क्या RSS को रंगभेद का शिकार होना पड़ा...?

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Harish Chandra Burnwal

देश में 58 साल बाद सरकारी कर्मचारियों के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के कार्यक्रमों में हिस्सा लेने पर लगी पाबंदी को हटा दिया गया है. यह निर्णय 9 जुलाई, 2024 को ही केंद्र सरकार ने लिया था, जिसकी जानकारी कई दिन के बाद मीडिया को लगी. मगर इसी के साथ एक विमर्श खड़ा हो गया कि क्या RSS को रंगभेद का शिकार होना पड़ा? यह विमर्श इसलिए, क्योंकि जिस संगठन ने हर महत्वपूर्ण मौके पर देश का साथ दिया, आखिर उससे केंद्रीय कर्मचारियों को क्यों दूर रखा गया. यह सवाल भी इसलिए उठा, क्योंकि इंदौर हाईकोर्ट में एक सेवानिवृत्त अधिकारी पुरुषोत्तम गुप्ता ने याचिका लगाई थी कि वह अब RSS के ज़रिये देश की सेवा में काम करना चाहते हैं, लेकिन केंद्र सरकार का एक कानून उन्हें ऐसा करने से रोकता है. इसके बाद हाईकोर्ट ने यह सवाल केंद्र सरकार से पूछा था. सुनवाई के दारान एडिशनल सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कोर्ट को बताया था कि उन्होंने इस विषय को लेकर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से बात की है और अब अगली सुनवाई से पहले सरकार कोई निर्णय ले सकती है. इसी परिप्रेक्ष्य में यह फ़ैसला आया है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्रमों में सरकारी कर्मचारियों के हिस्सा लेने पर पाबंदी लगाने का सरकारी आदेश 30 नवंबर, 1966 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने दिया था. इसके बाद 25 जुलाई, 1970 को और 28 अक्टूबर, 1980 को इस प्रतिबंध को बढ़ाया गया. यह भी इंदिरा गांधी का ही निर्णय था. आज, इसी प्रतिबंध को हटाए जाने का कांग्रेस पार्टी विरोध कर रही है. लेकिन यह समझना ज़रूरी है कि 1966 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर इंदिरा गांधी ने जिस प्रतिबंध की शुरुआत की थी, उसके पीछे आखिर क्या मंशा थी?

प्रतिबंध लगाने की असली वजह

30 नवंबर, 1966 को पहली बार जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्रमों में सरकारी कर्मचारियों के हिस्सा लेने पर प्रतिबंध लगाया था, तब वह अपने राजनीतिक जीवन के पहले और सबसे बड़े जनाक्रोश का सामना कर रही थीं. यह जनाक्रोश गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने के लिए देशव्यापी प्रदर्शन के रूप में उभरा था. इस दौरान सबसे बड़ा प्रदर्शन दिल्ली में 7 नवंबर, 1966 को हुआ था. तब दिल्ली के बोट क्लब पर, जिसे आज कर्तव्य पथ के नाम से जाना जाता है, देशभर से हज़ारों साधु और संत गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने की मांग को लेकर इकट्ठा हुए थे. इन देशव्यापी प्रदर्शनों का नेतृत्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ कर रहा था. हज़ारों की संख्या में साधु-संतों को दिल्ली में देखकर इंदिरा सरकार के हाथ-पांव फूल गए थे और उन्होंने प्रदर्शन को खत्म करने के लिए साधु-संतों पर गोलियां चलवा दी थीं. इस गोलीबारी में भारी संख्या में साधु-संत मारे गए और दिल्ली से धरना प्रदर्शन खत्म करवा दिया गया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समाज में बढ़ते इस प्रभाव को देखकर तब इंदिरा गांधी डर गई थीं और उन्हें अपनी राजनीतिक सत्ता पर खतरा नज़र आने लगा. अपने ऊपर मंडरा रहे इस खतरे को रोकने के लिए ही उन्होंने 30 नवंबर, 1966 को एक सरकारी आदेश जारी कर दिया, जिसके ज़रिये सरकारी कर्मचारियों के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्रमों में हिस्सा लेने पर प्रतिबंध लगा दिया गया. सत्ता पर अपनी पकड़ को मजबूत बनाए रखने के लिए इंदिरा गांधी इस प्रतिबंध को लगातार बढ़ाती रही थीं. 31 अक्टूबर, 1984 को अपनी मृत्यु से पहले आखिरी बार उन्होंने 28 अक्टूबर, 1980 को इससे संबंधित एक और आदेश जारी किया था.

