छठ 'हिन्दुओं' का त्यौहार नहीं है. होना भी नहीं चाहिए. त्यौहार समाज का होता है. उसमें रहने वाले सभी तरह के लोगों का. और सभी विचार-दर्शन और विश्वास के लोगों का. इसलिए छठ सम्पूर्ण बिहारियों की सांस्कृतिक विरासत है. इसमें हिन्दू भी है, मुसलमान भी, सिख भी और इसाई भी. यह त्यौहार उन बिहारियों का है जिनकी नियति में पलायन की पीड़ा है और स्मृति में अनगिनत दुख और अपमान. छठ उन्हें साल में कम से कम एक बार घर लौट आने का मजबूत कारण देता है. वे बसों में लटककर, ट्रेनों के शौचालयों में बैठकर और जीवन-जीविका को दांव पर रखकर घर आ ही जाते हैं. 'घर लौट आना' वस्तुतः जीवन के मरुस्थल में बारिश का आना है.
एक बिहारी के लिए छठ
बिहारी शब्द केवल एक गाली नहीं है, यह एक त्रासदी का भी नाम है. बिहारियों के पास इन त्रासदियों से निकलने का एक ही सहारा है- छठ. हर वर्ष उनके जीवन में बस एक बार सामूहिक आनंद का पल आता है. इस दौरान एक-एक बिहारी 'सुखी-संपन्न' महसूस करने लगता है. वह सामाजिक रूप से सुसंगठित हो जाता है और आर्थिक अभाव उसके जीवन को प्रभावित नहीं कर पाता, क्योंकि सामाजिक सहयोग अभावों से निबट लेता है.
किसी भी त्यौहार का महत्व उसके प्रतीकात्मक व्यवहारों में निहित होता है. प्रतीक एक अर्थ को देता है, जिन अर्थों से सामाजिक संरचना निर्मित होती है. और उन प्रतीकों में छुपा होता है, उस समाज के लोगों का जीवन-दर्शन. ये दर्शन उनके दैनिक क्रियाकलापों को नियमित और नियंत्रित करता है. छठ के प्रतीकात्मकता को हम निम्न तरीके से समझ सकते हैं-
छठ बड़े से बड़े संकट में भी हमें जीवन में धैर्य रखने को प्रेरित करता है.
सूर्य-उपासना
सूर्य उर्जा का प्रतीक है. यह जीवन और प्रकास का प्रतीक है. इसलिए तो कहा गया- 'तमसो माँ ज्योतिर्गमय'. लेकिन यह तो सामान्य बात हुई कि उगते सूर्य की उपासना की जाती है. छठ का पहला अर्घ्य ही डूबते सूर्य को समर्पित किया जाता है, तत्पश्चात उगते सूर्य को अर्घ्य के उपरांत छठ का समापन होता है. इसका अर्थ हुआ कि इस समाज की अंतस-चेतना में एक समावेशिता है. जीवन के शीर्ष पर पहुंचा व्यक्ति तो सम्मानित है ही, साथ ही उनके प्रति भी सम्मान जो अवसान में है. यहां तक कि पहले उनका ही सम्मान जिनकी उपयोगिता समाप्त होने को है. समाज के लिए अनुपयोगी कुछ भी नहीं, और उपयोगी कुछ भी नहीं. जो उपस्थित है, और जो अनुपस्थित है, जो है और जो नहीं है - सबके प्रति समभाव. सूर्य के डूब जाने से और सूर्य के उग आने से उसका महत्व कम नहीं होता.
पवित्रता और संयम
समाजशास्त्री दुर्खीम कहते हैं कि पवित्रता का भाव ही समाज को जन्म देता है, उसके अस्तित्व को बनाए रखता है और उसकी चेतना को पोषित करता है. पवित्रता और संयम छठ के सबसे अहम् अंग हैं. हरेक कार्य में शुद्धता रखने का प्रयास होता है. यह शुद्धता केवल शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक भी होती है. हमने अनुभव किया है कि इन दिनों सामाजिक जीवन में 'अप्रिय' माने जाने वाले व्यक्ति के प्रति भी समादर का भाव विकसित रहता है. उन दिनों दुष्कार्य से दूरी रखी जाती है. साथ ही बड़े से बड़े संकट में भी हमें जीवन में धैर्य रखने को प्रेरित करता है. एक जगह किसी ने एक तर्क रखा कि फलां राज्य के लोगों के साथ भेदभाव होता है, इसलिए वहां के अनगिनत लोग भारतीयता के साथ अपना जुडाव महसूस नहीं करते हैं, और वहां अलगाववादी शक्तियां सक्रिय होती रहती हैं, लेकिन यह तर्क अगर सही है तो बिहारी तो सदियों से सबसे अधिक उपेक्षित और अपमानित समुदाय रहा है इसके बाद भी वहां अलगाववादी शक्तियां कभी उत्पन्न नहीं हुईं.
