This Article is From May 21, 2021

यूपी के जानलेवा पंचायत चुनाव...

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Ravish Kumar

कुछ ही हिस्सों में सही, मीडिया ने यह ज़रूर बताया कि मार्च, अप्रैल और मई के महीने में मरने वालों की सरकारी संख्या से अलग श्मशान और क्रबिस्तान के रिकार्ड कुछ और कहते हैं. इन तमाम रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. बस छप कर गुज़र जाने दिया गया. मरने वालों की सरकारी संख्या में एक बार भी संशोधन नहीं किया गया. भारत के नागरिकों को पता ही नहीं है कि कोविड की दूसरी लहर में कितने लोग मरे हैं. भारत का नागरिक समाज इस सरकारी झूठ को भी पचा सकता है, यह उसके पतन का एक और उदाहरण है. यह साबित हो गया कि इस समाज के बीच खड़े होकर मरने वालों की संख्या छिपाई जा सकती है. जबकि मौत समाज के घरों में हुई है. सरकारों ने झूठ बोलने के मामले में ऊंचा मकाम हासिल कर लिया है. बिहार के बक्सर में कितनी मौतें हुईं, इस पर मुख्य सचिव 6 की संख्या बताते हैं और पटना के डिविज़नल कमिश्नर 789. वो भी अदालत में. उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव की ड्यूटी करते हुए कितने शिक्षक संक्रमित हुए, उसके कारण कितने शिक्षकों की मौत हुई, इसे लेकर सरकार और शिक्षक संघ आमने सामने हो गए. सरकार कहती रही कि केवल तीन शिक्षकों की मौत हुई है. शिक्षक संघ कहता है कि 1621 शिक्षकों की कोविड के कारण मौत हुई है. ये सभी पंचायत चुनाव की ड्यूटी के दौरान संक्रमित थे. यह मामला केवल मुआवज़े की मांग और मांग मान लेने की लड़ाई नहीं है. यह मामला बताता है कि हम सरकारी आयोजनों में कोविड को लेकर कितने लापरवाह भी हैं.

ऋतु द्विवेदी, नीतू सिंह, शिखा श्रीवास्तव, अंजू गंगवार, प्रीति गोस्वामी, फराह रईस, अजीत कुमार यादव, विजय कुमार सिंह, मोहम्मद आलिम, महेंद्र पाल सागर, सोमपाल गंगवार, यामिन राईन, कोमल अरोड़ा, हमारे पास सभी की तस्वीरें नहीं हैं लेकिन ये सभी बरेली जनपद के शिक्षक हैं जिन्होंने पंचायत चुनाव में ड्यूटी की थी और उस दौरान कोविड का संक्रमण हुआ. शिक्षक संघ का दावा है कि चुनाव की ड्यूटी के चलते ही संक्रमण हुआ और उसके कारण इनकी मौत हुई. उत्तर प्रदेश शिक्षक संघ ने बरेली और पीलीभीत की जो सूची भेजी है उसमें 46 शिक्षकों के नाम हैं, किस स्कूल में पढ़ाते थे, उसका नाम है, किस ब्लाक में उनकी डयूटी लगी थी उसका नाम है, मृत्यु की तारीख लिखी है और उम्र भी. इनका मोबाइल नंबर भी है. यूपी शिक्षक संघ सिर्फ दावा नहीं कर रहा है बल्कि अपनी तरफ से आंकड़े भी रख रहा है. हमें बरेली की सूची में मरने वाले शिक्षकों की उम्र देखने से पता चलता है कि इनकी औसत उम्र 43 साल है. अधिकतम उम्र 58 साल है और न्यूनमत 32 साल है. बरेली के शिक्षकों की ड्यूटी 15 अप्रैल को लगी थी. बरेली की सूची से पता चलता है कि 35 में से 17 लोगों की मौत 24 अप्रैल से 1 मई के बीच हुई है. ड्यूटी के 9 दिन बाद से लेकर 14 दिन के भीतर. बरेली के शिक्षक संघ के उपाध्यक्ष सत्येंद्र पाल सिंह ने चार शिक्षकों का मृत्युप्रमाण पत्र पेश किया है जिसमें कोविड लिखा है और 8 शिक्षकों की पोजिटिव रिपोर्ट. वे बाकियों का भी इस तरह से जमा कर रहे हैं. अकेले बरेली में 35 में से 12 शिक्षकों के कोविड संक्रमित होने के प्रमाण आपके स्क्रीन पर मौजूद हैं. सत्येंद्र पाल सिंह का कहना है कि उनके ज़िले में कोविड से 35 में से 30 शिक्षकों की मौत अस्पताल में हुई है.

