राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की आज जयंती है. उस दिनकर की जयंती, जिसके गुरु थे राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त. दिनकर ने गुप्त जी की रचनाओं से प्रेरणा ली. दिनकर की कविताओं से पता चलता है कि वो मानवतावादी पहले थे, राष्ट्रवादी बाद में. इसे स्वीकारने में दिनकर स्वयं भी नहीं हिचकते थे, 'राष्ट्रीयता मेरे व्यक्तित्व के भीतर से नहीं जन्मी है, उसने बाहर से आकर मुझे आक्रांत किया है.'' मतलब यह कि अगर औपनिवेशिक भारत की जरूरतों ने दिनकर को राष्ट्रवादी बनाया. उनकी मानवतावादी चेतना उनके अन्तःव्यक्तित्व से उपजी हुई है जिसके मूल में 'एक मनुष्य होने का भाव' अन्तर्निहित है. मनुष्य होने के इसी भाव ने दिनकर को राष्ट्रवादी भी बनाया और अंतरराष्ट्रवादी भी. इसी भाव ने इन्हें इस या उस विचारधारा से बंधने नहीं दिया. इसी भाव के कारण गांधी और गांधीवाद भी दिनकर को बांध नहीं पाता. जैसे ही उन्हें जरूरत महसूस होती है, वे इसके दायरे को लांघते हुए आगे बढ़ जाते हैं,
रे, रोक युधिष्ठिर को न यहां,
जाने दे उनको स्वर्ग धीर,
पर, फिरा हमें गाण्डीव-गदा,
लौटा दे अर्जुन-भीम वीर.
यहां पर युधिष्ठिर पर अर्जुन और भीम को और 'कुरुक्षेत्र' में युधिष्ठिर की तुलना में भीष्म को तरजीह कहीं-न-कहीं गांधी और गांधीवाद से उनकी बढ़ती दूरी की ओर इशारा करती है. दरअसल गांधीवाद जिस बदलाव की बात करता है, बदलाव की वह प्रक्रिया क्रमिक और धीमी होने के कारण उबाऊ और थकाऊ है. इसने कहीं-न-कहीं दिनकर को गांधी और गांधीवाद से दूर ले जाने का काम किया. इसकी तुलना में त्वरित परिवर्तन की चाह ने उन्हें वैकल्पिक संभावनाओं की तलाश के लिए प्रेरित किया. इसी चाह में वे अपनी इस आकांक्षा को प्रकट करते हैं:
कह दे शंकर से, आज करें
वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार.
यही आकांक्षा उन्हें मार्क्स और मार्क्सवाद की ओर ले जाती है, और 'अच्छे लगते हैं मार्क्स' के जरिये वे इसके प्रति अपने आकर्षण की ओर इशारा करने से वे चूकते नहीं हैं:
अच्छे लगते मार्क्स, किंतु है अधिक प्रेम गांधी से;
प्रिय है शीतल पवन, प्रेरणा लेता हूं आँधी से.
नहीं चाहता युद्ध-लड़ाई, लेकिन यदि ठनेगी;
शान्तिवाद से मेरी एक नहीं बनेगी.
एक नहीं, हैं दोनों ध्रुव, मेरे भीतर धँसे हुए,
सभी सत्य अपने-अपने शिखरों पर हैं बसे हुए.
उन्होंने 23 अप्रैल ,1970 को लेलिन की पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए लिखा, ''जो क्रान्ति सन् 1917 ईस्वी के अक्टूबर महीने में रूस में हुई, वह मनुष्य के इतिहास की सबसे बड़ी क्रांति थी और कोई आश्चर्य नहीं कि उसका प्रभाव सारे संसार पर पड़ा है. इस महाक्रान्ति के निर्माता और संचालक महात्मा लेनिन थे. वे संसार भर के गरीबों को यह सिखाने आए थे कि गरीबी भाग्य का परिणाम नहीं है. वह दूर की जा सकती है, समाज का तख्ता उल्टा जा सकता है और क्रान्ति के द्वारा वे लोग अपदस्थ किए जा सकते हैं, जो हर जगह गरीबों का शोषण करके मौज-मजे की जिंदगी बशर कर रहे हैं. उन्होंने केवल क्रान्ति ही नहीं की, क्रान्ति को विज्ञान बना दिया.'' नौ मार्च, 1970 को लिखी कविता 'लेनिन' में उनका यह आकर्षण अपने चरम पर पहुंचता दिखता है. लेनिन को संबोधित इस कविता में वे लिखते हैं:
लेनिन! आपसे मिलने के पूर्व
मैं गांधी से मिला था.
