प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिल्कुल सही कहा कि अतीत की भूलों को सुधारना चाहिए. लेकिन अतीत की भूलों को सुधारने का क्या मतलब होता है? क्या किसी नेता की मूर्ति को कहीं लगा देना ही अतीत की भूलों का सुधार है? क्या सुभाष चंद्र बोस इतिहास के ऐसे उपेक्षित चरित्र हैं जिन्हें अब बीजेपी सामने लाने की कृपा कर रही है? आज़ादी की लड़ाई में महात्मा गांधी के अलावा जिन बड़े नेताओं का एक सांस में ज़िक्र होता है, उनमें सुभाषचंद्र बोस, जवाहरलाल नेहरू, भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद सबसे ऊपर आते हैं. इस लिहाज से बोस को बीजेपी की कृपा की कोई ज़रूरत नहीं है. यह देश कभी इतना कृतघ्न नहीं रहा कि वह बीजेपी के सत्ता में आए बिना बोस को याद नहीं करता. इस देश में बोस की प्रतिष्ठा इंडिया गेट पर किसी छतरी के नीचे खड़ी मूर्ति की मोहताज नहीं है. उसे इस तरह पेश करना दरअसल सुभाष चंद्र बोस का भी अपमान है और इस देश की साझा स्मृति का भी.
सुभाष चंद्र बोस इस देश में आज़ादी के बाद के सबसे बड़े किंवदंती पुरुष रहे. बरसों तक इस देश के लाखों लोग प्रतीक्षा करते रहे कि बोस एक दिन प्रगट होंगे और देश का नव-निर्माण करेंगे. उनकी मृत्यु के रहस्य को लेकर कई कमेटियों और आयोगों का गठन किया गया. जाहिर है, बोस इस देश की स्मृति में किसी लौह-पत्थर की तरह खुदे हुए हैं.
बीजेपी को न यह बात समझ में आती है और न बोस समझ में आते हैं. वह चंद्रशेखर बोस जैसे भीष्म व्यक्तित्व के पीछे छुप कर शिखंडी की तरह कांग्रेस पर वार करना चाहती है. लेकिन जब-जब बोस का कोई रहस्य खुलता है तो बीजेपी की कलई खुलती है. कुछ साल पहले जब सुभाषचंद्र बोस के गोपनीय दस्तावेज़ सामने आए तो यह हल्ला उड़ा कि अब नेहरू की पोल खुलेगी. उनके नाम से एक जाली चिट्ठी भी चला दी गई कि नेहरू ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री को लिखा था कि बोस युद्ध अपराधी हैं. एक जाने-माने अंग्रेज़ी अख़बार ने यह चिट्ठी छाप भी दी- बिना यह देखे कि इसमें भाषा की वैसी भूलें हैं जैसी नेहरू किसी हाल में नहीं करते. उल्टे यह बात सामने आई कि सुभाष चंद्र बोस की पत्नी के लिए नेहरू ने मासिक पेंशन की व्यवस्था करवाई थी.
इसमें शक नहीं कि स्वाधीनता संग्राम के दौरान गांधी और नेहरू से सुभाषचंद्र बोस की असहमतियां रहीं और वे तीखे मोड़ तक भी गईं. लेकिन उस दौर के बड़े नेताओं में ऐसी असहमतियां आम थीं. वे गांधी और नेहरू के बीच भी थीं, गांधी और अंबेडकर के बीच कहीं ज़्यादा तीखी थीं और नेहरू और पटेल के बीच भी थीं. खासकर बोस के जर्मनी जाकर हिटलर से मदद मांगने का ख़याल किसी को रास नहीं आ रहा था. लेकिन ये सब नेता एक-दूसरे का सम्मान भी करते थे और सुभाष चंद्र बोस इसके अपवाद नहीं थे. मगर जब ये नेता आपस में टकरा रहे थे या एक साथ काम कर रहे थे तो बीजेपी और संघ परिवार के पुरखे क्या कर रहे थे? उनके बारे में सुभाष चंद्र बोस और अंबेडकर की, गांधी और नेहरू की, भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद की क्या राय थी?