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फिर विवाद क्यों...?

आज, इंदिरा गांधी की वही कांग्रेस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के निर्णय पर सवाल उठा रही है. कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने सोशल मीडिया X (अतीत में ट्विटर) पर एक पोस्ट में लिखा, "मोदी जी ने 58 साल बाद, सरकारी कर्मचारियों पर RSS की गतिविधियों में शामिल होने पर 1966 में लगा प्रतिबंध हटा दिया है... हम जानते हैं कि पिछले 10 वर्ष में BJP ने सभी संवैधानिक और स्वायत्त संस्थानों पर संस्थागत रूप से कब्ज़ा करने के लिए RSS का उपयोग किया है... मोदी जी सरकारी कर्मचारियों पर RSS की गतिविधियों में शामिल होने पर लगा प्रतिबंध हटा कर सरकारी दफ़्तरों के कर्मचारियों को विचारधारा के आधार पर विभाजित करना चाहते हैं..." खरगे ने इस पोस्ट में गोहत्या पर प्रतिबंध के लिए हुए प्रदर्शन और साधु-संतों की मौत का कोई ज़िक्र नहीं किया, जिससे भयभीत होकर इंदिरा गांधी ने यह प्रतिबंध लगाया था. कांग्रेस, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्णय को विवादित करने के लिए RSS मुख्यालय पर कभी तिरंगा न फ़हराने की फ़ेक धारणा को आधार बनाकर भी इंदिरा गांधी के 1966 के निर्णय को सही साबित करने का प्रयास करती रही है.

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RSS और तिरंगा

पिछले कुछ साल से कांग्रेस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राष्ट्र प्रेम पर धब्बा लगाने के लिए तिरंगे के मुद्दे को उठाती रहती है. यह बात सच है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत का विभाजन नहीं चाहता था और आज भी अखंड भारत उसका ड्रीम प्रोजेक्ट है, लेकिन विभाजन के बाद जो हिस्सा भारत राष्ट्र बना, उसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत माता के रूप में देखता है और उसकी सेवा करता है. देश में आज़ादी के बाद से जो फ़्लैग कोड लागू हुआ था, उसमें सामान्य नागरिकों को झंडा फ़हराने का अधिकार प्राप्त नहीं था. 2002 तक राष्ट्रीय पर्व के अवसरों पर संस्थानों और सरकारी भवनों में तिरंगे फ़हराने का अधिकार था. 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने फ़्लैग कोड में परिवर्तन किया और सभी नागरिकों को अधिकार दिया कि वे किसी दिन भी समुचित सम्मान के साथ राष्ट्रीय तिरंगा फ़हरा सकते हैं. इस निर्णय के बाद साल 2002 से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय पर तिरंगा फ़हराया जाने लगा.

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संघ का एक ही मंत्र - राष्ट्र सर्वोपरि

कांग्रेस तिरंगे के न फ़हराने की परंपरा को RSS से जोड़कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राष्ट्र प्रेम पर भ्रम पैदा करने का प्रयास करती है, जबकि कांग्रेस के ही कई नेता और यहां तक कि पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राष्ट्र सेवा के कायल थे. यहां कुछ घटनाओं के बारे में जानना ज़रूरी है -

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भारत विभाजन - ब्रिटेन ने जब भारत के विभाजन के साथ आज़ादी देने का निर्णय लिया, तो साथ में यह भी निर्णय लिया कि पूर्वी पाकिस्तान, पश्चिमी पाकिस्तान और सिंध में सेना का प्रमुख मुस्लिम होगा, क्योंकि ये सभी क्षेत्र पाकिस्तान को दिए जाने थे. इस निर्णय में विस्थापितों की मदद करने का सबसे बड़ा काम RSS ने किया था. इन परिस्थितियों में सरकारी तंत्र पूरी तरह फेल हो चुका था और सरकार स्वयंसेवी संगठनों की मदद के सहारे ही जनता तक पहुंच पा रही थी.