गांधी अंग-अंग में मंद-मंद लगने वाली शीतल बयार थे.
आप तो तूफान और आंधी थे.
पहाड़ों से आपने झुकने को भी
नहीं कहा,
धक्का मारा और सीधे
उन्हें जड़ से उखाड़ दिया.
सांप और सांप के बच्चे,
दोनों को
जमीन के नीचे गाड़ दिया.
लेनिन, आपने अगर भारत में जन्म लिया होता,
हम आपको कल्कि का अवतार मानते.
यह आकर्षण उनमें अन्त-अन्त तक बना रहा. लेकिन वो भारत की कीमत पर सोवियत संघ और चीन की पैरोकारी करने वाले वामपंथियों को नहीं बख्शा. उन्होंने मार्क्स के बहाने ऐसे मार्क्सवादियों की जमकर खबर ली है:
कह दो मार्क्स से, डरे हुओं का गांधी चौकीदार नहीं,
सर्वोदय का दूत किसी संचय का पहरेदार नहीं.
दिनकर उस समय भी गांधी की रक्षा की खातिर गांधी के साथ खड़े हुए, जब 1962 में भारत पर चीनी हमले ने उस राष्ट्रीय सांस्कृतिक अस्मिता को दांव पर लगा दिया था, जिसके लिए गांधी ने अपनी जान की बाजी लगा दी थी. 'परशुराम की प्रतीक्षा' में उन्होंने लाल चीन को आड़े हाथों लेते हुए लिखा:
किसे लीलने को आई यह लाल लपट है?
गांधी पर यदि नहीं, और किस पर संकट है?
यही वह प्रश्न था जिसने भारतीय वामपंथ को दो धड़ों में विभाजित कर दिया था. एक धड़ा देश के साथ खड़ा था, तो दूसरा धड़ा देश के विरुद्ध. उसकी सहानुभूति और संवेदना चीन के साथ थी. ऐसे समय में जगे हुए दिनकर भारतीय जनमानस को जगाने का काम करते हैं. वे भारतीय जनमानस का आह्वान करते हुए कहते हैं:
रुधिर में रखे शीत या ताप?
अहिंसा वर है अथवा शाप?
युद्ध है पुण्य याकि दुष्पाप?
आज सारा विवाद त्यागो.
गांधी की रक्षा करने को गांधी से भागो.
भारतीयता के प्रति घोषित प्रतिबद्धता
दरअसल दिनकर न तो गांधी को पूरी तरह से छोड़ पाए और न ही मार्क्स को पूरी तरह से अपना पाए. ऐसा संभव भी नहीं था, दिनकर भारतीयता से ओत-प्रोत जो थे. भारतीयता उनकी नसों में समायी हुई थी जिसकी घोषणा से उन्हें परहेज़ भी नहीं था:
पता मेरा तुझे मिटटी कहेगी,
समा जिसमें चुका सौ बार हूं मैं!
इसीलिए तो उनकी जन्मशती समारोह के अवसर पर डॉ. कर्ण सिंह ने कहा, "दिनकर न सिर्फ हिन्दी के, बल्कि भारतीय साहित्य के प्रतिष्ठित रचनाकार हैं. जब भी भारतीय साहित्य का इतिहास लिखा जाएगा तब उनका नाम स्वर्णक्षरों में लिखा जाएगा." उनकी भारतीयता वाली इसी पहचान को रेखांकित करते हुए प्रसिद्ध आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने कहा था, ''इसलिए तो दिनकर भारत के सच्चे लोकतंत्र के चिंतक थे. उनकी लिखी किताब 'संस्कृति के चार अध्याय' भारत की सामासिक संस्कृति का ग्रंथ है, न कि हिंदू संस्कृति का.'' इसीलिए फिरकापरस्त ताकतें, चाहे वैचारिक हो अथवा धार्मिक-सांप्रदायिक, उनके लिए दिनकर को पचा पाना संभव नहीं है:
भारतीय राष्ट्रवाद की संकल्पना
राष्ट्रकवि दिनकर के लिए राष्ट्र न तो कोई ज़मीन का टुकड़ा था और न ही पश्चिम की तरह ‘एक भाषा, एक जाति, एक धर्म' पर आधारित. इसके विपरीत, वह भारतीय समाज और संस्कृति की विविधता के अनुरूप आकार ग्रहण करता है. वह सर्वधर्मसमभाव का समवेत रूप है और उसे वे मानवीय चेतना से भी लैस करते हैं, तभी तो वे लिखते हैं.
