राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरचालक डाक्टर मोहन भागवत ने कुछ साल पहले केरल के एक विद्यालय में गणतंत्र दिवस के अवसर पर तिरंगा झंडा फहराया. इस पर पूरे देश में एक ऐसा हंगामा हुआ मानो कोई अनहोनी घटना हो गई हो. केरल सरकार ने शासकीय आदेश निकाला ताकि डॉक्टर मोहन भागवत केरल के किसी भी विद्यालय में तिरंगा झंडा न फहरा सकें. राष्ट्रीय ध्वज को एक भारतीय नागरिक ही किसी विद्यालय में न फहरा सके, ऐसा शासकीय आदेश निकाला जाना एक असाधारण घटना है, वह भी उस कम्युनिस्ट सरकार द्वारा किया गया , जिसके अधिकारियों और नेताओं को 1962 में चीन के आक्रमण के समय पंडित नेहरू की सरकार ने देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया था. उनके मन में अचानक तिरंगे के प्रति भक्ति और निष्ठा जागृत हुई हो ऐसा कोई कारण नहीं दिखता वो केवल अपने वैचारिक विरोधी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख को केरल में तिरंगा झंडा फहराने का पवित्र कार्य करने से रोकना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने उसी संविधान की भावना का उल्लंघन किया जिसकी शपथ लेकर वे सत्ता में आए. लेकिन इस विषय पर न तो संपादकीय लिखे गए और न ही चर्चाएं हुईं. ऐसा लगता है कि संघ के माध्यम से आग्रही हिंदुओं के विरुद्ध वातावरण बनाया जाना एक स्वाभाविक सेक्युलर कर्म मान लिया गया है. पर वे क्या जानते हैं कि जिस संघ के खिलाफ वे इतना विष वमन करते हैं, उसकी वास्तविकता क्या है.
आरएसएस का सेवा भाव
जो संघ को नहीं जानते, वे संघ के बारे में सबसे ज्यादा कहते और लिखते हैं, पर जो जानते हैं वे संघ की केशव-सृष्टि के साथ इतने एकात्म हो रहते हैं कि उसके बारे कहना, लिखना कम ही होता है. एक बार मैं नागपुर गया था. स्मृति मंदिर की पुण्य प्रभा के दर्शन किए और श्रीराम जोशी जी से मिलने गया. उनसे पहली बार मिलना हुआ था 19 जून 1997 को जब 'पांचजन्य' के प्रचारक माताओं पर केंद्रित अंक हेतु सौ. सविता श्रीराम जोशी जी का साक्षात्कार किया था. कुछ समय पहले उनकी पुण्यशाली मां का निधन हुआ. वे उन संघ माताओं में हैं जिनके पुत्र प्रचारक बन भारत माता की सेवा हेतु निकले. श्रीराम जोशी जी नहीं हैं...परन्तु सिंह साहसी फौलादी स्वयंसेवक उनके यहां जो चर्चा हुई, वह अलग विषय है, पर आबा जी थत्ते की स्मृति में बन रहे कैंसर संस्थान की चर्चा निकली. आबा जी थत्ते अर्थात डॉक्टर वासुदेव केशव थत्ते संघ के प्रचारक थे, पूज्य श्री गुरुजी और पूज्य बाला साहब देवरस के निजी सहायक के नाते उन्होंने 45 साल बिताए. वे एनएमओ यानी राष्ट्रीय मेडीकोज संगठन के भी संस्थापक थे. उनकी स्मृति में स्वयंसेवकों ने नागपुर में डॉक्टर आबा जी थत्ते सेवा और अनुसंधान संस्था गठित किया, जिसके अनेक वर्षों तक देवेंद्र फडणवीस अध्यक्ष रहे. जब वे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने तो इसका दायित्व मनोहर जी को मिला. देवेंद्र फडणवीस के पिता गंगाधर राव जी कैंसर के कारण ही दिवंगत हुए. संघ के स्वयंसेवक शैलेश जोगलेकर की पत्नी भी कैंसर के कारण युवावस्था में दिवंगत हुईं. ऐसे सैकड़ों हजारों उदाहरण हैं. उनके मन में वेदना और संवेदना से संकल्प उपजा कि कैंसर पीड़ित रोगियों के लिए विश्व स्तर का श्रेष्ठ चिकित्सा संस्थान बनना चाहिए, जहां रोगियों से न्यूनतम शुल्क लेकर श्रेष्ठतम चिकित्सा की सुविधा दी जा सके.
