This Article is From Jul 08, 2021

प्रधानमंत्री ने क्या अपनी एक सरकार भंग करके अपनी ही दूसरी सरकार बनाई है?

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Priyadarshan

यह प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार है कि वे अपनी मंत्री परिषद में किसको रखते हैं और किसको हटाते हैं. इसलिए इस विशेषाधिकार पर प्रश्न नहीं खड़े किए जा सकते. लेकिन यह ज़रूर देखा जा सकता है कि किन विशेष परिस्थितियों में उन्होंने इस विशेषाधिकार का इस्तेमाल किया. निश्चय ही इस विस्तार में कई अच्छी बातें हैं. यह युवाओं की मंत्री परिषद है. इसमें पिछड़ों और महिलाओं की भागीदारी पहले से काफ़ी ज़्यादा है. इसमें क्षेत्रीय संतुलन का भी ध्यान रखा गया है. यह पढ़े-लिखे लोगों की सरकार है. निश्चय ही ऐसे पढ़े-लिखे मंत्री सरकार की कार्यकुशलता बढ़ा सकते हैं.

लेकिन राजनीति में जो दिखाई पड़ता है, उससे ज़्यादा महत्वपूर्ण वह होता है जो अदृश्य रह जाता है. जिसे जोड़ा जाता है, उससे ज़्यादा महत्वपूर्ण वह होता है जिसे छोड़ा जाता है. इस लिहाज से देखें तो पढ़े-लिखे मंत्रियों की परिषद बनाने निकले नरेंद्र मोदी ने पहले अपने चार काफ़ी पढ़े-लिखे मंत्रियों को बाहर कर दिया. रविशंकर प्रसाद, डॉ हर्षवर्द्धन, रमेश पोखरियाल निशंक और प्रकाश जावड़ेकर पढ़ाई-लिखाई में किसी से कम नहीं थे. पोखरियाल ने तो पता नहीं कितनी किताबें लिख रखी हैं. यह अलग बात है कि कभी अटल बिहारी वाजपेयी ने उनकी एक किताब के लोकार्पण के अवसर पर कहा था कि उन्हें भरोसा है कि पोखरियाल ने यह किताब लिखी ज़रूर है, लेकिन पढ़ी नहीं होगी.

बहरहाल, कि‍सी ने यह कल्पना नहीं की थी कि रविशंकर प्रसाद और प्रकाश जावड़ेकर मंत्रिमंडल से बाहर कर दिए जाएंगे. वे दोनों तो प्रधानमंत्री के बिल्कुल पहली पंक्ति के सिपहसालारों में गिने जाते थे. हर बात पर प्रेस कॉन्फ्रेंस करते थे और दांत पीस-पीस कर राहुल और सोनिया की आलोचना करते थे. पत्रकारों ने भी अपनी अटकलों में इसे शामिल तक नहीं किया. जब राष्ट्रपति भवन की चिट्ठी आई तो सबको मालूम हुआ कि रविशंकर प्रसाद और प्रकाश जावड़ेकर की गद्दी भी चली गई है.

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दरअसल जिन बारह मंत्रियों को प्रधानमंत्री ने बाहर किया है, उनके निकाले जाने का संदेश बस एक ही है. बीजेपी या मोदी सरकार में किसी की कोई हैसियत नहीं है. वे जब चाहें, अपने मंत्रियों को ताश के पत्तों की तरह फेंट सकते हैं. किसी को भी निकाल सकते हैं और नए पत्ते चुन सकते हैं.

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क्योंकि कम से कम कामकाज के स्तर पर इन तीनों के मंत्रालयों से कभी कोई सार्वजनिक शिकायत नहीं दिखी. बेशक, कोविड से निबटने में सरकार नाकाम रही, लेकिन यह मोर्चा तो प्रधानमंत्री ने ख़ुद संभाला था. बिल्कुल पहले एलान से आख़िरी एलान तक वे ख़ुद करते रहे. देश ही नहीं, दुनिया भर में बता आए कि भारत ने कोविड को पराजित कर विश्व को संकट से उबार लिया है. बीच-बीच में लगातार टीकाकरण पर अपनी पीठ थपथपाते रहे. तो कोविड से लड़ाई की सफलता या विफलता का सारा श्रेय या ठीकरा प्रधानमंत्री के हिस्से जाना चाहिए- लेकिन यह डॉ हर्षवर्धन के माथे चला गया.

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रविशंकर प्रसाद भी दांत पीस-पीस कर वही करते रहे जो उनको अपने प्रधानमंत्री के हित में लगा. ट्विटर पर इकतरफ़ा कार्रवाइयों का दबाव बनाते रहे, बीजेपी के आइटी सेल के फ़र्ज़ी संदेशों को अनदेखा करते रहे और जो क़ानूनी धाराएं सुप्रीम कोर्ट के दखल से ख़त्म हो चुकी हैं, उनमें सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों के ख़िलाफ़ मुक़दमा होता देखते रहे. उनसे अमेरिका नाराज़ होता तो होता, भारत के नाराज़ होने की क्या बात थी? क्या इसके पीछे अमेरिकी दबाव का खयाल रहा होगा? वैसे अरुण जेटली और सुषमा स्वराज के जाने के बाद जैसे वही बचे हुए थे जो अपनी तरह से नफ़ीस अंग्रेज़ी और हिंदी बोलने की कोशिश करते थे. जाहिर है, यह रहस्य समझना मुश्किल है कि प्रधानमंत्री ने ऐसे सुयोग्य मंत्रियों को क्यों हटाया.