माँगो, माँगो, वरदान धाम चारों से,
मंदिरों, मस्जिदों, गिरजों, गुरुद्वारों से.
लेकिन, यहां पर इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि आज के तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादियों के विपरीत दिनकर सेलेक्टिविज्म के शिकार नहीं थे. वे 'संस्कृति के चार अध्याय' में लिखते हैं, ''हिन्दू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा देने के लिए इतिहास की घटनाओं पर पर्दा नहीं डाला जा सकता. न यही योग्य है कि हम इस्लाम पर पड़ने वाले हिन्दू प्रभाव अथवा हिन्दुत्व पर पड़ने वाले मुस्लिम प्रभाव को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करें. जो बातें जैसी हैं, इतिहास में उनका वर्णन वैसा ही रहेगा.''
दिनकर का अंतर्विरोध
उन्होंने इस बात को भी समझा कि अपने अंतर्विरोधों के कारण राष्ट्रवाद के प्रश्न का समाधान स्वयमेव मानवता के प्रश्न के समाधान के मार्ग को प्रशस्त नहीं कर सकता है. इसलिए यह कहा जा सकता है कि वे राष्ट्रवाद के अंतर्विरोधों से भी अच्छी तरह वाकिफ थे.
हो रहे खड़े आजादी को हर ओर दगा देने वाले,
पशुओं को रोटी दिखा उन्हें फिर साथ लगा लेने वाले.
यही कारण है कि उन्होंने सत्ता-परिवर्तन के प्रश्न तक सीमित रहने के बजाय व्यवस्था-परिवर्तन के प्रश्न को उठाया. इसी कारण प्रेमचंद की तरह दिनकर भी इस बात को लेकर आशंकित थे कि अगर भारत ने आजादी हासिल कर भी ली, तो क्या भूख, अभाव, गरीबी और बेकारी से बदहाल भारत अपनी आजादी की रक्षा कर पाएगा? उन्होंने भारत की आजादी की पृष्ठभूमि में लिखी कविता 'रोटी और स्वाधीनता' में अपनी इस आशंका को अभिव्यक्ति देते हुए लिखा:
आजादी तो मिल गई, मगर, यह गौरव कहां जुगाएगा?
मर भूखे इसे घबराहट में, तू बेच न तो खा जाएगा?
और, इसीलिए जब राष्ट्रवाद और मानवतावाद के प्रश्न टकरा रहे होते हैं, तो दिनकर घोषित रूप से मानवतावाद की हिमायत करते हुए उसके पक्ष में खड़े होते हैं:
आजादी रोटी नहीं, मगर दोनों में कोई वैर नहीं.
पर, कहीं भूख बेताब हुई, तो आजादी की खैर नहीं.
किसान परिवार की पृष्ठभूमि से आने वाले दिनकर ने भूख के प्रश्न से आगे बढ़कर भारतीय किसानों की दुर्दशा का चित्रण करते हुए लिखा है:
जेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है,
छूटे कभी संग बैलों का, ऐसा कोई याम नहीं है.
मुख में जीभ, शक्ति भुजा में, जीवन में सुख का नाम नहीं है,
वसन कहाँ, सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है.
वे स्वतंत्र भारत के रहनुमाओं को अपने इस प्रश्न के ज़रिये संवेदित करने की कोशिश करते हैं:
'रेशमी कलम से भाग्य-लेख लिखने वालों,
तुम भी अभाव से कभी ग्रस्त हो रोये हो क्या?