अगर सरकार चाहे तो सबके रिकार्ड देख सकती है कि इनकी मौत कोविड से हुई या नहीं और कब हुई है. क्या ड्यूटी पर जाने से पहले इनका RTPCR टेस्ट हुआ था, सुरक्षा के लिए PPE किट दिया गया था? सिर्फ शिक्षकों के संक्रमित होने का मामला नहीं है, उनसे दूसरों को भी हुआ होगा. अप्रैल माह के चार दिन यूपी में पंचायत चुनाव के लिए मतदान हुए थे. 2 मई को नतीजे आए. ढाई लाख शिक्षकों की ड्यूटी लगाई गई थी. उत्तर प्रदेशीय प्राथमिक शिक्षक संघ ने बताया है कि चार-चार बार पत्र लिख कर चुनाव रद्द करने का आग्रह किया गया था. किसी ने नहीं सुना.

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शिक्षकों ने बताया कि पंचायत चुनाव में शिक्षक को पीठासीन अधिकारी बनाया गया था. चुनाव बैलेट पेपर से होता है तो स्टाम्प लगाना, लोगों की उंगली पर निशान लगाना, वोटिंग कार्ड देखना, पहचान पत्र चेक करना, मतदान के बाद बैलेट पेपर लेकर ज़िला मुख्यालय तक जाना होता है. एक शिक्षक ने बताया कि मतदान के बाद पोलिंग पार्टी को बस से ज़िला मुख्यालय ले जाया गया. एक बस में 4-5 पोलिंग पार्टियां थी. एक पोलिंग पार्टी में 4 कर्मचारी होते थे और दो से चार पुलिसकर्मी भी. इसके बाद मतों की गिनती के दिन भी हाथ का इस्तमाल हुआ. एंजेंट थे.

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इस पूरी प्रक्रिया में सामाजिक दूरी का जो आलम था वो बस कागज़ पर था. मतदान केंद्रों पर भारी भीड़ उमड़ी थी. उस दौरान देश में और यूपी में कोरोना की दूसरी लहर चल रही थी. लखनऊ में हाहाकार मचा था. लोगों को अस्पताल नहीं मिल रहा था. मंत्री के फोन करने पर दो दो घंटे तक एंबुलेंस नहीं मिल रहा था और ये शिक्षक ऐसे माहौल में पंचायत का चुनाव करा रहे थे.

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शिक्षक संघ का कहना है कि लक्षण आने पर ज्यादातर शिक्षकों ने कोरोना की जांच कराई थी. पॉज़िटिव आए थे. 50 प्रतिशत शिक्षकों को तो अस्पताल ही नहीं मिला. आक्सीज़न भी नहीं मिला. बहुत से शिक्षक प्राइवेट अस्पताल गए जहां इलाज का खर्चा काफी था. जबकि बेसिक शिक्षकों ने अपने वेतन से मुख्यमंत्री सहायता कोष में 76 करोड़ रुपये दिए थे. ताकि प्रदेश की जनता को इलाज की सुविधाएं उपलब्ध हो सकें. इतने पैसे में तो बेसिक शिक्षक संघ अपने शिक्षकों का इलाज करा लेता. चुनाव के दौरान ही शिक्षकों के मौत की खबरें आने लगी थीं. 16 मई तक कोविड से मरने वाले शिक्षकों की संख्या 1621 हो गई जो पंचायत चुनाव की ड्यूटी पर लगाए गए थे. इसमें 180 से अधिक शिक्षा मित्र और अनुदेशक भी शामिल हैं.