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दरअसल प्रदर्शन के आधार पर निकाले जा सकने लायक कोई मंत्री था तो वे वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन थीं. यह ठीक है कि कोविड ने सबका बजट बिगाड़ दिया, सबकी अर्थव्यवस्था तहस-नहस कर दी, लेकिन निर्मला सीतारमन उसके पहले ही सब चौपट करती आ रही थीं. जो पहला बजट उन्होंने पेश किया, उसमें दस साल के भविष्य की रूपरेखा खींच दी, लेकिन अगले छह महीने में ही उन्हें कई मिनी बजट पेश करने पड़ गए. कोविड के दौर में भी उनके तरह-तरह के पैकेज किसी काम आते नहीं दिखे.

दरअसल इतने बड़े बदलाव की एक ही कैफ़ियत दिखती है कि प्रधानमंत्री की प्राथमिकता फिलहाल बीजेपी की राजनीति नहीं, अपना प्रशासन है. एक तरह से इतना बड़ा फेरबदल करके उन्होंने अपने पिछले दो साल के कार्यकाल को सवालों के घेरे में ला दिया है. अगर कुछ हल्के ढंग से कहें तो प्रधानमंत्री ने दो साल के मोदी सरकार के ख़िलाफ़ एक तरह का अविश्वास प्रस्ताव ला दिया, सरकार भंग कर दी और नए सिरे से सरकार बनाई.

लेकिन यह मानना या बताना भी एक तरह का राजनीतिक भोलापन है कि पढ़े-लिखे लोगों से सरकार अच्छी चलती है. इस देश के सबसे पढ़े-लिखे लोगों ने इस देश को सबसे ज़्यादा डुबोया है. सबसे अच्छे इंजीनियर सबसे भ्रष्ट साबित हुए, सबसे बड़े डॉक्टरों ने सेहत की दुकानदारी की, सबसे बड़े अफ़सर सबसे बेईमान लोग साबित हुए जिन्होंने गरीबों के हिस्से के साधनों की लूट मचा डाली. सरकार के पास पढ़े-लिखे अफ़सरों की एक प्रशासनिक कार्यपालिका होती है, राजनीतिक कार्यपालिका का काम अफसरी करना नहीं, उनको निर्देशित करना, उन पर निगरानी रखना होता है. बेशक, पढ़े-लिखे डिग्रीधारी भी यह काम कर सकते हैं, लेकिन समाज से जुड़ा, अपने लोगों को पहचानने और उनकी ज़रूरत समझने वाला नेतृत्व जो कर सकता है, वह प्रशासनिक नेतृत्व नहीं कर सकता. राजनीतिक नेतृत्व सक्षम से ज्यादा संवेदनशील होना चाहिए. इस लिहाज से मोदी के नए मंत्रियों की परीक्षा होनी बाक़ी है.

अच्छी बात ये है कि इस सरकार में पिछड़ों की भागीदारी बढ़ी है. लेकिन यह संख्यात्मक भागीदारी गुणात्मक बदलाव की गारंटी नहीं है. यह मंडल के रास्ते ही मंडल को निष्कवच और निष्प्रभावी करना है. फिर भी इसका एक बड़ा पैगाम है. सरकार चाहे जितने भी मज़बूत प्रधानमंत्री की हो, वह पिछड़ों की उपेक्षा करके नहीं चल सकती.

वैसे इस विराट विस्तार के साथ मोदी ने अपना ही दिया एक और मंत्र खंडित किया है. वे कहा करते थे कि उनका लक्ष्य 'मिनीमम गवर्मेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस' का है. लेकिन अब 77 मंत्रियों का यह जंबो मंत्रिमंडल अटल और मनमोहन सरकारों को टक्कर दे रहा है. तीस साल की यह तीसरी सबसे बड़ी सरकार है. पहली अस्सी मंत्रियों वाली सरकार वाजपेयी जी की थी.

अंतिम बात- यह फिर से साबित हुआ है कि दरअसल इस देश में बीजेपी और सरकार दोनों का एक ही मतलब है- नरेंद्र मोदी. उन्हीं के सौरमंडल के चारों तरफ़ उन्हीं की रोशनी से बाक़ी ईंट-पत्थर चमक रहे हैं, अगर उनमें अपनी आग होती, उनमें अपना ताप होता तो कम से कम पशुपति पारस जैसे नेताओं के लिए वे मंत्रिमंडल से बाहर नहीं किए गए होते. तो लोकतंत्र आपको मजबूर करता है कि आप नेता की ही प्रदक्षिणा न करते रहें, जनता के बीच भी जाएं- वरना आपका नेता अपनी शतरंज के हिसाब से अपने मोहरे कभी भी बदल सकता है.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

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