बिहार चुनाव 2025: तेजस्वी यादव के राजनीतिक भविष्य पर ग्रहण

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डॉ. नीरज कुमार

बिहार की राजनीति में तेजस्वी यादव एक बड़ा चेहरा हैं. राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के युवा नेता के रूप में उनकी पहचान मजबूत है. वे बिहार का मुख्यमंत्री रह चुके लालू प्रसाद यादव और रबड़ी यादव के बेटे हैं. लेकिन बिहार विधानसभा चुनाव के जो रूझान उनकी मजबूत नेता वाली छवि को कमजोर बना रहे हैं. यह तीसरा चुनाव है, जब तेजस्वी के नेतृत्व में राजद हार गई है. इस चुनाव में आरजेडी अपनी अबतक की दूसरी सबसे बड़ी हार की ओर बढ़ रही है. इससे पार्टी के नेता के रूप में तेजस्वी यादव का भविष्य भी अंधकारमय होता हुआ दिख रहा है. 

बिहार की आबादी में 14 फीसदी का हिस्सा रखने वाले यादव आरजेडी का कोर वोट बैंक हैं. लेकिन विधानसभा चुनाव के रूझानों और राजनीतिक चर्चाओं से संकेत मिल रहा है कि यादव समुदाय का एक बड़ा हिस्सा उन्हें अब अपना नेता मानने से कतरा रहा है. यह धारणा कई कारकों से उपजी है, इनमें जातिगत राजनीति, पार्टी की रणनीति, परिवारिक विवाद और सामाजिक छवि शामिल हैं. बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के रूझान से यह स्पष्ट हो गया है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन एक बार फिर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने जा रहा है. वहीं दूसरी ओर तेजस्वी यादव के नेतृत्व में महागठबंधन परास्त हो गया है.

इस चुनाव में तेजस्वी का क्या-क्या था दांव पर

इस चुनाव में सबसे बड़ा दांव तेजस्वी यादव के राजनीतिक नेतृत्व और उनके राजनीतिक कौशल पर लगा हुआ था. तेजस्वी के समक्ष की चुनौतियां थीं, जैसे लालू यादव की विरासत को आगे बढ़ाना, पारिवारिक राजनीति को संतुलित रखना, यादव वोट बैंक में अपनी राजनीतिक स्वीकार्यता को बनाए रखना और बिहार के युवाओं में राजद की जंगल राज वाली छवि से मुक्त होना, लेकिन वो इन सभी चुनौतियों को साध पाने में नाकाम रहे हैं.

उपरोक्त संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में अगर तेजस्वी यादव कि राजनीति का मूल्यांकन किया जाए तो उनके समर्थकों को निराश हाथ लगेगी. ऐसा इसलिए नहीं कि बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में उनके नेतृत्व में राष्ट्रीय जनता दल को हार का सामना करना पड़  रहा है, बल्कि इससे पूर्व लोकसभा चुनाव में भी राजद के चुनाव अभियान का नेतृत्व भी उनके ही हाथ में था. उस चुनाव में राजद केवल चार सीटें ही जीत पाई थी. इस चुनाव में तेजस्वी यादव कि राजनीति का एक अंतर्विरोध उभरकर सामने आया कि एक तरफ वो अपराधमुक्त राजनीति कि बात करते हैं तो दूसरी तरफ 76 फीसदी टिकट आपराधिक छवि वाले नेताओं को देते हैं. इस चुनाव में जिस प्रकार राजद पर टिकट बांटने में धांधली का आरोप लगा, इससे उनकी छवि को भी गहरा धक्का लगा है. मोकामा सीट पर वो पहले कलम बांटने का नारा लगा रहे थे, लेकिन अचानक से अनंत सिंह जैसी ही छवि रखने वाले सूरजभान सिंह कि पत्नी को टिकट दे देते हैं. 

बिहार विधानसभा चुनाव की मतगणना के रूझानों के बाद पटना में प्रदर्शन करता एक जेडीयू समर्थक.