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1 मई को शिक्षक संघ सुप्रीम कोर्ट गया था. यह वो समय था जब कोर्ट में ऑक्सीजन की कमी को लेकर सुनवाई चल रही थी. अदालत के सामने यह बात थी कि अप्रैल के महीने में हाहाकार मचा हुआ है, ऐसे में मतगणना रोकी जा सकती थी. क्योंकि तब तक 700 से अधिक शिक्षकों की मौत हो चुकी थी. कोर्ट ने मतगणना की मंज़ूरी दे दी. अदालत ने एक आदेश और दिया था कि सभी मतगणना केंद्र के सीसीटीवी फुटेज रखे जाएं. यूपी चुनाव आयोग की तरफ से पेश हुए वकील ने कहा कि प्रत्येक मतदान केंद्र में 75 से अधिक लोग नहीं होंगे. यूपी में 829 मतदान केंद्र बनाए गए थे. कोर्ट ने यह भी कहा था कि कुछ गलत हुआ तो ड्यूटी पर तैनात वरिष्ठ अधिकारी जिम्मेदार होंगे. क्या अदालत सीसीटीवी फुटेज देखेगी कि उसके आदेश का पालन हुआ या नहीं. क्या मतदान केंद्रों का भी सीसीटीवी फुटेज रखा गया है? मतदान केंद्र के सीसीटीवी वीडियो से ही पता चलेगा कि भीतर क्या हालत थी. यूपी सरकार नहीं मानती कि ड्यूटी पर गए 1621 शिक्षकों की मौत कोरोना से हुई है. वह राज्य निर्वाचन आयोग की रिपोर्ट को आधार मानते हुए 3 शिक्षकों की मृत्यु का आंकड़ा देती है.

क्या चुनाव आयोग ने सार्वजनिक तौर पर ऐसा कहा है? या आतंरिक तौर पर ऐसा बताया है? क्या आयोग ने आधिकारिक तौर पर मंत्री जी को बताया है? क्या राज्य निर्वाचन अधिकारी ने अपनी वेबसाइट पर कोई बयान प्रकाशित किया है? 1621 की संख्या को 3 कहने के कारण ही मामला और विवादित हो गया.

शिक्षक संघ का कहना है कि सरकार के नियम ही ऐसे हैं कि कोरोना से मौत तभी मानी जाएगी जब तक वो ड्यूटी है. अगर ऐसा है तो यह नियम वाकई विचित्र है. शिक्षक संघ का दावा है कि पंचायत की ड्यूटी से लौटे कई शिक्षक अभी भी अस्पताल में हैं और अपने पैसे से इलाज करा रहे हैं.

असलम सिद्दीक़ी, हुकुमचंद्र वरमा, मोहम्मद ताहिर, सुनिता रानी, झब्बू लाल, जावित्री देवी, शकील अहमद, अखिलेश कुमार, शशी वर्मा, शिववंश मिश्रा, भारती निषाद, कृष्णकुमार विश्वाकर्मा, प्रेम नाथ, बनवरी लाल गौतम, रामनरेश, शुभम कटियार, निधि वाजपेयी, गीता सिंह, पंकज विक्रम, मेवालाल, सुरेश चंद्र, अनीस फ़ातिमा, पिंकी देवी, शाहिदा जमाल, सालिकराम, जनार्दन पुजारी. सरकार बहुत आसानी से इस लिस्ट के आधार पर पता कर सकती थी. पंचायत चुनाव में ड्यूटी की तारीख और मृत्यु की तारीख से पता लग सकता है. जिनके पास RTPCR की रिपोर्ट है उससे आधार पर संक्रमण के आस-पास की तारीख का पता लगाया जा सकता है. अगर सरकार कांटेक्ट ट्रेसिंग के विज्ञान पर यकीन करती है तो उस आधार पर पता लगाया जा सकता है.

शिक्षक संघ ने जो सूची दी है उसका कई तरह से अध्ययन किया जा सकता है. इस सूची में कई तारीखें ऐसी दिखती हैं जिस दिन 40-50 लोगों की मौत हुई है. कल्पना कीजिए एक एक दिन पचास पचास शिक्षकों की मौत की खबर आ रही हो. यह सूची बताती है कि दूसरी लहर के बीच चुनाव कराने का फैसला कितना घातक था. चुनावों में बिना सामाजिक दूरी के लोग जमा हुए और गांवों में भी  संक्रमण फैला.
- 25 अप्रैल को 79 शिक्षकों की मौत हुई है
- 26 अप्रैल को 88 शिक्षकों की मौत हुई है
- 27 अप्रैल को 81 शिक्षकों की मौत हुई है
- 28 अप्रैल को 74 शिक्षकों की मौत हुई है
- 29 अप्रैल को 71 शिक्षकों की मौत हुई है
- 30 अप्रैल को 81 शिक्षकों की मौत हुई है

शिक्षक संघ की सूची के हिसाब से अप्रैल महीने में छह दिन ऐसे थे जिस दिन कुल 474 शिक्षकों की मौत हुई है. ये सारी तारीखें मतदान के आस-पास की ही हैं. कहीं से भी यह सामान्य घटना नहीं है. शिक्षक संघ को अपनी सूची में और जानकारियां जोड़नी चाहिए. मसलन कब पोज़िटिव रिपोर्ट कराया, कब रिपोर्ट आई, डेथ सर्टिफिकेट में क्या लिखा है. अस्पताल में इलाज किस बीमारी का हुआ. तभी उनका दावा और ठोस हो सकेगा. 36 साल के अनूप कुमार बाराबंकी में तैनात थे. 20 अप्रैल को कोविड पोज़िटिव की रिपोर्ट आई. न ऑक्सीजन सिलेंडर मिला, न ऑक्सीज़न एंबुलेंस मिला.