नागपुर में माधव नेत्रालय - प्रीमियम सेंटर के शिलान्यास समारोह में भाग लेते पीएम नरेंद्र मोदी और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत.
बीस साल से वे इस संकल्प को कार्यरूप में परिणत करने के लिए जुटे रहे, फिर आरएसएस के सरसंघचालक डॉक्टर मोहन राव भागवत जी से भी उनकी चर्चा हुई. मोहन जी ने कहा कि यह कार्य अवश्य ही होना चाहिए. स्वयंसेवकों के मन में संकल्प जगे तो किस प्रकार वह साकार रूप लेता है, इसका उदाहरण है देवेंद्र-शैलेश-मनोहर और सैकड़ों कार्यकर्ताओं के अहर्निश सेवा कार्य का परिणाम- 26 एकड़ भूमि में उभर रहा राष्ट्रीय कैंसर संस्थान. साल 2015 में इसके प्रथम चरण का उद्घाटन हुआ. इसमें श्री नितिन गडकरी, रतन टाटा, धर्मेंद्र प्रधान, पीयूष गोयल जैसी विभूतियां आईं. इस अवसर पर संपूर्ण प्रकल्प के कल्पक श्री देवेंद्र फडणवीस का संबोधन जरूर सुनना चाहिए. उन्होंने सबसे पहले शैलेश जोगलेकर का सम्मान करवाया, जो वस्तुत: इस संस्थान के कार्याधिकारी ही हैं. उन्होंने नितिन जी के संबोधन का जिक्र किया कि हम तो चाहेंगे कि किसी को भी यहां आने की जरूरत ही नहीं. लेकिन यदि ऐसा कुछ हुआ तो उसे सर्वश्रेष्ठ देखभाल और चिकित्सा न्यूनतम मूल्य पर मिलनी चाहिए...इसलिए आबा जी थत्ते जैसी चिकित्सक विभूति की स्मृति में यह संस्थान खड़ा किया जा रहा है और कैसे? 2015 में 26 एकड़ जमीन खरीदी गई. नागपुर हवाई अड्डे से करीब 10 किमी दूर 500 बिस्तरों का चिकित्सा संस्थान, सात लाख वर्ग फुट क्षेत्र में बना, एक साल में एक लाख वर्ग फुट से ज्यादा तैयार हुआ, 100 बिस्तरों की व्यवस्था और 400 से ज्यादा डॉक्टरों, नर्सों, कर्मचारियों से काम शुरू- निर्माण जारी है, पर चिकित्सा भी जारी हुई.
कैंसर पीड़ितों का किफायती इलाज
कल्पना करिए कैंसर पीड़ित रोगियों को अभी तक टाटा या दिल्ली के राजीव गांधी अस्पताल जैसे संस्थानों में ही आना होता था. प्रतिवर्ष सात लाख कैंसर पीड़ित भारतीय या तो उचित चिकित्सा के अभाव में अथवा रोग की सही समय पर पहचान न होने के कारण काल कलवित होते हैं. जिन चिकित्सा संस्थानों में निराशा-हताशा कुंठा और आर्थिक बोझ से दबे रोगी तथा उनके निकट संबंधियों पिता, पुत्र, मां, पत्नी के लिए भविष्य अंधकारमय दिखता है, उनके लिए चिकित्सालय में रुकने की जगह नहीं होती, वे या तो फुटपाथ या अस्पताल के गलियारों या धर्मशालाओं में रुकते हैं, जमीन, मकान बेचकर या गिरवी रखकर अपने प्रियजन को स्वस्थ करने की कोशिश करते हैं, वे जब पांच सितारा होटलों की तरह चलाए जा रहे निजी अस्पतालों में जा फंसते हैं तो उन पर क्या गुजरती होगी?
इस साल पांच अगस्त को उत्तराखंड के धराली में आई प्राकृतिक आपदा के पीड़ितों के लिए राहत सामग्री पहुंचाते आरएसएस के स्वयंसेवक.