क्या टूटेगा यादवों का भरोसा 

लालू यादव के बाद यादव समुदाय में एक छटपटाहट देखी जा सकती है, क्योंकि बिहार में लालू यादव ने राज्य का यादवीकरण किया. इस वजह से यादव समाज में नई आकांक्षाओं और चेतना का विकास हुआ. नए यादव क्षत्रपों का उदय हुआ. लेकिन राजद और लालू के कमजोर होने के बाद ये क्षत्रप अब उनके पारिवारिक वर्चस्व को चुनौती देने लगे हैं. पिछले कुछ सालों में रामकृपाल यादव, प्रह्लाद यादव,नित्यानंद राय  और पप्पू यादव जैसे यादव नेता बिहार की राजनीति में अपनी जगह सुनिश्चित करने में लगे हैं. हालांकि, इस चुनाव में तेजस्वी यादव के 143 उम्मीदवारों में 50 से ज्यादा यादव थे. इसके बाद भी यादव समाज के एक मात्र नेता के रूप में उनकी स्वीकार्यता अब संघर्ष करती हुई नजर आ रही है. पिछले लोकसभा चुनाव में ही देखा गया था कि तेजस्वी अपना वोट बैंक सहयोगी दल को ट्रांसफर करवाने में नाकाम साबित हुए.ऐसे में इस चुनाव के बाद यादव अपने नए नेता की तलाश तेज कर सकते हैं.

जातिगत समीकरण का उल्टा असर

बिहार की राजनीति जाति पर टिकी है. आरजेडी का वोट बैंक मुख्य रूप से मुस्लिम-यादव (MY) समीकरण पर निर्भर है, लेकिन 2025 चुनाव में यादव उम्मीदवारों की अधिकता ने 'यादव राज लौटेगा' जैसा डर समाज में पैदा किया. इससे न केवल राजद से पिछड़ी जातियां (ईसीबी-ओबीसी) दूर हुईं, बल्कि यादव समाज में भी असंतोष बढ़ा. जैसे तेजस्वी ने कर्पूरी ठाकुर की जयंती पर यादवों को 'सुधरने' की नसीहत दे डाली. इसे यादवों ने 'नीचा' दिखाने जैसा माना. 

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लालू परिवार की कलह

लालू यादव के बड़े बेटे तेज प्रताप यादव का विद्रोह यादव समुदाय के लिए एक बड़ा झटका साबित हुआ. वे यादव बहुल सीटों (जैसे महुआ, मोहिउद्दीननगर) पर उम्मीदवार उतारकर आरजेडी का वोट काट रहे थे. यह फूट समुदाय को 'विभाजित' दिखाती है. इसका परिणाम यह हुआ कि कई यादव मतदाता तेज प्रताप को लालू का असली उत्तराधिकारी मानने लगे. तेज प्रताप ने तेजस्वी को 'झुनझुना' कहकर सार्वजनिक रूप से अपमानित किया. उनका यह बयान सोशल मीडिया पर वायरल हुआ.

विरासत का बोझ

लालू यादव के दौर में यादवों का सशक्तिकरण हुआ, लेकिन अपराध और भ्रष्टाचार (जैसे चारा घोटाला) की छवि बनी रही. तेजस्वी को इससे जोड़कर देखा जाता है. समुदाय के शिक्षित/युवा हिस्से उन्हें 'पुरानी राजनीति' का प्रतिनिधि मानते हैं. रेडिट जैसी चर्चाओं में यादव यूथ खुद कहते हैं, 'जातिवाद से ऊपर उठो, लेकिन तेजस्वी जैसे अनपढ़ नेता को मत चुनो.'

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मतगणना के रूझानों में तेजस्वी यादव अपनी सीट राघोपुर में 12 राउंड की गिनती के बाद पीछे चल रहे थे.राघोपुर एक यादव बहुलता वाली सीट है. वहां के रूझान दिखाते हैं कि यादवों में उनकी अस्वीकृति बढ़ रही है. युवा मतदाता नौकरी-केंद्रित एजेंडे को किनारे रखकर नीतीश कुमार की 'सुशासन'वाली छवि के साथ हो लिए हैं.

यह कहा जा सकता है कि यादव तेजस्वी को 'परिवार का प्रतिनिधि' तो मानते हैं, लेकिन यादवों के नेता के रूप में उन्हें अभी स्वीकार करने को तैयार नहीं दिख रहे हैं. यह ट्रेंड जातिगत एकजुटता के बजाय विभाजन, पुरानी छवि और रणनीतिक असफलताओं की वजह से उपजा है. बिहार में आई एनडीए की सुनामी इसकी तस्दीक करते हैं.

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डिस्क्लेमर: डॉ नीरज कुमार बिहार के वैशाली स्थित सीवी रमन विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान पढ़ाते हैं. लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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