राजनीति में अंदेशों और बयानबाजी को ध्यान से देखते रहना चाहिए, जो लोग धीरे- धीरे खिसक रहे होते हैं वो पहले इसकी भूमिका बना रहे होते हैं. टीएमसी की ममता बनर्जी ने भी वही किया. वह इंडी एलायंस (इंडिया गठबंधन) की बैठकों में ऐन मौके पर या तो गायब रहती थीं या फिर ऐसा कुछ बयान जरूर आता था जो पूरी बैठक से पहले नैरेटिव को बदल दे. ममता सब यूं ही नहीं कर रहीं, वो जानती हैं कि लेफ्ट अब कमज़ोर है. इंडी एलायंस (इंडिया गठबंधन) में कांग्रेस और लेफ्ट संग दिखने का मतलब होगा, राज्य की लड़ाई में बीजेपी को मौका देना. बीजेपी के लिए भी ये अवसर था. वाम दलों के विरोध की जमीन वैसे भी बीजेपी के पास खिसक रही है.ममता अगर ये एलायंस करती तो इसका मतलब होता राज्य में टीएमसी, लेफ्ट और कांग्रेस एक तरफ और अकेली बीजेपी दूसरी तरफ. बीजेपी के लिए पश्चिम बंगाल दीर्घकालिक योजना का हिस्सा है. वो उस जगह को भी भरना चाहती है, जो स्थान कांग्रेस ने खोया है.
टीएमसी लगातार ऐसे संदेश दे रही थी और कांग्रेस उसके खेल को पहले से समझ रही थी. कांग्रेस के अधीर रंजन के बयान ये बताने के लिए काफी थे कि अगर दोनों पार्टियों के बड़े नेता साथ आ भी जाएं तो भी ये गठबंधन नहीं हो पाता. बीजेपी का राजनीतिक खौफ इतना है कि पश्चिम बंगाल की कांग्रेस को भी ये डर लगता है कि कहीं बची खुची ताकत भी टीएमसी के संग मेल मिलाप में खत्म न हो जाए.
पिछले 30 सालों के राजनीतिक इतिहास को पलट कर देखिए तो समझ आएगा कि कांग्रेस ने जहां जहां स्थानीय दलों से समझौते किए हैं वहां वहां उसका वोटों का नुकसान हुआ है, सीटें भी कम होती गईं. बीजेपी का इस मामले में दिलचस्प केस है. उसके साथियों की लागत पर उसने बहुत तरक्की की है. जहां-जहां बीजेपी को मुख्य विपक्ष में बैठने का मौका मिला है, उसने तेजी से अपना ग्राफ बढ़ाया है. पश्चिम बंगाल में भी पार्टी उसी राह पर है. ममता को लोकसभा में अपने प्रदर्शन से ज्यादा चिंता विधानसभा में अपने ग्राफ को बचाए रखने की है.
ममता के इंडी एलायंस से बाहर निकलने के दो और बड़े अर्थ हैं. पहला तो ये कि ममता खुद को दिल्ली की रेस से बाहर कर रहीं हैं और दूसरा ये कि उनको लोकसभा चुनाव में किसी बड़े कारनामे की उम्मीद अब नहीं बची है.
टीएमसी के कदम बता रहें हैं कि वह उस खतरे को भांप रही है जो लगातार दिल्ली के बीजेपी नेताओं के दौरे से उठ रहा है. कुछ देर के लिए अगर ये मान भी लें कि ममता बनर्जी एलायंस में रहती, तो वो कांग्रेस को क्या देती ? कांग्रेस के लिए दो सीट से ज्यादा की बात ही नहीं हो रही थी. ममता बनर्जी का ये बयान भी दिलचस्प है कि लोकसभा के परिणामों के बाद एलायंस तय होगा. जो हालत हैं, उनमें कौन सा एलायंस चुनाव के बाद होगा उसका बस अंदाजा ही लगाया जा सकता है. टीएमसी ने विपक्ष में रहते हुए उस एकता को कभी मजबूत नहीं किया जिसके लिए कांग्रेस उसका मुंह देखती थी.
आने वाले चुनाव में ममता बनर्जी की नई परीक्षाएं हैं, जिस हिंसा के गणित से पश्चिम बंगाल में चुनाव होते रहे हैं वो अब उजागर हो चुका है. टीएमसी के विरोधियों को अब वो सारे खेल पता हैं, जिनके सहारे 'खेला होबे' का नारा दिया जा रहा था. बीजेपी को राज्य में अभी लंबा सफर तय करना है. ममता ने एलायंस से बाहर होकर एक किस्म के खतरे को पहले भांप लिया है. बीजेपी के लिए ममता के किसी एलायंस में होने से मुकाबला करना आसान होता.
टीएमसी की पूरी कोशिश होगी कि वह पिछली बार जितना स्कोर बना सके, ताकि दिल्ली में उसकी आवाज सुनाई देती रहे. बीजेपी के लिए पश्चिम बंगाल में पिछले रिकॉर्ड को तोड़ना इसलिए भी जरूरी होगा, ताकि वब जनता को ये बता सके कि वो सिर्फ दिल्ली ही नहीं कोलकाता की गद्दी भी संभाल सकती है. बीजेपी रणनीति के तौर पर अब तक ममता बनर्जी के खिलाफ ऐसा चेहरा नहीं ला पाई ,है जिसका पूरे राज्य में असर हो.
(अभिषेक शर्मा एनडीटीवी इंडिया के मुंबई के संपादक रहे हैं. वे आपातकाल के बाद की राजनीतिक लामबंदी पर लगातार लेखन करते रहे हैं. )
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