भारत और तालिबान: यथार्थवाद, जोखिम और नई कूटनीतिक शुरुआत

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डॉ. मनीष दाभाडे

अफगानिस्तान के कार्यवाहक विदेश मंत्री अमीर खान मुत्ताकी की 9–10 अक्तूबर को भारत यात्रा दक्षिण एशिया की बदलती कूटनीतिक वास्तविकता का निर्णायक क्षण है. यह अगस्त 2021 में तालिबान के सत्ता में आने के बाद पहली उच्चस्तरीय अफगान यात्रा है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा मुत्ताकी पर 2001 से लगे यात्रा प्रतिबंध को अस्थायी रूप से हटाना अपने आप में यह संकेत है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय धीरे-धीरे तालिबान को क्षेत्रीय वास्तविकता के रूप में स्वीकार कर रहा है. भारत और अफगानिस्तान दोनों के लिए यह दौरा नई शुरुआत और नए संतुलन की खोज का प्रतीक है, एक तरफ भारत के लिए यह यथार्थवाद का कदम है, तो दूसरी ओर तालिबान के लिए यह राजनयिक अलगाव को तोड़ने का प्रयास है.

भारत के लिए तालिबान से संवाद कोई वैचारिक विचलन नहीं, बल्कि भू-राजनीतिक आवश्यकता है. बीते दो दशकों में भारत ने अफगानिस्तान में तीन अरब डॉलर से अधिक का निवेश किया है- सड़कों, अस्पतालों, संसद भवन और शिक्षा में. लेकिन 2021 के बाद अफगानिस्तान फिर आतंकवादी ठिकानों और क्षेत्रीय अस्थिरता का केंद्र बनने का खतरा बना. पाकिस्तान और चीन के बढ़ते प्रभाव ने भारत को यह सोचने पर मजबूर किया कि दूरी बनाकर रखना स्वयं के हितों को नुकसान पहुंचाना होगा. तालिबान के लिए भी भारत से संवाद जरूरी है- क्योंकि पाकिस्तान के साथ उसके रिश्ते अब उतने सहज नहीं रहे और चीन का आर्थिक प्रभाव भी सीमित है. इसलिए यह यात्रा दोनों के लिए व्यावहारिक यथार्थवाद का परिणाम है. भारत सुरक्षा और स्थिरता चाहता है और तालिबान वैधता और सहयोग की तलाश में है.

अफगानिस्तान पर भारत की नीति

इस यात्रा का मुख्य एजेंडा विकास सहयोग, मानवीय सहायता, व्यापारिक संपर्क और सुरक्षा आश्वासन है. तालिबान सरकार गंभीर आर्थिक संकट में है, खाद्य सामग्री, दवाइयों और ऊर्जा की भारी कमी है. भारत अब तक 50 हजार टन गेहूं, सैकड़ों टन दवाइयां और भूकंप प्रभावित इलाकों में राहत सामग्री भेज चुका है. अफगान पक्ष भारत से स्वास्थ्य, कृषि और ऊर्जा ढांचे में मदद की उम्मीद रखता है. भारत की नीति साफ है, उसकी सहायता अफगान जनता के लिए है न कि किसी शासन की मान्यता के लिए. यह 'मानवीय कूटनीति' भारत की सॉफ्ट पावर का आधार भी है- जहां वह नैतिक रुख बनाए रखते हुए अपने हितों की रक्षा करता है.

व्यापार और संपर्क के मोर्चे पर भी दोनों पक्षों के हित मिलते हैं. लैंड लॉक्ड अफगानिस्तान के लिए ईरान का चाबहार बंदरगाह, जिसे भारत ने विकसित किया है, समुद्र तक पहुंच का वैकल्पिक मार्ग है, जो पाकिस्तान को दरकिनार करता है. यदि तालिबान इस परियोजना से जुड़ता है, तो वह न केवल इस्लामाबाद की आर्थिक पकड़ से मुक्त होगा बल्कि मध्य एशिया और भारत के बीच नए व्यापारिक गलियारों को भी सशक्त करेगा. अमेरिका द्वारा ईरान पर लगाए गए प्रतिबंधों ने इस परियोजना को धीमा किया था, लेकिन अब तालिबान स्वयं इस मार्ग के उपयोग में रुचि रखता है. भारत के लिए यह एक रणनीतिक अवसर है. काबुल को क्षेत्रीय आर्थिक ढांचे में जोड़ना और पाकिस्तान को हाशिए पर धकेलना.

