अपने देश में गल्प-कथाओं और अटकलबाजियों का जितना सकल घरेलू उत्पादन होता है, उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा क्रिकेट के मैदान से आता है. क्रिकेट की चर्चा में तूफानी पारियों, अद्भुत शॉट या हैट्रिक की चर्चा होना तो लाजिमी ही है. मजे की बात ये कि गपबाजी में किसी न किसी खिलाड़ी के संन्यास को लेकर चटकारा लिया जाना भी अब रुटीन का हिस्सा हो चला है. गनीमत बस इतनी-सी है कि कोई खिलाड़ी पब्लिक-डिमांड पर संन्यास का फैसला नहीं करता. अगर पब्लिक के चाहने से संन्यास होने लगे, तो शायद क्रिकेट को अपना नाम बदलना पड़ जाए!
रोहित-विराट की विदाई
टेस्ट क्रिकेट से रोहित शर्मा और विराट कोहली के संन्यास से सबका मन भारी है. कहा तो ये जा रहा है कि रोहित और विराट ने 'अचानक' ही संन्यास ले लिया, लेकिन ये 'अचानक' क्या चीज है? गपोड़िए तो कब से सबके कान खड़का रहे थे. कोई इनके बल्ले और रन के बीच तालमेल बिगड़ने की बात कह रहा था. कोई मैदान पर बॉडी लैंग्वेज का हवाला देकर अनुमान लगा रहा था. कोई निजी कारणों से, कोई व्यावसायिक कारणों से, कोई फलां कारणों से संन्यास की अटकलें लगा रहा था. वह भी कई महीनों से.
अब इन अटकलों को कभी न कभी तो सच होना ही था, सो हो गया, लेकिन पब्लिक का क्या? वह तब भी बेचैन भी, अब भी है. अब सबको संन्यास के पीछे की कुछ इनसाइड स्टोरी भी चाहिए. कोई बता रहा है कि रोहित इंग्लैंड जाने को भी तैयार बैठे थे. 'धोनी स्टाइल' में टेस्ट से संन्यास लेना चाहते थे, पर बोर्ड ने ही मना कर दिया. पता नहीं, सात परदों में ढकी बातें लीक कौन करता है? जो भी हो, अब शुरू हो गई नई बहस...
आगे किसकी बारी?
दरअसल, क्रिकेट का कोई ऐसा दौर खोजना मुश्किल है, जिसमें किसी न किसी खिलाड़ी के संन्यास की अटकल न चल रही हो. चाहे तो कोई खिलाड़ी संन्यास की ओर धीरे-धीरे कदम बढ़ा रहा होता है, चाहे एकदम संन्यास की बाउंड्री-लाइन पर खड़ा होता है. अगर नहीं, तो कम से कम पब्लिक जरूर किसी न किसी को संन्यास लेने का सुझाव दे रही होती है.
कोई शक हो, तो महान सुनील गावस्कर, कपिल देव, सौरव गांगुली, राहुल द्रविड़, सचिन तेंदुलकर, वीरेंद्र सहवाग से लेकर हाल के दशक की कहानी उठाकर देख लीजिए. खिलाड़ी एकाध मैच में, एकाध सीरीज में 'आउट ऑफ फॉर्म' हुआ नहीं कि खुसुर-फुसुर चालू. पब्लिक इनके फुटवर्क भी देखती है, टेक्निक भी. मानसिक थकान भी पढ़ती है, हौसला भी मापती है. और तो और, किसका अपनी फ्रेंड से झगड़ा चल रहा है, कौन-किसके साथ चौपाटी-जुहू घूमने गया, सबका डिजिटल दस्तावेज तैयार मिलता है!
पब्लिक माने क्या? आप और हम. बस चांस मिलने की बात है. अगर चांस मिले, तो हममें से कई बेहतरीन अंपायर साबित हों. संभावनाएं तो क्रिकेट कोच, फिटनेस एक्सपर्ट, पर्सनल एडवाइजर या (डि)मोटिवेशनल स्पीकर बनने की भी हैं. यह और बात है कि खिलाड़ी हमारी सुनते ही कहां हैं?
सूर्यवंशी का 'तुक्का'!
अब जरा ताजा मामला देखिए. रोहित-विराट के तूफानी स्टाइल के बीच, देखते ही देखते क्रिकेट के आसमान में एक नया सितारा चमका- वैभव सूर्यवंशी. पहले तो सबसे कम उम्र में आईपीएल-डील पाने का रिकॉर्ड. इसके बाद आईपीएल के मौजूदा सीजन में मैदान पर धांसू रिकॉर्ड. महज 14 साल का लड़का मेंस टी20 क्रिकेट में सबसे कम उम्र का शतकवीर बना. ये आईपीएल के इतिहास का दूसरा सबसे तेज शतक (35 गेंद) भी रहा. लेकिन ये क्या? अगले दो मैचों में उसका स्कोर रहा- 0 और 4.