ऑक्सीजन न मिलने और अस्पताल न मिलने का सदमा न जाने कितने परिवारों को सता रहा होगा. वो इस बात से कभी नहीं उबर पाएंगे कि विश्व गुरु भारत में ऑक्सीज़न का सिलेंडर नहीं मिला. अभी भी लोग ऑक्सीज़न सिलेंडर खोज रहे हैं.

सरकार भले 1621 की मौत को 3 मानती रहे लेकिन ये तस्वीरें परिवारों और परिचितों की स्मृतियों में ज़िंदा हैं. किसी दोस्त, किसी पति, किसी पिता, किसी भाई, किसी बहन, किसी मां और किसी बेटे को याद है कि उनकी बेटी, उनकी पत्नी, उनकी मां और टीचर जो पढ़ाती थी पंचायत चुनाव की ड्यूटी में गई थी, वहां से आने के बाद कोरोना हुआ और बाद में मौत हो गई. इलाज न मिलने से भी कुछ मौतें हुईं. भले ही ये स्मृतियां हिन्दू मुस्लिम की राजनीति वाले व्हाट्सएप फार्वर्ड के आगे धुंधली पड़ जाएं लेकिन ये तस्वीरें याद दिलाती रहेंगी कि कि उन्हें संक्रमण क्यों हुआ, जब उनकी मौत हुई तो क्या अस्पताल उपलब्ध था, क्या ऑक्सीजन उपलब्ध था, क्या वेंटिलेटर मिला, क्या इंजेक्शन मिला था. नफरत की आग तेज़ी से फैलती है और जहां फैल जाती है वहां झूठ की दीवार ऊंची हो जाती है. फिर आप उस सच को नहीं देख पाते. यह लड़ाई केवल मुआवज़े के लिए नहीं है बल्कि हिसाब रखने की है कि व्हाट्सएप ग्रुप में शेर बनने वाले लोग अपने सहयोगी की मौत की संख्या सरकार के एक कागज़ के टुकड़े में दर्ज कराने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ा. जिसे हम और आप रिकार्ड कहते हैं. जब नैतिकता ऑक्सीजन के सिलेंडर ब्लैक में बेच रही हो उस नैतिकता से आप उम्मीद ही क्यों रखते हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि छात्र अपने टीचर को लंबे समय तक याद रखेंगे. एक बेहतर इंसान बनने के लिए न कि व्हाटसएप फार्वर्ड पढ़ कर हैवान बनने के लिए.

एक तरफ यूपी सरकार कर्फ्यू लगा रही थी, दूसरी तरफ पंचायत चुनाव करा रही थी. सबको पता था कि कोविड की दूसरी लहर भयानक है. कुछ दिनों के लिए रुका जा सकता था. ज़िंदगी वापस नहीं आएगी. जब गंगा में बहती लाशें साबित नहीं कर सकीं तो बाकी से क्या उम्मीद. शिक्षक संघ शायद धार्मिक मुद्दों पर तेवर दिखाता तो उसके सदस्यों की पूछ आज बढ़ जाती. बहुत से शिक्षकों को पता है कि मैं क्या बोल रहा हूं. दरअसल उन शिक्षकों से ही आंखें मिलाकर बोल रहा हूं कि धर्म की राजनीति से क्या मिला. शिक्षक संघ के सदस्य अपने ग्रुप के व्हाट्सएप फार्वर्ड में मेरे सवाल का जवाब पूछ सकते हैं. जवाब अपने पास रख लें.