क्या तालिबान सरकार को आधिकारिक मान्यता देगा भारत

दूतावासों और राजनयिक प्रतिनिधित्व पर भी चर्चा संभव है. 2021 के बाद भारत ने काबुल में अपने दूतावास को 'तकनीकी टीम' के रूप में सीमित स्तर पर पुनः खोला, जबकि दिल्ली में अफगान दूतावास 2023 में बंद हो गया. मुत्ताकी इस यात्रा में भारत से तालिबान-नियुक्त राजदूत को स्वीकार करने और मुंबई व हैदराबाद में वाणिज्य दूतावासों के पुनः संचालन की अनुमति मांग सकते हैं. भारत संभवतः इसे औपचारिक मान्यता दिए बिना व्यावहारिक रूप में स्वीकार कर सकता है कूटनीति का यह 'डि फैक्टो' चरण सावधानीपूर्वक रिश्ते सुधारने की दिशा में कदम होगा.

सुरक्षा का प्रश्न सबसे जटिल किंतु सबसे अहम रहेगा. भारत यह सुनिश्चित करना चाहता है कि अफगान भूमि से कोई आतंकवादी संगठन जैसे जैश-ए-मोहम्मद या लश्कर-ए-तैयबा, भारत विरोधी गतिविधि न करे. तालिबान द्वारा हाल ही में पहलगाम आतंकी हमले की निंदा और पाकिस्तान के झूठे आरोपों को खारिज करना भारत के लिए सकारात्मक संकेत है. तालिबान और भारत दोनों इस्लामिक स्टेट खुरासान (ISIS-K) जैसे समूहों को साझा खतरे के रूप में देखते हैं. यदि दोनों पक्ष इस साझा चिंता को ठोस सहयोग में बदल सकें, तो यह दक्षिण एशिया में आतंकवाद-निरोध की नई शुरुआत होगी.

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अफगानिस्तान में 2021 में तालिबान के वापसी के बाद विदेश मंत्रालय में संयुक्त सचिव जेपी सिंह ने जून 2022 में अमीर खान मुत्ताकी से मुलाकात की थी. यह तालिबान के साथ भारत का पहला आधिकारिक संवाद था.

अविश्वास की खाई को भरेंगे भारत और अफगानिस्तान

भारत और तालिबान के रिश्तों का इतिहास कटु रहा है. 1990 के दशक में भारत ने उत्तरी गठबंधन का समर्थन किया और तालिबान के प्रति खुली विरोधी नीति अपनाई. 1999 में कंधार विमान अपहरण और 2008 में काबुल में भारतीय दूतावास पर बम धमाके ने दोनों के बीच गहरी अविश्वास की खाई पैदा कर दी थी. भारत ने 2001 के बाद नवनिर्मित अफगान गणराज्य में व्यापक निवेश किया और तालिबान को 'पाकिस्तानी कठपुतली' मानकर नकारा. लेकिन 2021 में अमेरिकी के वापस लौटने और काबुल के पतन के बाद भारत के पास विकल्प सीमित थे. उसने नैतिक आग्रहों से ऊपर उठकर यथार्थवादी नीति अपनाई. 2022 में तकनीकी टीम के नाम पर काबुल में अपनी उपस्थिति बहाल की, राहत सामग्री भेजी और 2023-24 में मुत्ताकी और अन्य नेताओं से संवाद शुरू किया. मई 2025 में एस जयशंकर और मुत्ताकी के बीच टेलीफोन पर हुई बातचीत भारत के किसी विदेश मंत्री और तालिबान नेता के बीच पहली बातचीत थी. यह इस नए अध्याय की औपचारिक घोषणा थी.

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इस बदलाव की पृष्ठभूमि में पाकिस्तान की भूमिका कमजोर पड़ी है. तालिबान, जिसे कभी पाकिस्तान ने अपने 'रणनीतिक गहराई' के साधन के रूप में पाला था, अब इस्लामाबाद की बात मानने को तैयार नहीं. उसने पाकिस्तान तालिबान (टीटीपी) को पनाह दी है, ड्यूरंड रेखा को सीमा मानने से इनकार किया है और कई बार सीमा संघर्ष में पाकिस्तानी सेनाओं को चुनौती दी है. पाकिस्तान की पनाह में पले हुए तालिबान अब उसी के लिए चुनौती बन गए हैं. भारत ने इसी दरार को अवसर में बदला है. मुत्ताकी की यह भारत यात्रा, जिसे पहले पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र में रोक दिया था, अब संभव हो सकी क्योंकि तालिबान ने पाकिस्तान की अनुमति की परवाह करना छोड़ दिया. इस्लामाबाद के लिए यह कूटनीतिक झटका है.

