अपनी किताब 'पलायन से पहले' के लिए मशहूर हुए कवि-लेखक अनिल कार्की की किताब 'महासीर के मुलुक से' का पहला संस्करण इसी साल देहरादून के 'समय साक्ष्य' प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. धर्मेंद्र सिंह का तैयार किया हुआ आवरण चित्र शानदार है. किताब पढ़ने के लिए पाठक की जिज्ञासा पैदा करने में कामयाब रही है. यह किताब उत्तराखंड के ही पहाड़ों में पैदा हुआ लेखक के जीवन अनुभवों, सामाजिक सरोकारों और पर्यावरणीय संकटों को सामने लाती है. जिसमें पहाड़, नदियां, कलाकार और शिक्षा व्यवस्था तक की तस्वीर दर्ज है.
पहाड़ की बोली और मोतीराम का दर्द
किताब में उत्तराखंड से जुड़े कई रोचक किस्से हैं, जिन्हें लेखक अनिल कार्की ने संदर्भ सहित प्रस्तुत किया है. पहाड़ के रहन-सहन का विवरण भी सहजता से शामिल है 'पहाड़ों में गैर अभिजातीय परिवारों में मेहमान के आने पर मांस बनाना मेहमान का सम्मान माना जाता है.' मोतीराम की कहानी के जरिए लेखक ने पहाड़ के कलाकारों को हाशिए पर रखे जाने की सच्चाई प्रस्तुत की है. उनका 'छलिया' (लोक नृत्य) को सांस्कृतिक मजदूरी कहना इसका उदाहरण है 'मोतीराम गांव-गांव भटका और कहीं किसी ठौर-ठिकाना नहीं दिया.'
किताब में पहाड़ के स्कूलों की दयनीय स्थिति और सामाजिक चिंतन भी स्पष्ट है 'सरकारी स्कूल में केवल दलित बच्चे पढ़ते हैं, ऐसा मुझे बड़ों ने बताया था. मैंने जब बच्चों से पूछा कि…' लेखक प्राइवेट स्कूल और उसके बगल के प्राइमरी स्कूल की तुलना भी करते हैं. सामाजिक मान्यताओं पर सवाल उठाते हुए लेखक लिखते हैं 'मुहल्ले में कुछ लोगों की प्रबल धारणा थी कि सुबह-सुबह काले बिल्ले को देखने से उनका दिन खराब जाता है.' इस तरह लेखक पहाड़ के अंधविश्वास और सामाजिक असमानताओं को उजागर करते हैं.
हाशिए के जानवरों की कहानी
भेड़ और कमजोर जानवरों को लेकर लेखक कई गंभरी सवाल उठाते हैं, जो हिंदी साहित्य के लिए महत्वपूर्ण हैं 'मुख्य धारा का लेखन देखते हैं तो बकरी के बच्चों या भेड़ों के लिए हास्यास्पद और क्रूर रूपक मिलते हैं.' कहानी 'बड़े भैया' के माध्यम से पाठक जानवरों के प्रति संवेदनशील होते हैं और लेखक की किस्सागोई से प्रभावित भी होते हैं. लेखक ने पाठकों को सोचने पर मजबूर किया है कि हमारी संवेदनाएं अक्सर इंसानों तक तो पहुंचती हैं, लेकिन कमजोर पशुओं के प्रति नहीं.
महासीर और नदियों के नाम लिखे खत
किताब के शीर्षक वाला किस्सा पर्यावरण से जुड़ा और सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है. संरक्षित 'महासीर' मछली के घटते जाने पर लेखक लिखते हैं 'डायनामाइट, ब्लीचिंग पाउडर, दीमकों को मारने वाले जहरीले रसायन, दो अंगुल से पतली नायलॉन की जाल, करेंट आदि तरीकों से हिमालय की सभी नदियां और उनके जीव त्रस्त हैं.' लेखक नदी को अपनी दादी मानते हैं और पत्र लिखते हैं
('प्रिय आमा, पूर्वी राम गंगा!')
इसमें नदियों के खत्म होने के लगभग सभी कारणों का उल्लेख है. लेखक ने इस पत्र के माध्यम से सिस्टम पर भी सवाल खड़े किए 'क्या डाइनामाइट से ठेकेदार मच्छी नहीं मारते या कि क्या रेता खनन से मछली के जीरे नही मरते?' इस तरह पाठक नदियों पर सोचने का नया नजरिया प्राप्त करते हैं.
लेखक ने शिक्षक के छात्र के जीवन में प्रभाव पर भी लिखा 'जिनकी क्रूरता की छाया ताउम्र मेरा पीछा करती रही. बाद के वर्षों में कुछ बेहतरीन शिक्षक नहीं मिलते तो शायद मैं उसी अंधकार में खो जाता, जिस अंधकार में उनके अन्य शिष्य खो गए.' हाल ही में हुए उत्तराखंड के आंदोलन और नदियों पर मंडराते खतरे का विवरण भी प्रस्तुत है. लेखक ने इन घटनाओं को पर्यावरणीय संकट और सामाजिक असमानता से जोड़ा है, जिससे किताब समय की सच्ची गवाही बन जाती है.
बेढब रास्तों का सफर और लेखक की जिद
किताब पढ़ना एक आम हिंदी पाठक के लिए शुरू में थोड़ा मुश्किल हो सकता है, क्योंकि लेखक की जीवन संबंधी यथार्थवादी बातें समझने में समय लगेगा. जैसे लेखक लिखते हैं 'जीवन भी ऐसा ही बेढब रास्ता है. जिस रास्ते में खूब बातें करने वाले साथी होने ही चाहिए. अगर न हों तो यात्राएं और जीवन भी बड़ा नीरस हो जाता है.'
इसी कड़ी में उनके निजी अनुभव कभी-कभी पाठकों को बोझिल भी लगने लगते हैं, जैसे 'मैं बहुत सारे रिश्तों और रास्तों में फिर कभी नहीं लौटा क्योंकि मैं उन्हें विदा कह चुका था.' वहीं एक तरफ लेखक के निजी अनुभव लेखकीय आजादी पर भी गहरा विमर्श रखते हैं 'इसलिए अपने स्टैण्ड से किसी हाल में समझौता करना मेरे लिए मुमकिन नहीं.' किताब में एक-दो जगह मात्राओं की त्रुटि भी दिखती हैं, जैसे पृष्ठ 88 में 'वजह' को 'वहज' लिख दिया गया है, जो अगले संस्करण में सुधारी जा सकती हैं. पर्यावरण संरक्षण और उत्तराखंड की जानकारी बढ़ाने के इच्छुक लोग इसे अवश्य पढ़ सकते हैं.
अस्वीकरण: इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं, उससे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.