दिल्ली विश्वविद्यालय के लक्ष्मीबाई कॉलेज में हिंदी की एसोसिएट प्रोफ़ेसर नीलम का एक कविता संग्रह बीते साल आया है- 'सबसे बुरी लड़की.' संग्रह की एक कविता कुछ इस तरह शुरू होती है- 'मैं बहुत बुरी लड़की हूं / क्योंकि मैं हंसती हूं / सभ्य लड़कियां हंसती नहीं / उनकी आंखों में होती है / हया और शर्म / मेरी आंखों की हया मर गई है / क्योकि मैं खुलकर हंसती हूं / मैं बहुत बुरी लड़की हूं.'
जाहिर है, किताब के नाम के साथ ही चुनौती देती यह कवयित्री संस्कारी लोगों को चुभने लगती है. किताब के कवर पर जो तस्वीर है- वह भी शिष्ट लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाली है. नीलम के सोशल मीडिया अकाउंट को देखें तो पाते हैं कि वे सामाजिक न्याय और बराबरी की मुखर कार्यकर्ता हैं. जेएनयू से उन्होंने पढ़ाई की है और अंबेडकर को कवर पर लगाए रखा है. वे दलित साहित्य और उसकी राजनीति से भी विक्षुब्ध नज़र आती हैं और दलित वैचारिकी की क्रांतिकारी धारा में मध्यमार्गी विचलन पर असंतोष जताने में हिचकती नहीं.
यानी वे एक सचेत नागरिक हैं जिनको उनके जन्म के आधार पर परंपरा ने एक दलित पहचान दी है. बस इतने भर से उनके गुनाहों की फेहरिस्त पूरी हो जाती है. ऐसी सज़ाओं के बहुत सारे सूक्ष्म रूप हमारे समाज में न सिर्फ़ विद्यमान हैं, बल्कि ख़ूब चलन में भी हैं. लेकिन नीलम के साथ जो कुछ हुआ, वह ऐसी कोई सूक्ष्म कार्रवाई नहीं थी- उन्हें सीधे थप्पड़ लगाया गया. उन्हें उनके विभाग की एक शिक्षक ने ही थप्पड़ मारा. इसकी वजह भी हैरान करने वाली है. कॉलेज की एक बैठक के बाद विभाग की इंचार्ज चाहती थीं कि वे मिनट्स पर दस्तख़त करें. नीलम मिनट्स पढ़ने लगीं. उन्होंने कहा कि वे पढ़ कर ही दस्तखत करेंगी. इससे भड़की हुई विभागाध्यक्ष ने उन्हें चांटा मार दिया.
यह सुनी हुई घटना है. संभव है, इसमें कुछ और ऊंच-नीच रही हो. यानी हो सकता है, नीलम ने कुछ ऐसा कहा हो जिससे उनके उत्तेजित होने की वजह बनी हो. थोड़ी देर के लिए यह बात मान भी लें तो क्या बस इससे विभागाध्यक्ष को यह अधिकार मिल जाता है कि वे नीलम जी को चांटा मार दें? मान लें कि नीलम ने उनकी नज़र में कोई अनुशासनहीनता की. तो भी ऐसी अनुशासनहीनता से निबटने की एक पूरी प्रक्रिया है. वे प्रिंसिपल से शिकायत कर सकती थीं. और ज़्यादा नाराज़ होतीं- लगता कि नीलम जी ने कोई गैरक़ानूनी हरकत की है तो थाने चली जातीं- लेकिन उन्होंने अपने ही स्तर पर थप्पड़ मार कर मामला ख़त्म कर देना चाहा.
दरअसल असली बात यही थप्पड़ है जो इस पूरे विवाद को विश्वविद्यालयी अनुशासन या प्रक्रिया के दायरे से बाहर लाकर हमारे समय के सामाजिक यथार्थ के विद्रूप का आईना बनाता है. थप्पड़ वर्चस्व की कार्रवाई है, ताक़त की और आधिपत्य की. एक दौर में शिक्षक बच्चों को थप्पड़ लगाते थे या मां-बाप भी यह काम करते थे, लेकिन वे मान कर चलते थे कि छात्र या बच्चे से उनका रिश्ता बराबरी का नहीं है. वे गलत हैं तब भी बच्चा थप्पड़ नहीं मार सकता. पता नहीं, बच्चों को गुलाम समझने का यह संस्कार कहां से आया, लेकिन इसने कम से कम पिता और बच्चों के- या शिक्षक और शिष्य के- रिश्ते अरसे तक सहज-स्वाभाविक नहीं हो पाए.
