटने में नाकामी के कारण स्वास्थ्य मंत्री को इस्तीफा देना पड़ा था. दक्षिण कोरिया में महामारी के बीच में स्वास्थ्य मंत्री को बदल दिया गया औऱ कोरिया हेल्थ इंडस्ट्री डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट के प्रमुख को नया स्वास्थ्य मंत्री बना दिया. कनाडा में जस्टिन ट्रूडो ने एक दूसरे देश बेरूत मूल की नागरिक डॉ मोना नेमर को मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार बनाए रखने के लिए उनका कार्यकाल बढ़ा दिया गया. भारत में ऐसा होता तो यकीनन हम कोरोना की लड़ाई छोड़कर पहले विदेशी मूल का हिसाब कर रहे होते.
जर्मनी में तालाबंदी का फैसला 26 सदस्यों की समिति के सुझाव के बाद लिया जाता है. इस ग्रुप में इतिहासकार, दार्शनिक, वकील, शिक्षक और नैतिकता के विद्वान भी थे जो हर पहलु पर विचार कर तालाबंदी के फैसले पर पहुंचते हैं. तालाबंदी के अंकुश को हटाने का फैसला भी यही कमेटी करती है. जर्मनी की कमेटी में एथिक्स के एक्सपर्ट हैं. यह सवाल पूरी तरह नैतिकता का था कि दूसरी बीमारी के मरीज़ के लिए अस्पताल और ओपीडी बंद करना सही है या नहीं. लेकिन भारत में तो अस्पताल बंद करने और कोविड रिज़र्व करने से पहले इस तरह का संकट भी किसी को नहीं हुआ होगा. न जाने कितने लोग मर गए होंगे. भारत में पिछली बार 500 केस होने पर तालाबंदी का विनाशकारी फैसला किसके सुझाव पर लिया गया, फैसले से पहले कितने घंटे का विचार विमर्श हुआ, किसी को नहीं पता है.
ताइवान और चीन के वुहान के बीच दर्जनों उड़ाने हर दिन आती जाती हैं. ताईवान ने तो 31 दिसंबर 2019 को ही चीन से आने वाली उड़ानों को सीमित कर दिया था जिस दिन चीन ने वुहान में संक्रमण की ख़बर पहली बार डब्ल्यूएचओ को दी थी. ये उस समय की बात है जब कोरोना का नाम कोविड-19 तक नहीं पड़ा था.
2003 के सार्स के अनुभवों से सीख कर ताईवान ने नेशनल हेल्थ कमांड सेंटर बनाया है. 20 जनवरी 2020 को ही यह कमांड सेंटर शुरू हो चुका था. सेंट्रल एपिडेमिक कमांड सेंटर ही फैसले लेता था और लागू करता था. ताइवान के स्वास्थ्य मंत्री इस कमांड सेंटर के कमांडर थे. ताइवान के राष्ट्रपति ने भारत के नेताओं की तरह ज़्यादा हार्ड वर्क तो नहीं किया है लेकिन लंदन स्कूल ऑफ इकोनमिक्स से पीएचडी हैं और उप राष्ट्रपति महामारियों के विशेषज्ञ हैं.
दुनिया कैसे लड़ रही है और मोदी सरकार कैसे लड़ रही है इसका तुलनात्मक अध्ययन कम हुआ है. वैसे इन दिनों केंद्र सरकार बंगाल के पूर्व मुख्य सचिव से लड़ रही है. लाखों लोगों के मर जाने और हज़ारों के तड़पा तड़पा कर मार दिए जाने के बाद भी सत्ता का अहंकार चरम पर है. जिनके घर मौत हुई है वो सदमे से उबर नहीं पाए होंगे, कायदे से यह समय शोक का होना चाहिए लेकिन ताकत की आज़माइश हो रही है. न्यूज़ीलैंड की प्रधानमंत्री ने तालाबंदी का नियम तोड़ने के लिए अपने स्वास्थ्य मंत्री का रैंक घटा दिया था. भारत के स्वास्थ्य मंत्री विपक्ष के नेता को गिद्ध बोल रहे हैं. ट्रोल की भाषा बोल रहे हैं.