विनोद कुमार बस्ती के रहने वाले थे. 2011 में सहायक शिक्षक बने. 19 अप्रैल को चुनाव की ड्यूटी पर गए थे. 24 अप्रैल को तबीयत खराब हो गई. 25 तारीख को तबीयत बिगड़ी और आक्सीजन का स्तर नीचे चला गया. किसी सरकारी अस्पताल में जगह नहीं मिली. अपना सिलेंडर लेकर प्राइवेट अस्पताल में भर्ती होने गए. अस्पताल ने कोविड का टेस्ट नहीं किया. कहा कि टेस्टिंग किट्स नहीं हैं. दिल्ली में ही टेस्ट नहीं हो पा रहे थे बस्ती का अंदाज़ा लगाया जा सकता है. अस्पताल ने परिवार वालों से कहा कि विनोद को रेमडेसिविर का डोज़ देना होगा जो कोविड के मरीज़ को दिया जाता है. परिजनों ने रेमडिसिविर की खोज की, नहीं मिला. दो दिन अस्पताल में रहने के बाद 28 अप्रैल को निधन हो गया. इसके बाद भी अस्पताल ने मृत्यु के कारणों में कोविड नहीं लिखा. रेमडिसिवर के छह डोज़ लाने के लिए लिखा था वो भी अस्पताल की पर्ची पर नहीं. कमाल है सिगरेट की डिब्बी पर नाम नंबर नोट करने जैसा लगता है. 55000 इलाज पर खर्चा आया. विनोद परिवार में अकेले कमाने वाले थे.

आक्सीजन का स्तर गिर गया है. रेमडिसिविर का इंजेक्शन खोजा जा रहा है और डेथ सर्टिफिकेट में कोविड न लिखा हो तो समझ सकते हैं कि आंकड़ों को झुठलाने के लिए कितनी मेहनत की गई है. शिक्षकों की मौत का मामला इलाज व्यवस्था की पोल भी खोलता है. शिक्षक संघ ने मरने वाले शिक्षकों की सूची जारी कि है उसमें विनोद का ज़िक्र 1144 वे नंबर पर है.

कोविड से होने वाली मौतों की गिनती के अलग-अलग नियम हैं. कोई मरीज़ कोविड पॉजिटिव होकर अस्पताल में दाखिल होता है. लंबे समय तक भर्ती रहता है और कोविड निगेटिव हो जाता है. निगेटिव तो हो जाता है लेकिन कोविड के कारण ही उसके शरीर के अंग खराब होने लगते हैं और उसे वेंटिलेटर पर डाला जाता है. उसकी मौत हो जाती है. उसकी गिनती कोविड से होने वाली मौत में नहीं होती है. मेरे परिचित के साथ ऐसा ही हुआ है. इस तरह से न जाने कितनी मौतों को छिपा लिया गया होगा. ICMR ने कोविड से होने वाली मौतों की पहचान के लिए गाइडलाइन बनाई है.
- अगर कोविड पॉज़िटिव व्यक्ति बिना किसी लक्षण के भी मरता है तो उसकी मौत कोविड में गिनी जाएगी
- अगर एक कोविड पॉज़िटिव मरीज़ सांस की तकलीफ़ से मर जाता है तो मौत का कारण कोविड ही लिखा जाए
- लिखा है कि अगर किसी कोविड पॉज़िटिव मरीज़ को पहले से कोई बीमारी है (co-morbidities) तो उसके सांस की तकलीफ़ से मर जाने का चांस बढ़ जाता है. मगर ऐसे मरीज़ में उसकी पूर्व बीमारी को मौत का कारण नहीं बताया जाएगा. कोविड ही मौत का कारण माना जाए
- अगर किसी व्यक्ति कि मृत्यु कोविड के टेस्ट बिना होती है या वो टेस्ट में नेगेटिव पाया जाता है पर उसमें कोविड के लक्षण पाए गए थे तो ऐसे व्यक्ति की मृत्यु को कोविड से संदिग्ध या संभावित मौत में गिना जाए

क्या हर राज्य में इस आधार पर नियम बनाए गए हैं और आधार कार्ड लेने के बाद भी गिनती हो रही है? टीका से पहले आप को-विन वेबसाइट पर आधार कार्ड का नंबर भर कर पंजीकरण कराते हैं तो उसी तरह एक वेबसाइट मरने वालों की संख्या के लिए बन सकती थी जिसमें मृतक का आधार कार्ड देकर लोग खुद से पंजीकरण कराते. संख्या अपने आप अपडेट होती रहती? बस्ती के टीचर विनोद कुमार का ही केस लीजिए. अस्पताल के पास कोविड की जांच का किट नहीं है. इलाज कोविड का हो रहा है तो डेथ सर्टिफिकेट पर क्या लिखा होना चाहिए. पंचायत में ड्यूटी केवल शिक्षक नहीं कर रहे थे. कोरोना के बीच पुलिस विभाग के लोग भी ड्यूटी कर रहे थे. ज़ाहिर है वे भी संक्रमित हुए होंगे और कुछ की जान गई होगी. तो उनके संगठनों ने शिक्षकों की तरह आवाज़ क्यों नहीं उठाई? हम नहीं जानते उनकी संख्या कितनी है? पंचायत चुनाव में शामिल दूसरे विभागों के अधिकारियों और कर्मचारियों की संख्या भी हम नहीं जानते हैं. 

