अपने देश में इस्तीफ़े का शास्त्र समझना इतना भी मुश्किल काम नहीं!

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Amaresh Saurabh

अपने देश में किसी के इस्तीफ़े की बात सुनकर अब लोग चौंकते नहीं. इस्तीफ़े के ऐलान में अब पहले जैसा आकर्षण नहीं रहा. लगता है, पब्लिक इस्तीफ़े का पूरा शास्त्र पहले ही समझ चुकी है. आइए, इस शास्त्र के कुछ पन्ने पलटकर देखते हैं कि आखिर इसका चुंबकत्व धीरे-धीरे खोता क्यों जा रहा है.

राजनीति की रेल और इस्तीफ़ा

राजनीति में इस्तीफ़े कई कारणों से होते हैं. जब कोई बात बिगड़ जाए और अंतरात्मा कहे कि अब पद छोड़ देना चाहिए, तो इस्तीफ़ा दिया जाना लाज़िमी है. पर जो मुनासिब हों, उन कारणों से इस्तीफ़े बहुत कम होते हैं - रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर जैसा. तभी तो लोग घूम-फिरकर लालबहादुर शास्त्री जी का ही उदाहरण देते हैं. उधर रेल दुर्घटना हुई, इधर तुरंत रेलमंत्री पद से इस्तीफ़ा. कोई गुणा-गणित नहीं, केवल अंदर की आवाज़ सुनी. लेकिन यह उस दौर की बात है.

अब ऐसा नहीं होता. अब इस्तीफ़े दिल से नहीं, खोपड़ी चलाकर दिए जाते हैं. इस्तीफ़े के ऐलान का एक मतलब है - ध्यानाकर्षण प्रस्ताव. या कभी-कभी किसी बड़े मुद्दे से ध्यान भटकाने की कोशिश. या सहानुभूति पाने की सीधी चाल. हां, कभी-कभी इस्तीफ़ा मजबूरी का दूसरा नाम भी होता है.

अब राजनीति में इस्तीफ़े अक्सर वैसे होने लगे हैं, जैसे कोई बस-ट्रेन में अपनी सीट पर रूमाल-गमछा रख जाए. सबको पता है, यह लौटेगा. गमछा समेटकर फिर बैठेगा. अगर गमछा कंधे पर डालकर आगे बढ़ जाए, तो समझिए कि वह दूसरी ट्रेन पकड़ने की फिराक में है. यह अलग बात है कि इस गमछे के कारण कई बार बड़ा टंटा खड़ा हो जाता है. बिहार-झारखंड का तमाशा कौन भूल सकता है? कुल मिलाकर, बात यह है कि राजनीति में ऐसे इस्तीफ़े बहुत ही दुर्लभ हैं, जिनके पीछे कोई राजनीतिक चाल न हो.

मैदानों में 'अंदर-बाहर' का खेल

खेल-कूद की दुनिया में 'शॉर्ट टर्म' इस्तीफ़ा लेने-देने का चलन है. पहले इस्तीफ़े का खेल लोगों की समझ में नहीं आता था. लेकिन जैसे-जैसे खेल और राजनीति का गठजोड़ पक्का होता गया, मैदान के भीतर और बाहर की हलचलें आसानी से डीकोड होने लग गईं. अब लोग किसी चेंज के पीछे की वजह आसानी से ताड़ जाते हैं.

खेल-कूद में परफ़ॉर्मेन्स मायने रखती है. रिकॉर्ड भी दिखाना होता है. इसलिए यहां 'कैबिनेट' का गठन बहुत थोड़ी अवधि के लिए, पर जल्दी-जल्दी होता रहता है. ऐसे में अंदर-बाहर होने का खेल भी लगा रहता है. लेकिन सब कुछ इतना शालीन ढंग से होता है कि किसी को अंगुली उठाने का मौका न मिले. खासकर क्रिकेट में तो लंबी परंपरा रही है कि यहां स्थायी इस्तीफ़े खिलाड़ी की 'भावनाओं का सम्मान करते हुए' ही स्वीकारे जाते हैं.