वही दूसरी तरफ प्रेरक प्रसंगों से देश को प्रेरित करने के लिए प्रधानमंत्री नायक खोज रहे हैं. उन्होंने अपने मन की बात में अस्पताल तक आक्सीजन पहुंचाने वाले ट्रक ड्राइवर और पायलट से बात की. बत्रा और जयपुर गोल्डन अस्पताल के डॉक्टर से बात नहीं की जहां आक्सीजन की सप्लाई बंद हो जाने से कई लोग मर गए. पूछा होता कि आक्सीजन बंद हो रहा था और मरीज़ की सांस उखड़ रही थी तब आपके मन की बात क्या थी. जो लोग मरे हैं उनके परिजनों से बात करनी चाहिए थी ताकि नरसंहार का अंदाज़ा होता, पता चलता कि सरकार किस स्तर पर आक्सीजन का इंतज़ाम करना भूल गई. इसकी जगह मर जाने के बाद आक्सीजन पहुंचाने वाले ड्राइवर और पायलट में जबरन नायक खोजा जा रहा है. ये लोग सराहना के काबिल हैं लेकिन नायकों के ऐसे प्रसंग से लड़ाई की रणनीति में कौन सा मूल बदलाव हो जाता है. I am asking you...dont you know who.
हर बात में प्रेरक प्रसंग ढूंढने की भी एक सीमा होती है. ऐसा नहीं है कि भारत में महामारी से लड़ने के लिए कमेटी और ग्रुप की कमी है. कमेटी के भीतर कमेटी, कमेटी के बाहर कमेटी, कमेटी के ऊपर कमेटी और कमेटी के नीचे कमेटी. कमेटियां ही कमेटियां. इन कमेटियों का कमांडर कौन है, अंतिम जवाबदेही किसकी है, यही पता नहीं चलता. बहुत सारी कमेटियां 2005 में बने आपदा प्रबंधन एक्ट के तहत बनी हैं.
कोविड-19 नेशनल टास्क फोर्स का गठन पिछले साल 6 मार्च को हुआ था. 17 सदस्य हैं. इसका भी काम टेस्टिंग की रणनीति, सीरो सर्वे, प्लाज़मा और क्लीनिकल गाइडलाइन तय करना था. मई में इसकी दस बैठकें हुईं. ख़बर आई थी कि जनवरी और फरवरी में इसकी कोई बैठक नहीं हुई. NTGAI, The National Technical Advisory Group on Immunisation in India नए टीकों को लेकर सलाह देने और टीकाकरण अभियान को मज़बूत बनाने का काम है. NEGVAC (नेशनल एक्सपर्ट ग्रुप आन वैक्सीन एडमिनिस्ट्रेशन फॉर कोविड-19) ने ही सुझाव दिया कि कोविशील्ड का टीका तीन महीने के अंतर पर लिया जा सकता है. पिछले साल 12 अगस्त की पहली बैठक हुई थी. बताया गया कि इसका काम होगा टीकाकरण की प्रक्रिया पर नज़र रखना, वैक्सीन की आपूर्ति कैसी हो इसका सिस्टम बनाना. खरीदने के लिए पैसे के विकल्पों की चर्चा भी इसके दायरे में थी. वायरस के जेनोमिक सीक्वेंस पर काम करने के लिए INSACOG (The Indian SARS-CoV-2 Genomic Consortia), इस ग्रुप से पूछा जाना चाहिए कि इंडियन वेरिएंट जिसे अब डेल्टा कहा जाएगा इसकी जानकारी इस ग्रुप को कब हुई, क्या इस ग्रुप ने वायरस में किसी बदलाव को नोट किया था? इसके प्रमुख शाहिद जमील ने हाल ही में इस्तीफा दे दिया क्योंकि इन्होंने अपने लेख में सरकार की नीतियों पर आलोचनात्मक टिप्पणी कर दी थी.
इसके होते हुए भी 900 से अधिक वैज्ञानिको ने प्रधानमंत्री को लिखा है कि कोरोना का टेस्टिंग डेटा उन्हें भी दिया जाए. भारत के वैज्ञानिक भारत की सरकार से मांग कर रहे हैं. वैसे क्या आप जानते हैं कि भारत के वे कौन से वैज्ञानिक हैं जिन्होंने भारत में कोविड के टीके की खोज की है. क्या उनके बारे में प्रधानमंत्री ने मन की बात में कोई प्रेरक प्रसंग बताया है? अभी तक आप क्यों नहीं जानते हैं? अगर भारत के वैज्ञानिकों ने टीके की खोज की है तो वैज्ञानिक के बारे में आप क्यों नहीं जानते हैं.