लेकिन, सत्ता के मद में मदमस्तों को इन सबसे कहाँ फर्क पड़ने वाला? इसलिए वे सवाल-जवाब पर उतरते हुए उनसे तीखे सवाल करते हैं.
सबके भाग्य दबा रक्खे हैं, किसने अपने कर में?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी, बता किस घर में?
व्यवस्था के रहनुमाओं से किया गया उनका यह प्रश्न आज भी प्रासंगिक है, लेकिन आजादी की विडंबना यह है कि इतने वर्ष बीतने के बाद भी यह प्रश्न अनुत्तरित है. और, आलम यह है कि कम-से-कम दिनकर के समय प्रश्न करने के जोखिम कम थे, इसलिए प्रश्न किए जा सकते थे. पर, आज हमारे रहनुमाओं को इन प्रश्नों से परहेज है. सवाल और सवाल करने वाले उन्हें रास नहीं आते हैं, इसीलिए वे दोनों को कटघरे में खड़ा कर देते हैं. हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद के कॉकटेल लेकर मदमस्त जनता तालियां पीट रही है. जनता का यह रवैया दिनकर को हताश और निराश करता है. वे अपनी निराशा और हताशा को अभिव्यक्ति देते हुए कह उठते हैं:
बेचैन है हवाएं, सब ओर बेकली है
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है.
मझधार है, भंवर है, या पास किनारा?
यह नाश आ रहा है, या सौभाग्य का सितारा?
उनकी इस बेचैनी और बेकली को राष्ट्रीय संदर्भों के साथ-साथ उनके व्यक्तिगत जीवन के सन्दर्भों में भी देखा जाना चाहिए. राष्ट्रकवि दिनकर के जीवन में सम्मान की तो कमी नहीं रही, पर अर्थाभाव का दंश उन्हें झेलना पड़ा और उस दंश को असहनीय बनाया उनके परिजनों के रवैये ने. इसका संकेत उनके उस पत्र में मिलता है जिसे उन्होंने 14 अगस्त, 1953 को अपने अन्तरंग मित्र को लिखा था. यह पत्र 2008 में दिनकर की जन्मशती पर एक पत्रिका के विशेषांक में प्रकाशित हुआ. इसमें वो लिखते हैं, ''जिंन्दगी में पहले-पहल कर्जदार होना पड़ा है. कर्ज पाप है और उस से प्रतिभा कुंठित हो जाती है.'' उनकी पीड़ा सिर्फ इतनी नहीं है. वे एक ओर मैथिली शरण गुप्त और रामवृक्ष बेनीपुरी जैसे साहित्यकार मित्रों से परेशान थे, दूसरी ओर जाति की राजनीति के कारण विषाक्त होते बिहार के सांस्कृतिक वातावरण से. आज का माहौल इससे बहुत अलग नहीं है. ऐसे माहौल में उनका मन आशंकित हो उठता है और आशंकित मन सुकून की तलाश प्रश्नों का आश्रय लेता है:
धुँधली हुईं दिशाएँ, छाने लगा कुहासा,
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँ-सा.
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है;
मुँह को छिपा तिमिर में क्यों तेज रो रहा है?
इस प्रकार देखा जाए तो मानवतावाद की यही हिमायत दिनकर को वामपंथ के करीब ले आती है, लेकिन इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि अगर दिनकर का रुझान वामपंथ और समाजवाद की ओर था भी, तो यह रुझान संवेदना के धरातल पर कहीं अधिक परिलक्षित होता है और वह भी मानवीय सरोकारों के कारण, और वहीं तक जहाँ तक यह मानवीय संवेदना के अनुरूप है. इसी मानवीय संवेदना को वे मनुज का श्रेय बतलाते हैं:
श्रेय होगा धर्म का आलोक वह निर्बंध,
मनुज जोड़ेगा मनुज से, जब उचित संबंध.
श्रेय उसका प्राण में बहती प्रणय की वायु,
मानवों के हेतु अर्पित मानवों की आयु.
अस्वीकरण: डॉ नीरज कुमार बिहार के वैशाली स्थित सीवी रमन विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान पढ़ाते हैं. लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.