मज़े की बात यह है कि खिलाड़ी बिना चोट-चपेट के, अचानक 'चोटिल' हो जाते हैं. बिना किसी उपचार के 'फिट' भी हो जाते हैं. किसी को लगातार आराम ही आराम, किसी को लगातार काम ही काम. समझ नहीं आता कि यहां आराम देना सज़ा है या काम देना! अगर संविधान की भाषा में कहें, तो यहां 'कैबिनेट' का हर सदस्य कैप्टन और मैनेजमेंट के प्रसाद पर्यंत पद धारण करता है.

कॉरपोरेट सेक्टर में इस्तीफ़ा

आमतौर पर ज़्यादातर इस्तीफ़े 'निजी कारणों से' ही दिए जाने का चलन रहा है, फिर भी कॉरपोरेट सेक्टर में इसका ट्रेंड कुछ ज़्यादा ही है. चाहे वजह सबको मालूम हो, पर मेल में बताना नहीं है. सच्ची बात को मिट्टी में गहरे दफ़नाया, 'ड्यू टू पर्सनल रीज़न...' लिखकर गोबर का लेप चढ़ाया, और तैयार हो गया इस्तीफ़ा! यह शालीनता की पराकाष्ठा नहीं, तो और क्या है?

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कभी-कभी सच्चाई को गहरे दफ़ना देने की कला भी सभ्यता की निशानी समझी जाती है. कोई कैसे बताए कि आप जितना दे रहे हैं, उतने में चूल्हा-चक्की चलाने में दिक्कत हो रही थी. दूसरा आपसे ज़्यादा देने को तैयार हो गया है, तभी तो जा रहा हूं. दूसरी कंपनी ने भी पहला सवाल यही पूछा कि आप वहां छोड़ना क्यों चाह रहे हैं? जब पूछने वाला इतना ही नादान हो, तो उसके आगे सच बोलना ज़रूरी है क्या? दिल बहलाने वाले तमाम कारण गूगल करके निकाल लेना कौन-सा बड़ा काम है?

अगर वजह मिठाई बांटने लायक हो, तो कॉरपोरेट सेक्टर के इस्तीफ़े अमूमन दूसरे सहकर्मियों के बीच रश्क पैदा करते हैं. एक का आगे निकल जाना अचानक औरों को पीछे छूट जाने का अहसास करा देता है. वह तो चला, अपना नंबर कब आएगा गुरु? गनीमत है कि यहां आना-जाना बड़ी बात नहीं मानी जाती. सब जानते हैं कि आया है, सो जाएगा...

सोशल मीडिया के बलिदानी

पद छोड़ना हमेशा बच्चों का खेल ही हो, सो बात नहीं. सोशल मीडिया और मैसेजिंग ऐप को ही ले लीजिए. कई लोग व्हॉट्सऐप ग्रुप के एडमिन का पद एक झटके में छोड़ देते हैं, फिर पलटकर देखते तक नहीं! एडमिन तो बड़ा पद हो गया, किसी ग्रुप की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफ़ा देने के लिए भी कलेजा मजबूत होना चाहिए. पता नहीं, लोग इतना बड़ा जिगर लाते कहां से हैं.

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वैसे देखा जाए, तो अपने यहां लोग इस्तीफ़े के पार्ट-पुर्ज़ों को काफी हद तक जानते-समझते हैं. फिर भी भोले-भाले लोगों के लिए इसका डिप्लोमा कोर्स चलना चाहिए. इस विषय में अनुभव रखने वाले हर फ़ील्ड के लोगों को यहां स्थायी तौर पर पढ़ाने-सिखाने का काम मिलना चाहिए. सदाबहार सब्जेक्ट है. बस, डर यही है कि कहीं पढ़ाने वाला यहां से भी इस्तीफ़ा देकर निकल न ले!

'त्यागपत्र' के शुरू में जो 'त्याग' शब्द लगा है न, इसे हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए. इस त्याग और त्याग की भावना की बदौलत ही संसार में कोई दधीचि बनकर अमर हो गए, कोई बुद्ध-महावीर बनकर. लेकिन इतिहास गवाह है कि इनमें से कोई भी अपनी सीट पर गमछा नहीं रख गए थे.

अमरेश सौरभ वरिष्ठ पत्रकार हैं... 'अमर उजाला', 'आज तक', 'क्विंट हिन्दी' और 'द लल्लनटॉप' में कार्यरत रहे हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.