आपने कई बार डॉ वी के पॉल का नाम सुना होगा. ज्यादातर प्रेस कांफ्रेंस में होते हैं. वी के पॉल दो दो एम्पावर्ड ग्रुप के प्रमुख हैं. एक ग्रुप टीकाकरण को लेकर है. एक ग्रुप प्रबंधन औऱ रणनीति को लेकर है. इसी के साथ वे नेशनल टास्क फोर्स के चेयरमैन हैं. NTGAI की बैठकों की भी अध्यक्षता करते हैं. इसके अलावा नीति आयोग के सदस्य की हैसियत से भी वी के पॉल का बयान आता रहता है.
आपदा प्रबंधन एक्ट 2005 के तहत एक नेशनल एक्ज़िक्यूटिव काउंसिल भी होती है जिसका काम महामारी से लड़ने के लिए सरकार के सारे विभागों को एक साथ और एक जगह पर लाना होता है. इसे NEC कहते हैं. गृह सचिव अजय भल्ला इसके प्रमुख हैं. इस 29 मई को उनके दस्तखत से एक आदेश पत्र जारी हुआ है कि NEC ने महामारी के विभिन्न पहलुओं से लड़ने के लिए कई प्रकार के एम्पावर्ड ग्रुप का फिर से गठन किया है. हर ग्रुप के दस सदस्य हैं. अब बात करेंगे आक्सीजन को लेकर बने एम्पावर्ड ग्रुप की. 29 मार्च 2020 को NEC ने पहली बार एम्पावर्ड ग्रुप के गठन का आदेश जारी किया तो आक्सीजन को लेकर अलग से कोई ग्रुप नहीं था. फिर भी जिस ग्रुप के जिम्मे अस्पताल और वेंटिलेटर को देखने का काम था उसने आक्सीजन का नाम तो सुना ही होगा. तो उसने क्या किया. या तो उसने कुछ नहीं किया या फिर उसने रिपोर्ट दी और सरकार ने कुछ नहीं किया. सब कुछ हो जाने के बाद इस साल 29 मई को आक्सीजन के लिए अलग से एम्पावर्ड ग्रुप बनाया जाता है.
मार्च और अप्रैल के महीने में लोग आक्सीजन खोज रहे थे, अस्पताल के रास्ते में दम तोड़ रहे थे और भर्ती होकर भी दम तोड़ रहे थे. 15 अप्रैल को PIB एक प्रेस रिलीज़ जारी करता है जिसमें लिखा है कि पिछले एक वर्ष से, ईजी-2 प्रभावित राज्यों को मेडिकल ऑक्सीजन सहित अनिवार्य मेडिकल उपकरणों की सहज आपूर्ति को सुगम बनाता रहा है तथा इसकी निगरानी करता रहा है और समय-समय पर उत्पन्न होने वाली चुनौतियों का समाधान करता रहा है. तो फिर इसके एक साल की मेहनत का ये रिजल्ट निकला कि लोग बिना आक्सीजन के मर गए, सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा? क्या PMO का एम्पावर्ड ग्रुप EG2 फ्लाप नहीं रहा? इसमें खबर है कि PMO के एम्पावर्ड ग्रुप ने आक्सीजन के आयात का टेंडर निकालने के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय को आदेश दिया है. तो फिर स्वास्थ्य मंत्रालय क्या कर रहा था जब लोग आक्सीजन की कमी से मर रहे थे. उसका काम टेंडर का ड्राफ्ट बनाना रह गया है? do you get my point.
15 अप्रैल के बाद 11 मई को PIB की एक और प्रेस रिलीज़ आती है. बताया जाता है कि 11 मई को कैबिनेट सचिव और राज्यों के मुख्य सचिव के साथ हुई बैठक में कैबिनेट सचिव राजीव गौबा ने बताया है कि पिछले साल सितंबर से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तरल आक्सीजन की आपूर्ति और उत्पादन को लेकर घरेलु उद्योगों के साथ संपर्क में थे. इसके परिवहन को लेकर कई तरह की दिक्कतों को दूर करने में मदद की. राजीव गौबा ने कहा कि सितंबर महीने में भी कोरोना के केस बढ़ने के कारण लिक्विड आक्सीजन को लेकर संकट हुआ था और हमने उत्पादन बढ़ाने पर ज़ोर दिया था.