छठ के लिए केला खरीदकर ले जाती महिलाएं.
सतत उत्पादकता
प्रकृति और पर्यावरण से युक्त होने के कारण इस पर्व की क्रियाविधियां जगत की उत्पादकता के मूल्यों को भी समाहित किए हैं. इसमें सतत विकास का भी मूल्य है जिसमें नदी, सूर्य और अनगिनत वनस्पतियों के द्वारा उसके महत्व को हर साल स्थापित करने का प्रयास होता है. नदी को पूजना और सूर्य को पूजना अंधविश्वास नहीं है, अपितु यह वह जीवन-दृष्टि है जिसमें उन तमाम चीजों के प्रति एक सम्मान का भाव है जिससे जीवन और जीविका संचालित होती है.
सामूहिकता
नदी और तालाबों के किनारे सभी लोग जब एकत्रित होकर समारोह मनाते हैं तो यह एक विशेष प्रकार की सामूहिकता का निर्माण करती है. इस सामूहिकता में न तो जातिगत या मजहबी भेदभाव है और न वर्गीय विभाजन. साथ ही इसमें कोई लैंगिक या आयुजनित विभेद भी नहीं होता. समाज अपनी संपूर्णता में मुखरित होता है.
छठ पूजा के लिए देहरादून के एक बाजार में खरीदारी करती महिलाएं.
छठ और चुनाव
इस बार का छठ विशेष है, क्योंकि पलायन किए हुए लोग केवल छठ मनाने के लिए वहां नहीं जा रहें, बल्कि सजग राजनीतिक चेतना के साथ भी जा रहे हैं. वहां एक तरफ बीजेपी और नीतीश का गठजोड़ है, दूसरी तरफ राजद का गठबंधन है. लेकिन एक तीसरी धारा भी वहां के चुनावी समर में है- जनसुराज. जनसुराज वहां और कुछ करें या न करें, लेकिन उसकी उपस्थिति वहां की पारंपरिक राजनीति में एक खलबली तो मचा ही चुकी है. राजद पर बीजेपी के द्वारा जंगलराज का आरोप है, तो बीजेपी के पास एक तरह से स्थानीय नेतृत्व का अभाव दिखता है. मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री अपनी लोकप्रियता कतिपय कारणों से खो चुके प्रतीत होते हैं. ऐसे में जनसुराज वहां एक अहम् धारा है जो सरकार में आए या न आए लेकिन सरकार के बनने-बिगड़ने में उसकी भूमिका अहम् होगी. जनता चाहती है कि जो भी सत्ता में आए वे उनके पलायन को रोके, देश में बिहारियों की छवि ठीक करे और वहां भी रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराए.
राजद के पास जो अपना पारंपरिक जाति-मजहब का मतदाता वर्ग है मुस्लिम-यादव का, उसके पूरी तरह एकजुट रहने की संभावनाएं कम दिखती हैं. चुनाव में जाति-मजहब का प्रयोग नहीं होगा ऐसा कहना सही नहीं है. फिर भी इस बार का चुनाव केवल जाति-मजहब के आधार पर नहीं होने वाला- आर्थिक मुद्दे भी केंद्रीय मुद्दे होंगे. लोग तंग आ चुके हैं पलायन, बेकारी और अपमान से. छठ के उपरांत मनाया जायगा लोकतंत्र का उत्सव. यह चुनाव ऐतिहासिक होगा- जो बिहार और देश की राजनीति के कई दशकों को प्रभावित करता रहेगा.
डिस्क्लेमर: रंधीर कुमार गौतम, ग्वालियर के एक कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. केयूर पाठक इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी विचार हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.