पाकिस्तान की चिंताएं गहरी हैं. वह भारत-अफगान निकटता को अपनी सुरक्षा नीति के लिए खतरा मानता है. अफगानिस्तान का चाबहार पोर्ट का उपयोग और भारत के साथ सहयोग उसके भौगोलिक व आर्थिक प्रभाव को कमजोर करता है. उसे डर है कि यह संबंध बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा में विद्रोही आंदोलनों को बल दे सकता है. हाल ही में पाकिस्तान ने हजारों अफगान शरणार्थियों को जबरन निकाला, जिससे तालिबान सरकार और जनता में भारत के प्रति सहानुभूति बढ़ी. परिणामस्वरूप पाकिस्तान का 'रणनीतिक गहराई' का सिद्धांत स्वयं उसकी कमजोरी बन गया है.

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अवसर और जोखिम में से किसे चुनेगा भारत

भारत के लिए यह परिस्थिति अवसर भी है और जोखिम भी. तालिबान से संवाद में आदर्शवाद और यथार्थवाद के बीच सूक्ष्म संतुलन बनाना होगा. घरेलू स्तर पर सरकार को कट्टरपंथी शासन से संपर्क के नैतिक प्रश्नों से जूझना पड़ सकता है, लेकिन क्षेत्रीय दृष्टि से यह अनिवार्य है. अफगानिस्तान में उपस्थिति बनाए रखना, आतंकवाद के खिलाफ मोर्चा मजबूत करना और मध्य एशिया के लिए पहुंच के नए मार्ग खोलना भारत के दीर्घकालिक हित हैं. यदि भारत पीछे हटता है, तो यह शून्य पाकिस्तान और चीन भरेंगे.

इस पूरी कूटनीति की नींव मानवीय चिंता पर भी टिकी है. तालिबान शासन के चार सालों में अफगान समाज भुखमरी, बेरोजगारी और स्त्री अधिकारों के दमन से जूझ रहा है. भारत ने बिना किसी शर्त के राहत भेजी—खाद्य सामग्री, दवाइयां, टेंट, और छात्रवृत्तियां. यह सहायता न केवल पीड़ा कम करती है, बल्कि भारत की नैतिक छवि को भी सुदृढ़ करती है. वह यह संदेश देती है कि संवाद का अर्थ समर्थन नहीं, बल्कि जिम्मेदारी है. मानवीय कूटनीति इस पूरे प्रयास का सबसे प्रभावी आयाम है- जहां भारत सहानुभूति को रणनीति में बदलता है.

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इस साल आठ जनवरी को विदेश सचिव विक्रम मिसरी ने दुबई में अफगानिस्तान के कार्यवाहक विदेश मंत्री अमीर खान मुत्ताकी से मुलाकात की थी.

मुत्ताकी की यात्रा दक्षिण एशिया में क्या बदलाव लाएगी

मुत्ताकी की यह यात्रा केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि एक भू-राजनीतिक प्रयोग है. यह भारत की विदेश नीति में उभरे नए यथार्थवाद का प्रतीक है, जहां आदर्शों से अधिक महत्व स्थिरता और हितों को दिया जाता है. तालिबान भी अब यह समझ चुका है कि पाकिस्तान पर निर्भरता उसकी संप्रभुता को कमजोर करती है, जबकि भारत से संवाद उसकी वैधता को बढ़ाता है. दोनों पक्षों के बीच यह तालमेल नाजुक है, परंतु यह स्वीकारोक्ति भी है कि सह-अस्तित्व संघर्ष से बेहतर है.

इस यात्रा की सफलता इस पर निर्भर करेगी कि क्या यह ठोस परिणाम देती है- क्या मानवीय सहयोग बढ़ता है, क्या व्यापार मार्ग खुलते हैं और क्या आतंकवाद के विरुद्ध भरोसेमंद तंत्र बन पाता है. यदि ऐसा हुआ, तो यह दक्षिण एशिया में नई स्थिरता की शुरुआत हो सकती है. भारत के लिए चुनौती है, संवाद बनाए रखना परन्तु भ्रम में न पड़ना और तालिबान के लिए चुनौती है, जिम्मेदार शासन का प्रदर्शन करना. यदि दोनों पक्ष इस संतुलन को साध सके, तो अक्तूबर 2025 को इतिहास में उस क्षण के रूप में याद किया जाएगा जब भारत ने अफगानिस्तान में फिर से प्रवेश किया- बंदूक से नहीं, बल्कि संवाद और विकास से. यह भारत के लिए न केवल रणनीतिक, बल्कि सभ्यतागत विजय होगी- यथार्थवाद की वह जीत जो क्षेत्र में स्थिरता का नया क्षितिज खोल सकती है.

डिस्क्लेमर: लेखक द इंडियन फ्यूचर्स थिंक टैंक के संस्थापक और दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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