This Article is From Jul 05, 2022

महत्वाकांक्षाओं के बोझ तले मासूम बचपन...

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Madhavi Mishra

एक प्रतिष्ठित स्कूल के ज़िम्मेदार पद पर कार्यरत रहते हुए पूरे समय ऐसी कई घटनाओं से दो चार होना पड़ता है जो मन मस्तिष्क को बुरी तरह से प्रभावित करती रहती हैं. हालांकि ये प्रभाव भी क्षणभंगुर होते हैं. घर्षण का नियम इन पर भी लागू होता है.  विद्यार्थी, शिक्षक और अभिभावर हर समय परीक्षण की जद में होते हैं.  जिस स्थान पर हूँ वहां से त्रिआयामी विवेचन संभव है. जिन विषयों पर बात करने जा रही हूँ वे काफी संवेदनशील हैं. समय समय पर गुनीजनों और सुधीजनों ने उस पर विभिन्न व्याख्याएं विचारार्थ प्रस्तुत भी की हैं.

हर शाम जब अपने दिन का आकलन करती हूं तो पाती हूं कि दिन का अधिकांश हिस्सा अभिभावकों की नकारात्मक समस्याओं को सुनने में जाया होता है. ताज्जुब होता है कि ये कौन लोग हैं और अपने बच्चों को क्या बनाना चाह रहे हैं. इन्होंने अपने बच्चों का जीवन अपनी मर्ज़ी से डिजाइन कर रखा है. बिना बच्चे की रुचि समझे उसे कोडिंग भी सिखानी है, तैराकी-क्रिकेट या फुटबॉल भी सिखाना है, उसे गिटार, तबला, सिंथेसाइज़र भी सिखाना है....पढ़ाई तो फिर है ही. बच्चे को इंग्लिश में बात करना तो आना ही चाहिये, विज्ञान या गणित ओलिंपियाड में मेडल भी चाहिए. “स्पेल बी” के लिए भी अतिरिक्त योग्यता हासिल करनी चाहिये. फ्रेंच स्पेनिश रशियन भाषाओं में भी दक्ष हो तो क्या बात है.

इस होड़ में शिक्षा का व्यावसायीकरण जितना जिम्मेदार है उससे कहीं बढ़कर अभिभावक जिम्मेदार हैं जिनकी अति महत्वाकांक्षाओं ने बचपन को बुरी तरह आहत किया है. उन्हें स्कूल की पल-पल की खबर बच्चों से लेनी है, उन्हें इस बात का रत्ती भर भान नही है कि वे बच्चों को झूठ बोलने का आदी बना रहे हैं, उनमें बुरी नकारात्मक प्रवृति को बढ़ावा दे रहे हैं. बच्चा अपने शिक्षकों के हर क्रिया कलाप का एक क्रिटिक या कहूँ निंदक बन कर रह गया है. वो जानता है कि शिक्षक की एक गलती पर उसके मां-पिता स्कूल प्रबंधन को कटघरे में खड़ा कर देंगे. स्कूलों में तेज़ी से विकसित होते क्लब कल्चर की महती भूमिका से भी इनकार नही किया जा सकता. स्कूल अब कारखानों में तब्दील होते जा रहे हैं जहाँ अब गढ़ने या तराशने की प्रवृति समाप्ति की ओर है. अब वहाँ डिज़ाइनर पाँच सितारा मॉडल्स तैयार किये जाते हैं- वो मॉडल जिनका एकमात्र उद्देश्य अधिक से अधिक पैसे कमाना है और अपने लिए अधिकाधिक किंतु अनावश्यक भौतिक सुख सुविधाएं अर्जित करना है. बाज़ार ने नैतिक मूल्यों को रसातल में पहुंचाने का जिम्मा बखूबी संभाल रखा है.

हम नब्बे के दशक के पले बढ़े लोगों को स्कूल की बहुत सुनहरी यादें हैं जहाँ शिक्षक का अर्थ था एक धीर गंभीर व्यक्तित्व जिसे अपने विषय का गूढ़ गहन ज्ञान हो. तब, शिक्षण सिर्फ एक पेशा नही था अपितु अपने अर्जित ज्ञान को अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करने का पुण्य कार्य भी था. मैंने अपने शिक्षकों से किताब के इतर जो ज्ञान प्राप्त किया, उसकी कमी आज के दौर में शिद्दत से महसूस करती हूँ. मैथिली शरण गुप्त को मेरा प्रिय कवि मेरे शिक्षक के ज्ञान ने ही बनाया. “जॉन डन” की मेटाफ़िज़िकल पोएट्री की क्लिष्टता शिक्षकों के प्रयास से ही सहज हुई. हेलमेट की “टु बी ऑर नॉट टु बी” वाली कशमकश आज भी झिंझोड़ती है. “जो बीत गई सो बात गई” आज भी प्रकाश पुंज की तरह गहरा गड़ा हुआ है. 

हमने बारिशें महसूस कीं, मिट्टी की सोंधी गंध अपनी साँसों में बसती देखीं ,संगीत की धुनें गहराइयों में उतरती देखीं. गलाकाट प्रतिस्पर्धा, जलन और नकारात्मकता कम से कम बचपन से तो दूर थीं. हम पीपल ,बरगद, पलाश अमलताश कदंब, कचनार भी जानते थे और आम अमरूद के पेड़ों पर चढ़कर फल खाने में भी माहिर थे. वह सहजता, वह बचपना अब लुप्तप्राय है. अब बच्चे बारिश में कश्तियाँ नही चलाते, अब रेनकोट पहन कर स्कूल जाने लगे हैं. अब शिक्षक की एक तल्ख टिपण्णी उन्हें अवसादग्रस्त कर देती है जबकि हमने स्कूल में बेंत खाने की बात भी दुनिया से छुपा ली. बेशक वे बेंत तब भी शायद ज़रूरी नहीं थीं.

शिक्षक को हमेशा एक लर्नर  की भूमिका में रहना चाहिए. उसे सीखकर सिखाना आना चाहिए. उसे अपने विद्यार्थियों को उस सुविधापूर्ण तंत्र से बाहर निकालने का प्रयास करना चाहिए जिसके वे अभ्यस्त हो चुके हैं. उनकी सीखने की सहज वृति को पोषित करना चाहिए. उन्हें आत्मानुशासन हेतु प्रेरित करना चाहिये. उन्हें सिखायें कि उनके मुकाबले में वे स्वयं हैं. दूसरों के लिए नकारात्मक या जजमेंटल होने से वे खुद भी बचें और बच्चों को भी बचायें.

प्रलय के बाद भी सृजन का गान अनहद है यही सीख उन्हें दें, हार पर विलाप न हो बल्कि इसे सीखने के तौर पर लिया जाना चाहिये. विनाश में या विनाशकर्ता में कोई रोमांच या नायक न तलाशें. विविधता को स्वीकार करें, आलोचना से प्रभावित न हों और सबसे अहम, एक शांतिपूर्ण आडम्बरहीन जीवन जीने में अपराधबोध न महसूस करें. यही तो राग है- वह जीवन राग जो द्वेष से मुक्त हो. यही तो है प्रमाणपत्र जो हम खुद के लिए ही जारी करें.

निदा फ़ाज़ली कह गए हैं-

दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहां होता है 

सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला।‘

(लेखिका संगीत मर्मज्ञ और डीपीएस, उज्जैन की डायरेक्टर हैं.)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.
 

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