बरेली के रामवीर सिंह ग्राम विकास अधिकारी थे. 47 साल की उम्र थी. पंचायत चुनाव में इनकी भी ड्यूटी लगी थी. शुरुआती लक्षण आने के बाद 14 अप्रैल को जांच कराने पर पॉज़िटिव पाए गए. बरेली के कोविड हॉस्पिटल में भर्ती कराया. दिन प्रतिदिन ऑक्सीजन लेवल गिरता गया और 17 अप्रैल की शाम आठ बजे इंतकाल हो गया. बड़ा बेटा आठवीं क्लास में है और छोटा बेटा पहली क्लास में. 

कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी ने इस मसले को ज़ोर शोर से उठाया है. उन्हें अपने कई ट्वीट में कहा है कि 1 मई को उन्होंने छह ट्वीट किए और कहा कि पंचायत चुनाव में ड्यूटी करते हुए मारे गए 1621 शिक्षकों की उप्र शिक्षक संघ द्वारा जारी लिस्ट को संवेदनहीन यूपी सरकार झूठ कहकर मृत शिक्षकों की संख्या मात्र 3 बता रही है. शिक्षकों को जीते जी उचित सुरक्षा उपकरण और इलाज नहीं मिला और अब मृत्यु के बाद सरकार उनका सम्मान भी छीन रही है.

सपा नेता अखिलेश यादव ने कहा है कि सरकार मुआवज़ा देने से बचने के लिए झूठ बोल रही है. 'उप्र की निष्ठुर भाजपा सरकार मुआवज़ा देने से बचने के लिए अब ये झूठ बोल रही है कि चुनावी ड्यूटी में केवल 3 शिक्षकों की मौत हुई है जबकि शिक्षक संघ का दिया आंकड़ा 1000 से अधिक है. भाजपा सरकार ‘महा झूठ का विश्व रिकॉर्ड' बना रही है. परिवारवालों का दुख ये हृदयहीन भाजपाई क्या जानें.'

तेलंगाना में भी विधानसभा उपचुनाव और निगम चुनावों में भाग लेने वाले 15 शिक्षकों की कोविड से मौत हुई है. तेलंगाना के युनाइटेड टीचर्स फडरेशन का बयान है कि चुनाव में भाग लेने 500 शिक्षक कोविड पोज़िटिव हुए थे. शिक्षकों की मौत केवल संख्या की लड़ाई नहीं है. एक अच्छे टीचर और एक अच्छे डाक्टर का मरना बहुत लोगों को अनाथ कर जाता है. डाक्टर के मरीज़ बेसहारा हो जाते हैं और छात्र अपने शिक्षक के खोने के साथ एक अभिभावक को खो देते हैं. इसलिए इन शिक्षकों की कहानी बताई जानी चाहिए. वो सिर्फ मरे नहीं बल्कि मरने के पहले उस व्यवस्था को देख कर त़ड़प रहे थे जो मर चुकी थी. यूपी के ढाई लाख शिक्षक जिनकी पंचायत चुनाव में ड्यूटी लगी थी, क्या अपने 1600 से अधिक सहयोगियों की मौत को सरकार आंकड़े में दर्ज करा पाएंगे? मुआवज़ा ले पाएंगे? यह निर्भर करता है कि उनके व्हाट्सएप फार्वर्ड में आईटी सेल ने कैसा मैसेज भेजा है. इन्हीं झूठे मैसेजों से नागरिकों में नफरत भरा गया. जिसके कारण वे आंकड़ों में तो नागरिक रहे लेकिन नागरिक होने का अधिकार चला गया. झूठे मैसेजों से उनकी नागरिक चेतना की हत्या तो पहले ही हो चुकी थी. अफसोस कि शिक्षकों को इस पीड़ा से गुज़रना पड़ा. सरकार कहती है तीन ही मरे वो कहते हैं 1621 मरे.