बस, गपोड़ियों के पास धीरज कहां? इतना मसाला काफी था. कई तो पूछने भी लगे- सूर्यवंशी का शतक कहीं तुक्का तो नहीं था? क्या थम जाएगा सूर्यवंशी का सफर? पूछने वालों में कई ऐसे भी रहे होंगे, जिन्होंने कभी तुक्के से 25 रन भी न जुटाए हों, 25 बॉल भी न झेले हों. कमाल है! तुक्के से लगातार 6 छक्के लगना संभव है, लगातार 6 चौके लगना संभव है, लेकिन तुक्के से शतक? वह तो अच्छा हुआ कि लड़के ने आगे के मैचों में सबकी बोलती बंद कर दी. क्या पता, अगर कोई फूहड़ किस्म का रियलिटी शो होता, तो पब्लिक उसे वापस घर भेजने के लिए वोटिंग कर देती!
पार्ट-पार्ट में संन्यास
दरअसल, क्रिकेट जैसे खेल की वजह से ही लोगों का संन्यास के प्रति डर-संकोच थोड़ा खत्म हुआ. नहीं तो संन्यास का मतलब पहले कुछ और हुआ करता था. पहले 'संन्यास' कहते थे, किसी चीज को पूरी तरह त्याग देने को. पूरी तरह परे रख देने को. 'गीता' कहती है कि फल-प्राप्ति की इच्छा का त्याग ही संन्यास है. इसी तरह, 'संन्यासी' शब्द के बारे में गीता में कहा गया है कि जो द्वेष नहीं करता, भोगों की कामना भी नहीं करता, उसे संन्यासी समझना चाहिए. माने, इस तरह का संन्यास सबके बस की बात नहीं.
भला हो क्रिकेट का, जहां हर फॉर्मेट में अलग-अलग, पार्ट-पार्ट में संन्यास लेने की सुविधा बरकरार रहती है. यह एक लंबी चलने वाली प्रक्रिया है. कई बार दशकों तक चलती रहती है. एक ही झटके में बैट-बॉल-पैड छज्जे पर डालने की कोई मजबूरी नहीं. सहूलियतें भी इतनी कि सारे फॉर्मेट से हटने के बाद भी ऐड साइन करने में कोई दिक्कत नहीं. हो भी क्यों, ये ही तो हमारे रोल मॉडल हैं. इनके बिना तो हम ये भी न जान पाएं कि कौन-सा अंडरगारमेंट ज्यादा कम्फर्टेबल है, कौन कम!
संन्यास और राजनीति
संन्यास का नया स्टाइल राजनीति के रास्ते क्रिकेट में आया या क्रिकेट के रास्ते राजनीति में, यह कहना मुश्किल है. वजह ये कि अपने यहां खेल और राजनीति की जड़ें आपस में गहराई से जुड़ी हैं. दोनों को अलग-अलग करके देखने का विचार किसी के मन में नहीं आता. यहां तक कि संन्यास के तौर-तरीके भी मिलते-जुलते मालूम पड़ते हैं.
एक मंजा हुआ सियासतदान शायद ही कभी एक झटके में राजनीति से संन्यास लेता हो. जब मंत्री पद से छुट्टी हो जाए, संगठन मजबूत कीजिए. एक पार्टी से जी भर जाए, दूसरी में चले जाइए. एक में भाव गिरने लगे, दूसरी में जाकर भाव खा लीजिए. एक पार्टी से टिकट मिलना मुश्किल हो जाए, दूसरी से बात कर लीजिए. क्या पता, सामने वाली पार्टी भी किसी पैराशूट उम्मीदवार की तलाश में हो. शर्त्त बस इतनी-सी है कि यहां भी कद और वजन के हिसाब से ही कुर्सी मिलती है. क्या यह सब आईपीएल में नहीं होता? हां, फर्क यह है कि राजनीति में आईपीएल की तरह खुलेआम बोली लगाने की परिपाटी कभी नहीं रही है!
कुल मिलाकर, 'संन्यास' शब्द अब पहले जितना संवेदनशील नहीं रह गया. अब यह रोमांचकारी हो चला है. पब्लिक बिन मांगे अपना सजेशन देती रहती है. खिलाड़ी धड़ाधड़ नए-नए कॉन्ट्रैक्ट साइन करते चले जाते हैं. क्रिकेट का रोमांच सबके सिर के ऊपर से होता हुआ स्टेडियम के पार चला जाता है.
अमरेश सौरभ वरिष्ठ पत्रकार हैं... 'अमर उजाला', 'आज तक', 'क्विंट हिन्दी' और 'द लल्लनटॉप' में कार्यरत रहे हैं...
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.