उत्तराखंड राज्य निर्माण की 25वीं वर्षगांठ पर राजीव गांधी इंस्टिट्यूट फॉर कंटेम्पररी स्टडीज की ओर से ऑनलाइन विमर्श हुआ, जिसमें पूर्व सांसद प्रदीप टम्टा, वरिष्ठ पर्यावरण कार्यकर्ता डॉ रवि चोपड़ा, शिक्षाविद महेश पुनेठा, वरिष्ठ पत्रकार उमाकांत लखेड़ा, सामाजिक कार्यकर्ता प्रेम पिरम सहित करीब 40 लोग जुड़े. बैठक की अध्यक्षता वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ रवि चोपड़ा ने की और संचालन भुवन पाठक ने किया.
25 साल में पीढ़ी जवान हुई, चीड़ बढ़ा, बांझ घटा और आजीविका पर असर
भुवन पाठक ने कहा कि राज्य बने 25 साल हो गए, एक पूरी पीढ़ी जवान हो गई लेकिन आर्थिक, भौगोलिक और रोजगार के मुद्दे अब भी बने हुए हैं. उन्होंने कहा कि पहाड़ बड़े पर्यावरणीय संकट से जूझ रहा है और आने वाले 25 वर्षों की दिशा पर गंभीर संवाद जरूरी है.
जीत सिंह सनवाल ने कहा कि उन्होंने ‘उत्तराखण्ड के समावेशी और सतत विकास के लिए नई रणनीति' शीर्षक से विभिन्न हिमालयी राज्यों पर अध्ययन किया है. उनके अनुसार राज्य में भूमि की गुणवत्ता रासायनिक खादों से खराब हुई है, बांझ के जंगल पीछे खिसक रहे हैं और चीड़ के वन बढ़ रहे हैं जिससे जल, जंगल, जमीन पर आधारित आजीविका को गहरा नुकसान पहुँचा है.
उन्होंने कहा कि राज्य बनने के बाद जातीय और धार्मिक खाई और ज़्यादा गहरी हुई है, जबकि शिक्षा और स्वास्थ्य में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ. 2017-18 के बाद निर्माण क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों का वापस कृषि में लौटना आर्थिक अवसरों की कमी दिखाता है.
सनवाल ने कहा कि जौनसार, कुमाऊं और गढ़वाल की अलग सामाजिक-सांस्कृतिक प्रकृति को ध्यान में रखते हुए क्षेत्र-विशिष्ट रणनीतियाँ तैयार करनी होंगी और छोटे-बड़े किसानों के लिए अलग नीतियां बनानी चाहिए ताकि वे अपने उत्पाद बड़े बाजार तक पहुँचा सकें. मौजूदा विकास मॉडल पर नए सिरे से सोचने की जरूरत है.
स्थानीय भूगोल के हिसाब से शिक्षा नहीं
जीत के बाद बोलते हुए शिक्षाविद महेश पुनेठा ने बताया कि उत्तराखंड बनने के बाद भी वही पाठ्यक्रम चल रहा है जो उत्तर प्रदेश में था. उन्होंने कहा कि स्थानीय संसाधन, संस्कृति और जरूरतें अभी पाठ्यक्रम में जगह नहीं पा सकीं. उन्होंने कहा कि पढ़े-लिखे नौजवान अपनी मिट्टी से दूर होते गए और यही पलायन बढ़ाता है. उन्होंने कहा कि एक राष्ट्र एक पाठ्यक्रम पर चर्चा हो सकती है, लेकिन उत्तराखंड के लिए स्थानीय शिक्षा मॉडल जरूरी है. उच्च गुणवत्ता वाले संस्थान खोलकर पलायन रोका जा सकता है.
महिलाओं की स्थिति बिगड़ी, संवैधानिक मूल्यों पर लौटें
वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ रवि चोपड़ा ने कहा कि पिछले 25 साल में महिलाओं की स्थिति खराब हुई है और घर-बाहर दोनों जगह उनका दमन बढ़ा है. उन्होंने कहा कि चिपको और राज्य आंदोलन में महिलाओं की सक्रियता थी, पर अब आंदोलनों में उनकी कमी दिखती है. सामाजिक कार्यकर्ता भी राजनीति से दूर हो गए.
उन्होंने आगे कहा कि खेती को पानी, नया ज्ञान और आर्थिक सहयोग देकर लाभकारी बनाया जा सकता है और ग्रामीण क्षेत्रों को शहरी सुविधाएं मिलनी चाहिए. उन्होंने कहा कि समानता और सम्मान वाला समाज संवैधानिक मूल्यों के पालन से ही संभव है.
गांव खाली, कुपोषण और आजीविका की चुनौती
चौबट्टाखाल से प्रेम बहुखंडी ने कहा कि पहाड़ों में आज भी जीवित रहने की चुनौती है, बच्चों में कुपोषण दिख रहा है और हाल में यहां बाघ द्वारा बच्ची को उठाने की घटना ने डर बढ़ाया है.
उन्होंने कहा कि सिडकुल जैसी औद्योगिक नीतियों से गांव खाली हो रहे हैं, मनरेगा में काम की गारंटी नहीं और बेरोजगारों को राहत नहीं है. उन्होंने कहा कि देहरादून में आज राज्य गठन का उत्सव मनाया जा रहा है पर यहां गांवों में बिल्कुल उत्साह नहीं है.
सड़कें बढ़ीं, पलायन भी बढ़ा
द्वाराहाट से मोहन कांडपाल कहते हैं कि पहाड़ों में सड़कें जरूर बनी हैं लेकिन पलायन और तेज हुआ है. उन्होंने कहा कि लड़कियां शिक्षा ले रही हैं लेकिन स्नातक के बाद दिशा नहीं है. उन्होंने कहा कि विकास मॉडल की वजह से जलधाराएँ सूख रही हैं और मौजूदा पाठ्यक्रम युवाओं को गांव से दूर ले जाता है.
पारंपरिक कृषि मॉडल की वापसी जरूरी
राजीव जोशी ने कहा कि अंग्रेजों ने पहाड़ की जलवायु समझकर चाय बागान लगाए थे और हमें भी टिकाऊ, स्थानीय विकास मॉडल की ओर लौटना चाहिए.
पूर्व सांसद प्रदीप टम्टा ने कहा कि उत्तराखंड की खेती संकट में है और छोटी-बड़ी नदियां अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रही हैं. उन्होंने कहा कि राज्य के जल संसाधनों का उपयोग पहाड़ के लोगों के हित में होना चाहिए.