जम्मू-कश्मीर पर कबीलाई आक्रमण - स्वतंत्रता प्राप्ति के कब्ज़ासाथ ही जब पाकिस्तान ने 1947 से 1948 के बीच जम्मू-कश्मीर पर कब्ज़ा करने के लिए कबायलियों के भेस में राज्य में सेना की घुसपैठ करा दी थी, तो उस दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही ऐसा संगठन था, जो जम्मू-कश्मीर में ज़मीनी स्तर पर लोगों की सुरक्षा का काम कर रहा था. RSS के कार्यकर्ता न सिर्फ़ पुलिस और सेना को गोला-बारूद पहुंचाने में मदद कर रहे थे, बल्कि रसद और पानी पहुंचाने की महत्वपूर्ण भूमिका भी निभा रहे थे.

1962 का चीन युद्ध - स्वतंत्रता के बाद से ही प्रधानमंत्री नेहरू ने जिस तरह चीन के प्रति नरम रुख अपनाया था और चीन की चालों को वह जिस तरह नज़़रअंदाज़ कर रहे थे, उसका RSS लगातार विरोध करता था. पंडित नेहरू की नीति की वजह से चीन ने जिस तरह तिब्बत पर कब्ज़ा कर लिया था, उसका जनसंघ और RSS ने संसद में और संसद के बाहर पुरज़ोर विरोध किया था, लेकिन जब चीन ने 1962 में भारत पर आक्रमण किया, तो RSS प्रधानमंत्री नेहरू से सारे विरोध भुलाकर देश की सीमाओं को बचाने के लिए मैदान में कूद पड़ा. RSS के कार्यकर्ता सैनिकों की मरहम-पट्टी करने, उन्हें रसद पहुंचाने और अन्य तरह की सहायता के लिए भारत-चीन सीमा पर तैनात थे.

1963 का गणतंत्र दिवस - 1962 में RSS के राष्ट्रप्रेम और उसकी महत्वपूर्ण भूमिका को देखकर पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उसे 1963 के गणतंत्र दिवस समारोह में राजपथ पर शामिल होने का न्योता दिया.

1971 का बांग्लादेश युद्ध - 1962 में चीन के साथ युद्ध में जिस तरह RSS सेना के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सीमाओं को सुरक्षित करने के लिए आगे खड़ा था, उसी तरह 1971 के युद्ध में भी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को न केवल पूरा समर्थन दिया, बल्कि युद्ध में सेना की मदद के लिए भी वह सीमा पर डटा रहा.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज भी देश में आई किसी भी आपदा में नागरिकों की देखभाल करने के लिए सबसे पहले पहुंचता है. संघ का यही राष्ट्रप्रेम है कि 1966, 1970 और 1980 में प्रतिबंध लगाने वाली इंदिरा गांधी 15 सितंबर, 1970 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह एकनाथ जी रानाडे के निमंत्रण पर कन्याकुमारी में बने विवेकानंद रॉक मेमोरियल का दर्शन करने वहां पहुंचीं. इस रॉक मेमोरियल की स्थापना का पूरा श्रेय एकनाथ जी रनाडे को है. 16 सितंबर, 1970 को इंदिरा गांधी ने एकनाथ जी के साथ पूरे मेमोरियल का दर्शन किया और विवेकानंद की मूर्ति पर श्रद्धा के पुष्प अर्पित किए. सोचिए, यह वही इंदिरा गांधी हैं, जिन्होंने 1966 में अपनी राजनीतिक सत्ता को बचाने के लिए RSS के कार्यक्रमों में सरकारी कर्मचारियों के हिस्सा लेने पर पाबंदी लगा दी थी और फिर स्वयं RSS के कार्यक्रम में शामिल होने के लिए कन्याकुमारी पहुंची थीं.

हरीश चंद्र बर्णवाल वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.