कोसी की जान और शान है मक्का : रोज हजारों टन हो रहा गोल्डन क्रॉप का निर्यात

मक्का कोसी का गोल्डन क्रॉप है. जो आंधी, तूफान, बारिश और बाढ़ के बाद भी यहां के किसानों को लाभ ही देता है.

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सहरसा:

इन दिनों जिला मुख्यालय के लगभग सभी मुख्य सड़कों के किनारे बड़े वाहन की कतार दिख रही है. यह तस्वीर पिछले एक से डेढ़ महीने से यथावत बनी हुई है और कोसी को गर्व दिलाने वाली है. इन ट्रकों पर मक्का लोड रहता है. जो वजन के लिए कहरा कुटी और जगदंबा पेट्रोल पंप के पास जमा होते हैं. जहां धर्मकांटा पर वजन होने के बाद ये ट्रक अन्य प्रदेशों या फिर रेल रैक प्वाईंट की ओर रवाना होते हैं.

दरअसल, मक्का कोसी का गोल्डन क्रॉप है. जो आंधी, तूफान, बारिश और बाढ़ के बाद भी यहां के किसानों को लाभ ही देता है. यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि कोसी क्षेत्र के आधे से अधिक किसानों के जीवन की परवरिश यही मक्का करता है. उनका रहन-सहन, खान-पान, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, शादी-ब्याह से लेकर सारे खर्च इसी मक्के की फसल से पूरे होते हैं. जब ये किसान मक्के के दानों को व्यापारी के हाथों बेचते हैं तो, इनका सीना चौड़ा होता है और इन्हें कई सपने पूरे होते दिखते हैं. कोसी का यह मक्का दिल्ली, पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र, यूपी सहित अन्य प्रदेशों में जाता है. इतना ही नहीं इन मक्कों का निर्यात पाकिस्तान, बंगलादेश, नेपाल, भूटान सहित अन्य देशों में भी होता है. जहां फैक्ट्रियों में मक्के के कई आयटम बन संपूर्ण देश में बेचे जाते हैं.

सरकार खरीदती नहीं, सिर्फ तय करती है एमएसपी
कहते हैं कि कोसी बिहार का शोक है. लेकिन मक्के के मामले में कोसी वरदान है. हर साल बाढ़ के दौरान अपने साथ बहाकार लायी मिट्टी अत्यधिक उपजाऊ होती है. खासकर मक्के के लिए यह सोने के समान होती है. जो काफी कम खर्च और काफी कम मेहनत पर भी किसानों को अच्छी उपज देता है. हालांकि बिहार सरकार का इस ओर बेहतर रूख नहीं होने से किसानों को आशातीत आमद नहीं मिल हो पाती है. सरकार मक्के का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तो तय करती है. लेकिन धान और गेहूं की तरह खरीदने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाती है. लिहाजा किसानों को मक्का औने-पौने दाम में बेचना पड़ता है. बाढ़ पीड़ित क्षेत्र होने और किसानों के घरों में रखने की जगह नहीं होने के कारण वे इसे स्टोर कर भी नहीं रख सकते. जिससे वे अगली खेती करने के लिए इसे बेचकर हटाने में ही अपनी होशियारी समझते हैं. इस साल मक्के का सरकारी एमएसपी 1870 है. लेकिन सरकारी स्तर पर एक छटांक की खरीद नहीं होने से इन किसानों को हजार से 1200 रुपये प्रति क्विंटल की दर से बेचना पड़ता है. इस दौरान किसानों के लाभ का एक बड़ा हिस्सा बिचौलियों को भी चला जाता है. दरअसल उन बिचौलियों के लिए भी कमाने का यही समय होता है.

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प्रतिदिन 50 से अधिक बॉगियों होती है लोड
राज्य के बाहर से आये एजेंट स्थानीय बिचौलिए से मिलकर किसानों से ओने-पौने दामों में गोल्डन क्रॉप मक्के की खरीद कर राज्य से बाहर मालगाड़ियों के माध्यम से भेज रहे हैं. प्रतिदिन 50 से अधिक बोगियां लोड होती है एवं निर्धारित जगहों के लिए रवाना होती है. गंगजला स्थित रैक प्वाइंट पर सैकड़ों की संख्या में ग्रामीण क्षेत्रों से ट्रक पहुंचते हैं, जहां इनमें लदे मक्के को माल गाड़ियों के बोगियों में लोड किया जाता है एवं निर्धारित जगह के लिए मालगाड़ी रवाना होती है. इनके अलावा जिले के सोनबरसा कचहरी स्टेशन से गोल्डन फसल मक्का की भी प्रतिदिन लोडिंग हो रही है.

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20 हजार हेक्टेयर में हुई है मक्के की खेती
मौसम की बेरुखी एवं बेमौसम बरसात से मक्के की फसल को काफी क्षति पहुंची है. हालांकि, इस वर्ष सरकारी आंकड़ों से कहीं अधिक हेक्टेयर में मक्के की खेती की गई थी. सूत्रों के अनुसार सरकारी आंकड़ों से तीन गुणा से भी अधिक हेक्टेयर में किसानों ने मक्के की खेती की थी. जिले में अनुमानतः 35 हजार हेक्टेयर में मक्के की खेती हुई थी. इस बाबत पूछने पर जिला कृषि पदाधिकारी दिनेश प्रसाद सिंह ने बताया कि जिले में 19 हजार 685 हेक्टेयर में मक्का फसल की खेती की गई है. फसल उत्पादन का लक्ष्य 52 क्विंटल प्रति हेक्यर रखा गया था. जिसमें बेमौसम वर्षा के कारण 20 प्रतिशत के नुकसान की संभावना है. लक्ष्य के अनुकूल जिले में 42 क्विंटल प्रति हेक्टेयर मक्के का फसल तैयार हुआ है. जिले में कुल 80 हजार मेट्रिक टन मक्के की फसल का उत्पादन हुआ है.

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