अगर राजीव गौबा ने यह बात कही है तो यह साफ हो जाता है कि आक्सीजन संकट की जवाबदेही कहां जा कर रुकती है. इतनी तरह की कमेटी और टास्क फोर्स बनाने के बाद भी PMO अपने स्तर पर कमेटी बनाकर आक्सीजन की सप्लाई का समाधान करने का दावा कर रहा है. इससे साफ है कि PMO को इस संकट का अंदाज़ा था. अगर सितंबर में आक्सीजन के उत्पादन और आवागमन में आई दिक्कतों को दूर कर दिया गया था तो फिर मार्च और अप्रैल में सरकार गहरी नींद में क्यों पकड़ी गई. क्या यह माना जाए कि PMO फेल हो गया?
अगर प्रधानमंत्री खुद ही आक्सीजन की सप्लाई का काम देख रहे थे तब फिर सुप्रीम कोर्ट को क्यों दखल देना पड़ा? क्यों 9 मई को सुप्रीम कोर्ट को आक्सीजन की सप्लाई सुनिश्चित करने के लिए 12 सदस्यों का एक नेशनल टास्क फोर्स बनाना पड़ा? जब नेशनल टास्क फोर्स बन गया तब फिर गृह मंत्रालय 29 मई को ऑक्सीजन की आपूर्ति के लिए एक और एम्पावर्ड ग्रुप क्यों बनाता है? तो इस तरह हम कोविड से लड़ रहे हैं.
अब यह गृह सचिव का आदेश पत्र है. 29 मई का पत्र है. इसमें लिखा है आक्सीजन की आपूर्ति और प्रबंधन को लेकर एक एम्पावर्ड ग्रुप बनाया जा रहा है जिसकी अध्यक्षता परिवहन सचिव करेंगे. तब तक राज्यों ने अपना इंतजाम शुरू कर दिया. दिल्ली और राजस्थान जैसे राज्य चीन से सिलेंडर खरीदने का आर्डर देने लगे. कमेटी बनती रही मगर लोग मरते रहे.
बहरहाल भांति भांति के टास्क फोर्स हैं, भांति भांति के एम्पावर्ड ग्रुप हैं, भांति भांति की कमेटियां हैं. कोई कमेटी स्वास्थ्य मंत्रालय की है तो कोई गृह मंत्रालय की और कोई PMO की. बस यही पता नहीं चलता कि इस युद्ध का कमांडर कौन है. साफ पता चलता है कि कोई एक कमांड सेंटर नहीं है. यही नहीं बिना कमांडर की इन अलग अलग टुकड़ियों की जानकारी नागरिक को कैसे मिले इसके लिए कोई मुकम्मल वेबसाइट नहीं है जहां सारी सूचनाएं अधिकृत होकर मौजूद हों. यही कारण है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा कि हम आपकी इस नीति के पीछे के तर्क को समझना चाहते हैं कि केंद्र सरकार अलग रेट पर टीका खरीद रही है, राज्य सरकार अलग रेट पर और प्राइवेट कंपनियां अलग रेट पर. इसके लिए हम पॉलिसी डाक्यूमेंट देखना चाहते हैं तब कोई जवाब देते नहीं बना. आपको बता दें कि गृह मंत्रालय ने महामारी से लड़ने के लिए सूचना और प्रसारण के काम को देखने के लिए भी एक एम्पावर्ड ग्रुप बनाया है जिसके प्रमुख सूचना सचिव अमित खरे हैं.
डिजिटल इंडिया के देश में कोविड से जंग लड़ रहे हैं और एक भी ऐसा वेबसाइट नहीं है जहां पर सारी कमेटियों के काम की जानकारी मौजूद हो. बस स्वास्थ्य मंत्री जवाब न दे पा रहे हों तो नागरिक उड्डयन मंत्री बोल देंगे और वो उलझ जाएंगे तो परिवहन मंत्री आ जाएंगे. यही कारण है कि जब मरीज़ आ जाते हैं तब दवा के आयात के फैसले होने लगते हैं. पता चलता है कि हम कैसे लड़ रहे हैं?