इस मोड़ पर अतीत की भूलों को सुधारने में लगी बीजेपी से पूछने की तबीयत होती है- क्या उसे मालूम है कि बोस की हिंदूवादी विचारधारा के बारे में क्या राय थी? या अंबेडकर हिंदू धर्म के बारे में क्या सोचते थे? या भगत सिंह सांप्रदायिक राजनीति के बारे में क्या राय रखते थे? सोशल मीडिया पर रजनीश तिवारी ने सुभाष चंद्र बोस के कलेक्टेड वर्क्स के तीसरे खंड का एक हिस्सा उद्धृत किया है. बोस लिखते हैं- 'सांप्रदायिकता ने पूरे नंगेपन के साथ अपना कुरूप चेहरा दिखा दिया है. यहां तक कि दलित, ग़रीब और अज्ञानी लोग भी स्वंतंत्रता के लिए बेचैन हैं. हम भारत में बहुसंख्यक हिंदू आबादी का हवाला देते हुए हिंदू राज की आवाज़ें सुन रहे हैं. ये बेकार के विचार हैं. क्या सांप्रदायिक संगठन कामगार वर्ग द्वारा झेली जा रही किसी समस्या का हल देते हैं? क्या किसी भी ऐसे संगठन के पास बेरोज़गारी और गरीबी को लेकर कोई जवाब है?.... हिंदू महासभा और सावरकर की सूझ का मतलब व्यवहार में अंग्रेज़ों से सांठगांठ है.'
क्या ऐसा नहीं लगता कि सुभाष चंद्र बोस चालीस के दशक की नहीं, मौजूदा राजनीति की बात कर रहे हैं? अगर आज कोई भक्त इसे पढ़ ले और उसे पता न हो कि यह बोस ने लिखा है तो वह इसके ख़िलाफ़ देशद्रोह का मुकदमा दर्ज कराने चला जाए और प्रधानमंत्री-गृहमंत्री भी इसे सरकार को बदनाम करने की साज़िश मान लें. इसके पहले सुभाषचंद्र बोस फॉरवर्ड ब्लॉक की पत्रिका में लिख चुके थे कि उन्होंने हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग जैसे सांप्रदायिक संगठनों के लोगों के कांग्रेस की सदस्यता लेने पर पाबंदी लगा दी है.
क्या बीजेपी बोस की मूर्ति ही पूजेगी या उनके विचारों से शर्मिंदा होकर खुद को भी बदलेगी? बोस को छोड़ें, अंबेडकर को देखें. अंबेडकर का तो विपुल साहित्य पूरे हिंदू धर्म को प्रश्नांकित करता है और कहता है कि इसको नष्ट हो जाना चाहिए. 'द ऐनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट' में भी बाबा साहेब अंबेडकर विस्तार से यह चर्चा करते हैं कि किस तरह हिंदू धर्म दरअसल मुसलमानों के ख़िलाफ़ एकजुट होने भर का नाम है, कि जातिविहीन किसी हिंदू धर्म की कल्पना नहीं की जा सकती, कि अगर जाति को नष्ट करना है तो हिंदुत्व को नष्ट करना होगा.
क्या बीजेपी को ऐसे सुभाष चंद्र बोस और बाबा साहेब अंबेडकर मंज़ूर हैं? क्या उसे ‘मैं नास्तिक क्यों हूं' जैसा लेख लिखने वाले भगत सिंह स्वीकार्य हैं? या यह उसका पाखंड है? उसे लगता है कि उसके जिस विचार को भारतीय जनता व्यापक तौर पर स्वीकृति नहीं देती, उसे वह इन व्यक्तित्वों की आड़ में थोपने की कोशिश करे तो उसकी बात बन जाएगी. बेशक, वह बात बनती भी दिख रही है. लोगों को मूर्तियां और उनकी भव्यता याद है, वे ज़रूरी विचार भुला दिए गए हैं जिन्होंने इस देश को बनाया, इस देश का विचार बनाया. बीजेपी को पता है कि महात्मा गांधी पर हमला आसान नहीं है, इसलिए वह उनके आगे सिर झुकाती है, लेकिन नाथूराम गोडसे की फौज भी धीरे-धीरे तैयार करती चलती है जो ऐसे संभावित गांधियों को बनने के पहले ही वैचारिक तौर पर नष्ट करने की कोशिश करें. इस सत्योत्तर दौर में उसकी सोशल मीडिया आर्मी पूरी ताकत से इस काम में लगी हुई है. वह पटेल को पटेल नहीं रहने दे रही, बोस को बोस नहीं रहने दे रही, अंबेडकर को अंबेडकर नहीं रहने दे रही, राम को भी राम नहीं रहने दे रही है और हिंदुस्तान को हिंदुस्तान नहीं रहने दे रही. क्योंकि यह सब रहेंगे तो वह पिछड़ा और दकियानूसी विचार नहीं रहेगा जिसका नाम हिंदुत्व है और जिसे भव्य मंदिरों और मूर्तियों में ही सभ्यता और संस्कृति दिखाई पड़ती है.
सुभाष चंद्र बोस इस देश के एक तेजस्वी नेता का नाम है, किसी जड़ मूर्ति का नहीं. बीजेपी और सरकार का यह खेल जनता को जल्द समझना होगा.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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