मोदी-नीतीश के रास्ते चलने को मजबूर तेजस्वी, क्या बिहार में बदल गई आरजेडी की सियासत?

पिछले दो दशकों के चुनावी ट्रेंड्स और नतीजों ने यह साफ़ इशारा कर दिया है कि चुनावी जीत-हार की लगाम अब महिला और अति-पिछड़ा वर्ग के हाथों में है. नेताओं को अपनी राजनीतिक धारा बदलने पर मज़बूर होना पड़ा है.

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पिछले दो दशकों के चुनावी ट्रेंड्स और नतीजों ने यह साफ़ इशारा कर दिया है कि चुनावी जीत-हार की लगाम अब महिला और अति-पिछड़ा वर्ग के हाथों में है. नेताओं को अपनी राजनीतिक धारा बदलने पर मज़बूर होना पड़ा है. बिहार के युवा नेता तेजस्वी यादव भी अब इसी बदली हुई ज़मीनी हकीकत को समझते हुए अपनी रणनीति को धार दे रहे हैं.

बदलते सामाजिक समीकरण और तेजस्वी का फोकस

सन 2015 में आरएसएस प्रमुख के आरक्षण संबंधी बयान के बाद भले ही चुनाव में अगड़ा-पिछड़ा का आभास हुआ हो, लेकिन वह चुनाव भी मुख्यतः 'आरक्षण बचाओ' की धुरी पर लड़ा गया और उसका समाज पर कोई तीखा असर नहीं पड़ा. 2020 के चुनाव में तेजस्वी ने आर्थिक समानता की बात कही. अब, पिछले 50 वर्षों में समाज के गहरे बदलाव ने नेताओं को अपनी पारंपरिक राजनीति से हटने पर विवश किया है.

तेजस्वी अब अपनी घोषणाओं के ज़रिए उन 'वोट दिला सकने वाली संस्थाओं' को लुभा रहे हैं, जो अपने प्रभाव में वोटरों को प्रभावित करने की क्षमता रखती हैं-

जीविका दीदियों को लुभाना: उन्होंने 'जीविका दीदी' (स्वयं सहायता समूह की महिलाएं) के लिए कुछ विशिष्ट वादे किए हैं, जो सीधे तौर पर महिला वोट बैंक को साधने का प्रयास है.

पैक्स अध्यक्षों को शक्ति: पैक्स (प्राथमिक कृषि साख समिति) अध्यक्षों को अधिक शक्ति देने की बात भी एक ग्रामीण, संगठित वोट बैंक पर नज़र रखती है.

कर्मचारी और शिक्षक: सरकारी कर्मचारियों और शिक्षकों को घर के पास पदस्थापना (पोस्टिंग) का वादा भी एक ऐसा कदम है, जो संगठित और प्रभावशाली वोटरों को अपने पक्ष में करने की कोशिश है.

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स्पष्ट है, कि मोदी-नीतीश का मैजिक जिन वर्गों पर हुआ करता था, तेजस्वी भी अब अंततः उन्हीं वर्गों की ओर मुखातिब हो रहे हैं. हालांकि, जातीय सर्वे के बाद आरक्षण बढ़ाने जैसे कदम उनके मन में हो सकते हैं, पर ज़ुबान पर अभी नहीं हैं. 2020 का चुनाव वे जीतते-जीतते हार गए थे, जिसका गहन विश्लेषण निश्चित रूप से उनके 'कहां ढीला होना है और कहां कड़क' की रणनीति का आधार बना है.

यादव-सवर्ण संतुलन और A टू Z की छवि

पार्टी की अपनी कट्टर आंतरिक छवि (यादव बहुल) को संतुलित करने के लिए तेजस्वी ने एक बारीक सामाजिक इंजीनियरिंग का प्रदर्शन किया है:

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यादव समुदाय: उन्होंने यादव समाज का बलिदान नहीं किया और इस चुनाव में भी 144 में से 52 टिकट यादव समुदाय को दिए.

सवर्णों को टिकट: कई चुनावों बाद, उन्होंने 6 भूमिहारों को टिकट देकर एक 'न्यूट्रल' फैक्टर बनाने की कोशिश की. उन्होंने करीब 10% टिकट सवर्ण समाज को दिए और सहयोगी दलों से भी अधिक दिलवाए.

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A टू Z का संदेश: उनकी घोषणाएं एनडीए के वोट बैंक में सेंध लगाने की मंशा रखती हैं. भले ही आखिरी वक्त की घोषणाएं बहुत मायने न रखें, लेकिन यह उनके कार्यकर्ताओं को मतदाता से यह कहने का मौक़ा देती है कि "हमारे नेता A टू Z (सभी वर्गों) के लिए सोचते हैं."

रोजगार और कृषि पर विजन की कमी

तेजस्वी युवा हैं, और सरकारी नौकरी और सरकारी सहायता की बात करते हैं, जो युवाओं को तात्कालिक रूप से आकर्षित कर सकती है. हालांकि, उनके विजन में एक बड़ी कमी नज़र आती है. उन्होंने कहीं भी 'हर हाथ रोजगार के साथ हर आँगन उद्योग' की बात नहीं की.

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किसानों की दुर्दशा: बिहार के किसानों की स्थिति दयनीय है। जनसंख्या अधिक होने के कारण किसानों के पास इतनी ज़मीन नहीं है कि वे आत्मनिर्भर बन सकें। बटाईदार किसान पूरी तरह मौसम पर निर्भर हैं।

कृषि घोषणा का कम असर: नीतीश कुमार का 'एग्रीकल्चर फीडर' विजन था. तेजस्वी की किसानों के लिए बिजली माफ़ करने की घोषणा बहुत प्रभावी नहीं होगी, क्योंकि यह दर पहले से ही काफी सस्ती है.

तेजस्वी युवा होने के नाते, यदि वह बिहार को रोज़गारोन्मुख, उद्योग-आधारित बनाने का एक स्पष्ट विजन अपने घोषणापत्र में रखते, तो शायद युवा मतदाताओं को अधिक लुभाते.

कुल मिलाकर, तेजस्वी ने अपनी घोषणाओं और टिकट वितरण से एनडीए के कोर वोट बैंक (महिला, अति-पिछड़ा और प्रभावशाली समूह) को निष्क्रिय करने की स्पष्ट चाहत रखी है. यह चुनावी रणनीति कितनी सफल हुई है, और मतदाताओं पर इसका कितना असर पड़ा है, इसका पता तो 14 नवंबर को ही चलेगा.

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