लक्ष्मीबाई कॉलेज के थप्पड़ प्रकरण पर लौटें. नीलम को थप्पड़ मारने वाली शिक्षक ने क्या सोच कर यह काम किया? क्या यह संदेह बिल्कुल बेजा है कि इसके पीछे अपने उच्चवर्गीय होने का अहंकार भी रहा होगा और यह कसक भी कि कभी सामाजिक पायदान में उनसे बहुत नीचे रहने वाले लोग अब बिल्कुल बराबरी पर बात कर रहे हैं और उनके तैयार किए हुए मिनट को बिना पढ़े उस पर दस्तख़त करने को तैयार नहीं हैं? दरअसल इस मामले की उदास करने वाली सच्चाई यही है. संविधान ने जो बराबरी दी है, दलित नागरिकों ने जिसे अपनी पढ़ाई-लिखाई के माध्यम से संभव किया है, उसे समाज का एक बड़ा तबका स्वीकार करने को तैयार नहीं. उसे न शील की परवाह है और न क़ानून की. इसलिए भी कि संविधान की व्यवस्था के बावजूद जिन लोगों के हाथ में यह संविधान लागू करने की शक्ति है, जिनके पास क़ानून के अमल की ज़िम्मेदारी है, वे अपने सामाजिक पूर्वग्रहों से और अपने वर्गीय हितों से मुक्त नहीं हो पाए हैं. वे जैसे मान कर चलते हैं कि उनके पास कुछ विशेषाधिकार हैं जिनमें किसी को थप्पड़ मारने का अधिकार भी शामिल है. इस तर्क का अगला विस्तार यह है कि थप्पड़ मारना ऐसी बड़ी घटना नहीं है जिसके लिए किसी को थाना-पुलिस करना चाहिए. ऐसे मामलों को खेद जताए जाने से ख़त्म मान लिया जाना चाहिए.
इस मामले में भी यही होता नज़र आ रहा है. नीलम ने एफआईआर लिखवाई है. लेकिन एक प्रोफ़ेसर को सरेआम थप्पड़ मारने के इस मामले में अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है. जबकि इस मामले के कई चश्मदीद गवाह हैं जिनके नाम एफआईआर में उल्लेखित हैं. जबकि इसको लेकर कॉलेज के बाहर प्रदर्शन भी हो रहे हैं और सोशल मीडिया पर यह मामला उछाला भी जा रहा है. यह इस मायने में डरावना है कि अगर पुलिस दिल्ली विश्वविद्यालय की एक शिक्षक की शिकायत पर कार्रवाई करती नज़र नहीं आ रही, तो वह दूर-दराज में बैठे उन लोगों की शिकायत की क्या परवाह करती होगी जिनके पास अपनी आवाज़ नहीं है या उसे दिल्ली तक पहुंचा सकने का दम नहीं है? तो जितना ख़तरनाक यह थप्पड़ है, उससे कम ख़तरनाक इस शिकायत की अनदेखी नही है. आख़िर इसी वजह से लोग क़ानून अपने हाथ में और इंसाफ़ को अपनी जेब में लेकर चलते हैं. दिल्ली में चला थप्पड़ अनसुना रह जाता है, उना में पिटता दलित अनदेखा रह जाता है और किसी सूदूर गांव में जला दी गई दलित बस्ती इतिहास के अंधेरे में गुम हो जाती है. इस थप्पड़ में न जाने कब से चले आ रहे अन्याय की अनुगूंज है जिसे कोई सुनने के लिए आपको कुछ संवेदनशील होना होगा. नीलम की कुछ और कविता पंक्तियां इस तरह हैं- 'हमारे लोकतंत्र में / बोलना माना है / हंसना मना है /सवाल करना मना है; / बोलोगे तो-/ मार दिए जाओगे / हंसोगे तो- / गाड़ दिए जाओगे /पूछोगे तो- / जला दिए जाओगे / ये है /आज का लोकतंत्र.'
लोकतंत्र से नाउम्मीद होती इस कविता को बदलना है तो हमें कुछ अपने-आप को बदलना होगा और कुछ अपनी व्यवस्था को.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.