डॉक्टर हेडगेवार और अबाजी थत्ते की स्मृति को संजोए स्वयंसेवक इसी वेदना को अंतरतम में धारा और कैंसर शोध संस्थान को मूर्त रूप देने में जुटे शैलेश जोगलेकर बताते हैं-- यह देश का प्रथम कैंसर चिकित्सा संस्थान है, जहां बाल रोगियों (पिडियाट्रिक्स) के लिए अलग चिकित्सा खंड है और प्रत्येक कैंसर पीड़ित बाल रोगी की चिकित्सा निशुल्क है. यदि रोगी के अभिभावक समृद्ध हैं तो वे जो भी उचित समझें, वह राशि दान कर सकते हैं. इतना ही नहीं- यह देश का प्रथम चिकित्सा संस्थान है, जिसमें प्रत्येक रोगी को कर्क सेवक मिलता है यानी उसे सलाह देने, उसके पिछले रिकॉर्ड लेने, उसकी पुरानी चिकित्सा और अन्य किसी भी प्रकार की सहायता हेतु स्वयंसेवी सहायक. यहां हैं कर्क योद्धा- यानी वो डॉक्टर जो शोध करेंगे. नवीनतम औषधियों और पद्धतियों से कर्क रोगी (कैंसर रोगी) को चिकित्सा लाभ देते हैं और उसे मानसिक तनाव से यथासंभव राहत दिलाने का प्रयास करते हैं.
और बड़ा प्रश्न होता है- रोगी तो भर्ती हो गया, पर उसे सहायता देने वाले कहां रहेंगे? तो उसे धर्माशाल कहें या सराय. निकट ही 50 अपार्टमेंट ले लिए गए, जहां वे रुक सकते हैं.
बाजार में सीटी स्कैन, एमआरआई के लिए 3-4 से 7-8 हजार रुपये और पेट स्कैन के लिए 22-27 हजार रुपये तक लगते हैं. यहां कैंसर के रोगियों से 1200 रुपये से तीन हजार रुपये और पेट स्कैन के केवल 12-15 हजार रुपये लगते हैं.
पूर्वोत्तर भारत के मणिपुर में राहत सामग्री का वितरण करते सेवा भारत के कार्यकर्ता.
स्वयंसेवकों को कहां से मिलती है प्रेरणा
मैं डॉक्टर नहीं, पर स्वयंसेवक के नाते यह सब शैलेश जी से सुनते हुए नेरी आंखें नम हो गईं. कितने-कितने रोगियों को डॉक्टर हेडगेवार और अबाजी भत्ते की स्मृति से प्रेरित स्वयंसेवक एक नई आशा, विश्वस्तरीय चिकित्सा और नया जीवन दे रहे हैं. राजनीति तो छद्म है, देवेंद्र फडणवीस, शैलेश जोगलेकर, सतीश साल्पेकर, अधिवक्ता मनोहर जैसे स्वयंसेवक यदि आ जुटें तो इसलिए क्योंकि एक थे डॉक्टर केशव राव बलिराम हेडगेवार. उन्होंने स्वयं को पीछे रखते हुए ऐसे भारतीय निर्मित किए जिनके लिए सर्वोच्च अराध्य है भारत-माता और श्रेष्ठतम मार्ग है सेवा.
इसलिए यदि डॉक्टर हेडगेवार को देखना है तो आप उन्हें आप यहां जीवन्त रूप में देख सकेंगे- सेवा करते हुए, सेवा को जीवन का पाथेय बनाने की प्रेरणा देते हुए.
पूरे देश में स्वयंसेवक रक्त (ब्लड) बैंक, नेत्र बैंक, देहदान अभियान, सेवा बस्तियों (स्लम झुग्गी झोंपड़ी बस्तियां) में शिक्षा संस्कार और स्वास्थ्य केंद्र चला रहे हैं. सक्षम संगठन के माध्यम से दिव्यांगजन की सेवा, चिकित्सा हेतु अखिल भारतीय स्तर पर सक्षम संगठन के हजारों कार्यकर्ता विभिन्न प्रकल्प चला रहे हैं. महाकुंभ के समय केवल एक माह में सक्षम के चिकित्सकों ने एक लाख रोगी-यात्रियों की जांच किए और उनको निशुल्क चश्मे दिए गए. इन सबके पीछे वर्तमान सरसंघचालक श्री मोहन जी भागवत की सेवा दृष्टि है, जो सबको संबंल और प्रेरणा देती है. उनके शब्दों में सेवा का उद्देश्य जय-जयकार नहीं बल्कि पीड़ित व्यक्ति की वेदना का हरण होना चाहिए.
डॉ मोहन भागवत ने स्वयंसेवकों से कहा कि डॉक्टर हेडगेवार जी की जन्मशताब्दी के समय सोचा गया कि इन सेवा कार्यों को एक व्यवस्था के अंतर्गत ले आएं और उसी आधार पर कार्य को और विस्तार दें. तब से संघ के स्वयंसेवक इस कार्य में और तेजी से लग गए.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस साल मार्च में आरएसएस मुख्यालय का दौरा किया था, मोदी संघ मुख्यालय का दौरा करने वाले पहले प्रधानमंत्री हैं.
आरएसएस के मूल में है सेवा भावना
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक स्वभावत: सेवा कार्य पहले से करते रहे हैं. संघ स्थापना के समय से ही डॉक्टर हेडगेवार के मूल सिद्धांत में सेवा के बीज हैं. जहां-जहां समाज सेवा की जरूरत है, वहां-वहां काम करना है. इसलिए जगह-जगह संघ के स्वयंसेवक अपनी-अपनी बुद्धि, शक्ति के अनुसार सेवा कार्य कर रहे हैं. डॉक्टर हेडगेवार जी की जन्मशताब्दी के समय सोचा गया कि इन सेवा कार्यों को एक व्यवस्था के अंतर्गत ले आएं और उसी आधार पर कार्य को और विस्तार दें. तब से संघ के स्वयंसेवक इस कार्य में और तेजी से लग गए.
सेवा की एक बड़ी सृष्टि संघ के स्वयंसेवकों ने खड़ी की है, लेकिन ऐसा नहीं है कि देश में सेवा करने वाले पहले संघ के स्वयंसेवक हैं. हमारे देश में सेवा का मंत्र तो पहले से दिया गया है. ‘सर्विस एक्टिविटी' की बात आती है, तो सामान्यत: देश के प्रबुद्धजन मिशनरियों का नाम लेते हैं. दुनियाभर में मिशनरियों की अलग-अलग संस्थाएं चलती हैं. कुछ लोग सवाल करते हैं कि हिन्दू समाज के संत-संन्यासी क्या कर रहे हैं? ऐसा सोचकर एक बार चेन्नै में हिन्दू संतों और उनके द्वारा किए जा रहे सेवा कार्यों से जुड़े लोगों को आमंत्रित किया गया. इस दौरान यह उभरकर आया कि संघ की दृष्टि से दक्षिण के चार प्रांतों में केवल आध्यात्मिक क्षेत्र के आचार्य, संन्यासी इत्यादि मिलकर जो सेवा करते हैं, वे मिशनरियों की सेवा से कई गुना ज्यादा है. लेकिन यहां बात स्पर्धा की नहीं है. उससे ज्यादा या उससे कम की भी बात नहीं कर रहा हूं. सेवा का पैमाना ऐसा हो भी नहीं सकता. सेवा, सेवा है. सेवा में कोई स्पर्धा की बात नहीं है.
सेवा से कोई काम नहीं निकालना है. सेवा मनुष्य के मनुष्यत्व की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है. यहां तक कि पशु में भी संवेदना होती है. कई बार हम देखते हैं कि किसी घर का कोई व्यक्ति गुजर जाता है तो उस घर की गाय तीन दिन तक खाना नहीं खाती. उस घर का कुत्ता खाना-पीना छोड़ देता है. ऐसे प्रसंग अनेक लोगों को अनुभव में आते रहते हैं. संवेदना सबमें होती है, लेकिन संवेदना पर कृति करना, ये मनुष्य का गुण है. इसी को हम करुणा कहते हैं.
संवेदना के आधार पर कृति होनी चाहिए. अगर किसी का दुख मुझे दिख रहा है, उससे मैं दुखी होता हूं, तो अच्छी बात है. लेकिन केवल दुखी होने से काम नहीं चलता, उस दुख का इलाज करने का प्रयास करना होगा. यह करुणा है. इस करुणा को हमारे यहां धर्म के चार पहलुओं में एक स्थान दिया गया है. हम सब एक ही तत्व से अनुप्राणित हैं, फिर मैं अकेला सुखी हूं, बाकी दुखी हैं, ऐसा मुझसे देखा नहीं जाएगा, क्योंकि सेवा ही सत्य की प्रत्यक्ष अनुभूति है. इस भाव से सेवा होनी चाहिए. इस भाव से जब सेवा होती है, तब हमारे देश में वह समरसता का साधन होता है. संघ के स्वयंसेवक इसी कार्य में लगे हुए हैं.
हमें जय-जय नहीं करनी है और न ही करवानी है. जो सबने मिलकर तय किया, उसको मानना और असहमत होते हुए भी कार्य सफल करना कार्यकर्ता का स्वभाव होना चाहिए. सेवा कार्य में जोश से ज्यादा होश की आवश्यकता रहती है.
यही वास्तविक संघ है .
डिसक्लेमर: लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुखपत्र माने जाने वाले 'पांचजन्य' के पूर्व संपादक और राज्य सभा के पूर्व सदस्य हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.